बुधवार, 13 दिसंबर 2017

जूझ (आनंद यादव)

पाठशाला जाने के लिए मन तड़पता था। लेकिन दादा के सामने खड़े होकर यह कहने की हिम्मत नहीं होती कि, "मैँ पढ़ने जाऊँगा।" डर लगता था कि हड्डी-पसली एक कर देगा। इसलिए मैँ इस ताक में रहता कि कोई दादा को समझा दे। मुझे इसका विश्वास था कि जन्म-भर खेत में काम करते रहने पर भी हाथ कुछ नहीं
लगेगा। जो बाबा के समय था, वह दादा के सम
नहीं रहा। यह खेती हमें गड्ढे में धकेल रही है। पढ़ जाऊँगा तो नौकरी लग जाएगी, चार पैसे हाथ में रहेंगे, विठोबा आण्णा की तरह कुछ धंधा कारोबार किया जा सकेगा।' अंदर-ही-अंदर इस तरह के विचार चलते रहते।


दीवाली बीत जाने पर महीना-भर ईख पेरने का कोल्हू चलाना होता। कोल्हू ज़रा जल्दी शुरू किया तो दादा की समझ से ईख की अच्छी-खासी कीमत मिल जाती। यह उसकी समझ कुछ हद तक सही थी। जब चारों और कोल्हू चलने लगते तो बाजार में गुड़ की बहुतायत ही जाती और भाव नीचे उतर आते। उस समय नंबर एक और नंबर दो का गुड़ बहुत आता और हमारे जैसे खेतों पर ही बनाए गए नंबर तीन के गुड़ को कौन पूछता। बाकी के
किसान दूसरे ढंग से विचार करते थे। उनका मत था कि यदि ईख को और कुछ दिन खेत में खड़ी रहने दिया गया तो गुड़ जरा ज्यादा निकलता है। देर तक खड़ी रहने वाली ईख के रस में पानी की मात्रा कम होती है और रस गाढ़ा हो जाता है जिसके कारण ज़्यादा गुड़ निकलता है । लेकिन दादा की समझ से गुड़ ज़्यादा निकलने की अपेक्षा ज़्यादा मिलना चाहिए ।
इसलिए सारे गाँव भर मेँ कोल्हू सबसे पहले शुरू होता था ।

इसी कारण वह इस वर्ष भी शुरू हुआ और हम उससे जल्दी निपट गए। आगे के
मेँ लग गए।

सभी जन धूप मेँ लेटे हुए थे। माँ धूप मेँ कंडे थाप रही थी-मैं बाल्टी मेँ भर-भरकर उसे दे रहा था। कुछ-न-कुछ बातचीत भी कर रहे थे। हम दोनों ही थे इसलिए यह सोचकर कि बात माँ से कहनी चाहिए और मैंने अपने पढ़ने की बात छेड़ दी।
माँ ने कहा," अब तू ही बता, मैँ का करूँ?" पढ़ने-लिखने की बात की तो वह बरहैला
सूअर की तरह गुर्राता है। तुझे मालूम है। "…माँ के मन मेँ जंगली सूअर बहुत गहराई मेँ बैठा हुआ था ।

"अब मळा (खेती) के सभी काम बीत गए हैं। मेरे लिए अब कुछ तो करना नहीँ रह गया है। इसलिए कहता हूँ ; तू दत्ता जी राव सरकार से मेरे पढ़ने के बारे मेँ कह । आज रात को उनके यहाँ चलेगे। मैं चलूँगा तेरे साथ । तू उन्हेँ सब कुछ समझाकर बता दे । तो वे दादा को ठीक तरह से समझा सकेँगे ।"

"ठीक है चलेंगे।" माँ ने हाँ तो की लेकिन अंदर से माँ के
स्वर मेँ उदासी थी। मुझे भी मालूम था कि इतना करने पर भी कोई लाभ नहीं होगा। लेकिन वह मेरा मन रखने के लिए जाने को तैयार हो गई। मेरी तड़पन वह समझती थी। सातवीं तक पढ़ाने की उसके
मन मेँ तैयारी थी। लेकिन दादा के आगे उसका बस नहीं चलता था।

रात को मैं और माँ दत्ता जी राव देसाई के यहाँ गए। माँ ने
दीवार के सहारे बैठकर दत्ता जी राव से सब कुछ कह दिया। वे भी इस बात से सहमत हो गए। माँ ने यह भी बताया कि दादा सारे दिन बाजार मेँ रखमाबाई के पास गुजार देता है। खेती के काम मेँ हाथ नहीं लगाता है। माँ ने देसाई को यह विश्वास दिला दिया कि दादा को सारे गाँव भर आजादी के साथ घूमने को मिलता रहे, इसलिए उसने मेरा पढ़ना बंद कर मुझे खेती मेँ जोत दिया है। यह सुनते ही देसाई दादा चिढ़ गए और बोले, " आने दे अब उसे, मेँ
उसे सुनाता हूँ कि नहीं अच्छी तरह, देख ।"

उठते-उठते मैंने भी दत्ता जी राव से कहा, " अब जनवरी का महीना है। अब परीक्षा नज़दीक आ गई है। मैं यदि अभी भी कक्षा मेँ जाकर बैठ गया और पढ़ाई की दुहराई कर ली तो दो महीने मेँ
पाँचवीं की सारी तैयारी हो जाएगी और मैं परीक्षा मेँ पास हो जाऊँगा। इस तरह मेरा साल बच जाएगा। अब खेती मेँ ऐसा कुछ काम नहीं है। मेरा पहले ही एक वर्ष बेकार मेँ चला गया है।

"ठीक है, ठीक है। अब तुम दोनों अपने घर जाओ-जब वह आ जाए तो मेरे पास भेज देना और उसके पीछे से घड़ी भर बाद मेँ तू भी आ जाना रे छोरा।"

"जी!" कहकर हम खड़े हो गए। उठते-उठते हमने यह भी
कहा कि "हमने यहाँ आकर ये सारी बातेँ कहीँ हैँ , यह मत बता देना , नहीँ तो हम दोनोँ की खैर नहीँ है । माँ अकेली साग -भाजी देने आई थी । यह बता देँगे तो अच्छा होगा ।"

"ठीक है, ठीक है। मुझे जो करना है मैँ करूँगा । देख ,उसके सामने ही तुझसे कुछ पूछूँगा तो निडर होकर साफ़-साफ़ उत्तर देना । डरना मत ।"

"नहीं जी।"

मैं माँ के साथ लौट आया। एक घंटा रात बीते दादा घर पर आया। मैं घर मेँ ही था।

आते ही माँ ने दादा से कहा, "साग-भाजी देने देसाई सरकार के यहाँ गई थी तो उन्होँने कहा कि बहुत दिनों से तेरा मालिक दिखाई नहीं दिया है। खेत से आ जाने पर ज़रा इधर भेज देना।"

"कुछ काम-वाम था?" दादा ने अधीरता से पूछा।

"मूझे तो कुछ बताया नहीं उन्होंने।"

"तो मैँ हो आता हूँ। तब तक तू रोटियाँ सेंक ले। गणपा आए तो उसे खेतों पर भेज देना
पहले ही।"

दादा तुरंत उठ खडा हुआ। देसाई के बाड़े का बुलावा दादा के लिए सम्मान की बात थी।
आधा घंटा बीतने पर माँ ने मुझसे कहा कि " अब तू जा, कहना जीमने बुलाया है।"

"अच्छा ।"

मैं पहुँचा तो सरकार मेरी राह देख रहे थे।

"क्योँ आया रे छोरे?"

"दादा को बुलाने आया हूँ, अभी खाना नहीं खाया है।"

"बैठ, बैठ थोड़ी देर । अभी तो आया है वह मेरे पास ।"

"जी," मैं बैठ गया।

धीरे-धीरे दत्ता जी राव पूछने लगे, "कौन-सी मेँ पढ़ता है रे तू?"

"जी, पाँचवीं मेँ था किंतु अब नहीं जाता हूँ।"

"क्योँ रे?"

"दादा ने मना कर दिया है। खेतों मेँ पानी लगाने वाला कोई नहीं है।"

"क्योँ रतनाप्पा?"

"हाँ जी!"

"फिर तू क्या करता है? " सरकार ने दादा से जिरह करना शुरू किया तो सारा इतिहास बाहर निकल आया। सरकार ने दादा पर खूब गुस्सा किया। उन्होँने दादा की खूब हजामत

बनाई। देसाई के मळा (खेत) को छोड़ देने के बाद दादा का ध्यान किसी काम की तरफ़ नहीं रहा। मन लगाकर वह खेत मेँ श्रम नहीं करता है; फ़सल मेँ लागत नहीं लगाता है, लुगाई और बच्चों को काम मेँ जोतकर किस तरह खुद गाँव भर मेँ खुले साँड़ की तरह घूमता है और अब अपनी मस्ती के लिए किस तरह छोरा के जीवन की बलि चढ़ा रहा है। यह सब उन्होंने सुनाया।

दादा के हरेक तर्क को दत्ता जी राव ने काट दिया और मुझसे कहा, "सवेरे से तू पाठशाला जाता रह, कुछ भी हो, पूरी फीस भर दे उस मास्टर की। और मन लगाकर पढ़ाई कर और किसी भी तरह साल नहीं मारा जाए, इसका ध्यान रख । यदि इसने तुझे पढ़ने नहीं भेजा तो सीधा चला आ इधर । सुबह-शाम जो हो सके, वह काम कर यहाँ और पाठशाला जाते रहना। मैं पढाऊँगा तुझे। इसके पास ज़रा ज्यादा बच्चे हो गए हैं इसलिए तुम्हारे साथ कुत्तों की तरह
बर्ताव करता है।"

"मैँने मना कब किया है जी? इसको ज़रा गलत-सलत आदत पड़ गई थी इसलिए पाठशाला से निकालकर ज़रा नज़रों के सामने रख लिया है।"

"कैसी आदतें?"

"चाहे जैसी। यहाँ-वहाँ कुछ भी करता है। कभी कंडे बेचता,
कभी चारा बेचता, सिनेमा देखता, कभी खेलने जाता। खेती और घर के काम मेँ इसका बिलकुल ध्यान नहीं 
है।" दादा ने मेरे ऊपर
अचानक हल्ला बोल दिया।

"क्योँ रे छोकरे?"

"नहीँ जी! कभी एक बार मेले मेँ पटा पर पैसे लगा दिए थे । दादा तो कभी भी सिनेमा के लिए पैसे नहीँ देते हैँ । इसलिए खेत पर गोबर बीन-बीनकर माँ से कंडे थपवा लिए थे और उन्हेँ बेचकर ही कपड़े भी बनवाए थे । उसी समय एक बार सिनेमा भी गया था ।" मैँने भी झूठ-सच मिलाकर ठोँक दिया ।

"अब यह सब बंद कर और सिर्फ़ पढ़ाई मेँ मन लगा। ना पास नहीं हुआ है कभी?"

"नहीं जी। पाठशाला जाना ही बंद करा दिया इसलिए परीक्षा मेँ नहीं बैठा हूँ।"

"अच्छा-अच्छा। अब तू घर जा और सवेरे से पाठशाला जाने लग ।"

"जी।" मैं उठ खडा हुआ। बाहर निकलते-निकलते मैँने सुना, "अरे, बच्चे की जात
है। एकाध वक्त सिनेमा चला गया तो क्या हुआ? एकाध बार खेलने मेँ लग गया तो क्या हुआ? इस बात पर उसका पढ़ना-लिखना बंद कर देना है क्या ?"

"जी।" आप कहते हैँ तो भेज देता हूँ कल से । देखते हैँ एकाध वर्ष मेँ कुछ सुधार हो जाए तो ।" दादा ने मन मारकर कहा । इस समय उसका कोई बस नहीँ चला था ।

खाना खाते-खाते दादा ने मुझसे वचन ले लिया । पाठशाला ग्यारह बजे होती है ।दिन निकलते ही खेत पर हाज़िर होना चाहिए । ग्यारह बजे तक पानी लगाना चाहिए ।खेत पर से सीधे पाठशाला पहुँचना । सवेरे आते समय ही पढ़ने का बस्ता घर से ले आना ।
छुट्टी होते ही घर मेँ बस्ता रखकर सीधे खेत पर आकर घंटा भर ढोर चराना और कभी खेतों मेँ ज्यादा काम हुआ तो पाठशाला मेँ गैर-हाजिरी लगाना... समझे! "मंजूर है का?"

"हाँऽ। खेत मेँ काम होगा तो गैरहाजिर रहना ही चाहिए।" मैं ऐसे बोल रहा था मानो मुझे सारी बातें मंजूर हैं। मन आनंद से उमड़ रहा था ।

"हाँऽ , इतना मंजूर हो तो पाठशाला जाना। नहीं तो यह
पढ़ना-लिखना किस काम का?"

"मैँ सवेरे-शाम खेतों पर आता रहूँगा न ।"

"हाँ ,यदि नहीं आया किसी दिन तो देख गाँव मेँ जहाँ मिलेगा वहीं कुचलता हूँ कि नहीं-तुझे। तेरे ऊपर पढ़ने का भूत सवार हुआ है। मुझे मालूम है, बालिस्टर नहीं होनेवाला है तू? " दादा बार-बार कुर-कुर कर रहा था-मैं चुपचाप गरदन नीची करके खाने लगा था।

रोते-धोते पाठशाला फिर से शुरू हो गई। गरमी-सरदी, हवा-पानी,वर्षा, भूख-प्यास आदि का कुछ भी खयाल न करते हुए खेती के काम की चक्की मेँ, ग्यारह से पाँच बजे तक पिसते रहने से छुटकारा मिल गया। उस चक्की की अपेक्षा पास्टर की छड़ी की मार अच्छी लगती थी। उसे मैँ मजे से सहन कर लेता था।

दोपहरी-भर की कड़क धूप का समय पाठशाला की छाया मेँ
व्यतीत हो रहा था-गरमी के दो महीने आनंद मेँ बीत गए।

फिर से पाँचवीं मेँ जाकर बैठने लगा। फिर से नाम लिखवाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। 'पाँचवीं नापास' की टिप्पणी नाप के आगे लिखी हुई थी । वह पाँचवी के ही हाज़िरी रजिस्टर मेँ लिखा रह गया था । पहले दिन कक्षा मेँ गया तो गली के दो लड़कोँ को छोड़कर कोई भी पहचान का नहीँ था । मेरे साथ के सभी लड़के आगे चले गए थे । मेरी अपेक्षा कम उम्र के और मैँ जिन्हेँ कम अकल का समझता था , उन्हीँ के साथ अब बैठना पड़ेगा ,यह बात कक्षा मेँ पहुँचने पर समझ मेँ आई । मन खट्टा हो गया । बाहरी-अपरिचित जैसा एक बेँच के एक सिरे पर कोने में जा बैठा। मास्टर कौन है, इसका पता नहीं था। पुरानी किताबोँ और पुरानी कापियों का उस कक्षा से कोई संबंध नहीं था- फिर भी लट्ठे के बने थैले में उन्हेँ ले आया था। बस अड्डे पर कोई लड़का अपनी पोटली सँभाले किसी इंतजार में जैसे बैठा होता है, उसी तरह मैं अपनी पढ़ाई की पुरानी धरोहर सँभाले बैठा था।

"क्या नाम है मेहमान? नया दिखाई देता है। या गलती से इस कक्षा में आ बैठे हो?"

कक्षा के सबसे ज्यादा शरारती चह्वाण के लड़के ने सामने आकर खिल्ली उड़ाने के स्वर में पूछा। मेरे ध्यान में आया कि मेरी पोशाक भी अजनबी जैसी है। बालुगड़ी की लाल माटी के
रंग मेँ मटमैली हुई धोती और गमछा पहनकर मैं अकेला ही था।

"देखेँ-देखेँ तुम्हारा गमछा।" 

कहते हुए उसने मरा गमछा खीँच लिया।…गया अब मेरा
गमछा। पूरी कक्षा में इसकी खींचातानी होगी और फट जाएगा। मन में मैं यह सोचकर रूआँसा हो गया। लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं। उस लड़के ने उसे अपने सिर पर लपेट लिया और
मास्टर की नकल करते हुए उसे उतारकर टेबल पर रखकर अपने सिर पर हाथ फेरते हुए हुश्शऽऽ की आवाज़ की। इतने मेँ मास्टर आ गए और वह गुंडा झट से अपनी जगह पर जा बैठा। मेरा गमछा टेबल पर ही रहा । पहले दिन ही इस घटना ने मेरे दिल की धड़कन बढ़ा दी और छाती मेँ धक-धक होने लगी ।

रणनवरे मास्टर कक्षा मेँ आए । टेबल पर मटमैला गमछा देखकर उन्होँने पूछा , "किसका है रे?"

"मेरा है मास्टर ।"

"तू कौन है?"

"मैँ जकाते । पिछले साल फ़ेल होकर इसी कक्षा मेँ बैठा हुँ ।"

"गमछा ले जा पहले ।" उसने छड़ी से मेरा गमछा उठाकर नीचे डाल दिया । मैँ उसे उठाने गया तो कहा , "यहाँ क्योँ रखा है मूर्खोँ की तरह?"

"मैँने नहीँ रखा मास्टर , उस लड़के ने मेरे सिर से छीन लिया और यहाँ रख दिया है ।"

"यह चह्वाण का बच्चा बिना बात के उठक -पटक करता है ।" कहते हुए मास्टर उस लड़के की ओर चले गए ।

मास्टर ने मेरे बारे मेँ और भी पूछताछ की और वामन पंडित की कविता पढ़ाने लगे । 

बीच की छुट्टी मेँ मेरी धोती की काछ उस लड़के ने दो बार
खींचने की कोशिश की। लेकिन मैँ फिर दीवार की तरफ़ पीठ
करके जा बैठा तो पूरी छुट्टी होने से पहले उठा ही नहीं। खिलौने के लिए बनाए गए कौआ के बच्चे को खुले मेँ रख देने पर जैसे कौए चारों ओर से उस पर चोंच मारते हैं, वैसा ही मेरा हाल हो गया। मेरी ही पाठशाला मुझे चोंच मार-मारकर घायल कर रही थी।

घर जाते समय सोच रहा था कि लड़के मैरी खिल्ली उड़ाते
हैं-धोती खींचते हैं-गमछा खींचते हैं, तो इस तरह कैसे निबाह होगा...? नहीं जाऊँगा ऐसी पाठशाला मेँ। इससे तो अपना खेत ही अच्छा है-
चुपचाप काम करते रहो। गली के दो ही लड़के हैं कक्षा मेँ, वे भी मुझसे भी कमजोर हैं।वे क्या मदद करेंगे?...

मन उदास हो गया। चौथी से पाँचवीं तक पाठशाला अपनी
लगती थी। लेकिन अब वह एकदम पराई-पराई जैसी लगने लगी है। अपना वहाँ कोई नहीं है।

सवेरे हो जाने पर मैं उमंग मेँ था-फिर से पाठशाला चला
गया। माँ के पीछे पड़कर एक नयी टोपी और दो नाड़ीवाली चड्डी मैलखाऊ रंग की आठ दिन मेँ मँगवा ली। चड्डी पहनकर पाठशाला मेँ और धोती पहनकर खेत पर जाना शुरू हुआ। धीरे-धीरे लड़कों
से परिचय बढ़ गया।

मंत्री नामक मास्टर कक्षा अध्यापक के रूप मेँ बीच मेँ आए। वे प्राय: छड़ी का उपयोग नहीं करते थे। हाथ से गरदन पकड़कर पीठ पर घूसा लगाते थे। पीठ पर एक ज़ोर का बैठते ही लड़का हूक भरने लगता । लड़कोँ के मन मेँ उनकी दहशत बैठी हुई थी । इसके कारण ऊधम करने वाले लड़कोँ को प्राय : मौका नहीँ मिलता था । पढ़ने वाले लड़कोँ को शाबाशी मिलने लगी । मंत्री मास्टर गणित पढ़ाते थे । एकाथ सवाल गलत हो जाता तो उसे वे अपने पास बुलाकर समझा देते । एकाध लड़के की कोई मूर्खता दिखाई दी तो वे उसे वहीँ ठोँक देते । इसलिए सभी का पसीना छूटने लगता । सभी लड़के घर से पढ़ाई करके आने लगे ।

वसंत पाटील नाम का एक लड़का शरीर से दुबला-पतला, किंतु बड़ा होशियार था। उसके सवाल हमेशा सही निकलते थे। स्वभाव से शांत । हमेशा पढ़ने में लगा रहता। घर से पूरी तैयारी करके आता होगा। दूसरों के सवालों की जाँच करता था। मास्टर ने उसे कक्षा मॉनीटर बना दिया था। हमेशा पहली बेंच पर बैठता बिलकुल मास्टर के पास । कक्षा में उसका
सम्मान था।

मुझे यह लड़का मेरी अपेक्षा छोटा लगता था...मैँ उससे पहले ही पाँचवीं में पहुँच गया
था। गलती से पिछड़ गया हूँ मैँ। इसलिए मास्टर को कक्षा की मॉनीटरी मेरे हाथ में सौंपनी चाहिए, मुझे ऐसा लगने लगा। दूसरी ओर यह भी लगता था कि मुझे दो महीने में पाँचवीं की पूरी तैयारी करके अच्छी तरह पास होना है। कक्षा में दंगा करना और पढ़ाई की उपेक्षा करना
मेरे लिए मुनासिब नहीं। हम तो इस कक्षा में ऊपरी हैं, यह नहीं भूलना चाहिए।

इन सब बातों के कारण मेरा सारा ध्यान पढाई की ओर ही रहा और वसंत पाटिल की
तरह ही पढ़ाई का काम करने लगा। मैंने अपनी किताबोँ पर अखबारी कागज़ के कवर चढ़ा
दिए। अपना बस्ता व्यवस्थित रखने लगा। हमेशा कुछ-न-क्रुछ पढ़ने बैठता था। उसने यदि
कक्षा में कोई शाबाशी का काम किया तो मैँ भी दूसरे दिन वैसा ही कुछ करने लगा। मन
की एकाग्रता क कारण गणित झटपट समझ में आने लगा और सवाल सही होने लगे।

कभी-कभी वसंत पाटील के साथ-साथ ,एक तरफ़ से वह तो दूसरी तरफ़ से मैँ लड़कोँ के सवाल जाँचने लगा । इसके कारण मेरी और वसंत की दोस्ती जम गई । एक-दूसरे की सहायता से कक्षा मेँ हम अनेक काम करने लगे । मास्टर मुझे 'आनंदा' कहकर बुलाने लगे । मुझे पहली बार किसी ने 'आनंदा कहकर पुकारा । माँ कभी 'आनंदा कहती ,परन्तु बहुत कम । मास्टरोँ के इस अपनेपन के व्यावहार के कारण और वसंत की दोस्ती के कारण पाठशाला मेँ विश्वास बढ़ने लगा ।

न.वा.सौँदलगेकर मास्टर मराठी पढ़ाने आते थे । पढ़ाते समय वे स्वयं रम जाते थे । विशेषत : वे कविता बहुत ही अच्छे ढंग से पढ़ाते थे । सुरीला गला , छंद की बढ़िया चाल और उसके साथ ही रसिकता थी उनके पास । पुरानी-नयी मराठी कविताओँ के साथ-साथ उन्हेँ अनेक अंग्रेजी कविताएँ कंठस्थ थीँ । अनेक छंदोँ की लय , गति ,ताल उन्हेँ अच्छी तरह आते थे । पहले वे एकाध कविता गाकर सुनाते थे -फिर बैठे -बैठे अभिनय के साथ कविता का भाव ग्रहण कराते । उसी भाव की किसी अन्य कवि की कविता भी सुनाकर दिखाते । बीच मेँ कवि यशवंत ,बा.भ.बोरकर ,भा.रा. ताँबे , गिरिश , केशव कुमार आदि के साथ अपनी मुलाकात के संस्मरण सुनाते । वे स्वयं भी कविता करते थे । याद आ गई तो वे अपनी भी एकाध सुना देते। यह सब सुनते हुए, अनुभव करते हुए, मुझे अपना भान ही नहीं रहता था। मैं अपनी आँखों और कानों मेँ प्राणों की सारी शक्ति लगा । कर-दम रोककर मास्टर के हाव-भाव, ध्वनि, गति, चाल और रस पीता रहता।

सुबह-शाम खेत पर मानी लगाते हुए या ढोर चराते हुए
अकेले मेँ खुले गले से वे सारी कविताएँ मास्टर के ही हाव-भाव, यति-गति और आरोह-अवरोह के अनुसार ही गाता। उन कविताओं के अर्थों से खेलता हुआ मैं आगे-पीछे आता-जाता था। मास्टर जिस
प्रकार बैठे-बैठे ही अभिनय करते थे, मैं पानी लगाते-लगाते वैसा अभिनय करता था। क्यारियाँ पानी से कब की भर गई हैं, इसका भान भी नहीं रहता था। मास्टर की चाल पर दूसरी कविताएँ भी
पढ़ी जा सकती हैं, इसका पता भी मुझे उसी समय चला।

इन कविताओं के साथ खेलते हुए मुझे दो बड़ी शक्तियाँ प्राप्त हुईं-पहले ढोर चराते हुए, पानी लगाते हुए, दूसरे काम करते हुए, अकेलापन बहुत खटकता था-किसी के साथ बोलते हुए, गपशप
करते हुए, हँसी-मजाक करते हुए काम करना अच्छा लगता
था-हमेशा कोई-न-कोई साथ मेँ होना चाहिए, ऐसा लगता था। लेकिन अब अकेलेपन से कोई ऊब नहीं होती। मैं अपने आप से ही खेलने लगा। उलटा अब तो ऐसा लगने लगा कि जितना अकेला रहूँ, उतना अच्छा। इस कारण कविता ऊँची आवाज़ मेँ गाई जा
सकेगी। किसी भी तरह का अभिनय किया जा सकेगा। कविता गाते-गाते थुई-थुई करके नाचा जा सकता था। मैँ सचमुच ही नाचने लगता था। मैंने अनेक कविताओं को अपनी खुद की चाल मेँ गाना शुरू किया। अनंत काणेकर की कविता, जिसकी पहली पक्ति इस प्रकार है-"चाँद रात पसरिते पाँढरी गाया धरणीवरी" को मैने मास्टर
की चाल से अलग अपनी चाल मेँ बिठाकर गाई। यह चाल एक सिनेमा के गाने के आधार पर थी । वह ,'केशव करणी जाति' नामक छंद मेँ था । उस कविता को मैँ मास्टर की अपेक्षा ज़्यादा अभिनय के साथ गाता था-चेहरे पर कविता के भाव पैदा करने का प्रयत्न करता था । मास्टर को मेरा प्रयत्न इतना अच्छा लगा कि उन्होँने छठी-सातवीँ कक्षा के सभी लड़कोँ के सामने मुझे बुलाकर गवाया । पाठशाला के एक समारोह मेँ भी उसे गवाया...इसके कारण मुझे लगा कि मेरे कुछ नए पंख निकल आए हैँ ।

मास्टर स्वयं कविता करने थे । अनेक मराठी कवियोँ के काव्य -संग्रह उनके घर मेँ थे 1 वे उन कवियोँ के चरित्र और उनके संस्मरण बताया करते थे । इसके कारण ये कवि लोग मुझे 'आदमी' ही लगने लगे थे । खुद सौँदलगेकर मास्टर कवि थे । इसलिए यह विश्वास हुआ कि कवि भी अपने जैसा ही एक हाड़-माँस का; क्रोध-लोभ का मनुष्य ही होता है । मुझे भी लगा कि मैँ भी कविता कर सकता हुँ । मास्टर के दरवाज़े पर छाई हुई मालती की बेल पर मास्टर ने एक कविता लिखी थी । वह कविता और वह लता मैँने दोनोँ ही देखी थी । इसके कारण मुझे लगता था कि अपने आसपास ,अपने गाँव मेँ ,अपने खेतोँ मेँ ,कितने ही ऐसे दृश्य हैँ जिन पर मैँ कविता बना सकता हुँ । यह सब कुछ अनजाने मेँ ही होता रहता था । भैँस चराते-चराते मैँ फ़सलोँ पर , जंगली फूलोँ पर तुकबंदी करने लगा । उन्हेँ ज़ोर से गुनगुनाता भी था और मास्टर को दिखाने लगा । कविता लिखने के लिए खीसा मेँ कागज़ और पेँसिल रखने लगा ।
कभी वह न होते तो लकड़ी के छोटे टुकड़े से भैँस की पीठ पर रेखा खीँचकर लिखता था या पत्थर की शिला पर कंकड़ से लिख लेता। जब
कंठस्थ हो जाती तो पोँछ देता। किसी रविवार के दिन एकाध कविता बन जाती तो सोमवार के दिन मास्टर को दिखाता।

बहुत बार तो सवेरा होने तक का धीरज छूट जाता और मैं रात को ही मास्टर के घर जाकर कविता दिखाता। वे उसे देखते और शाबाशी देते। और फिर कभी-कभी तो कविता के शास्त्र पर एक
पूरी महफ़िल हो जाती। बोलते-खोलते मास्टर बताते-कवि की भाषा कैसी होनी चाहिए, संस्कृत भाषा का उपयोग कविता के लिए किस
तरह होता है, छंद की जाति कैसे पहचानें, उसका लयक्रम कैसे देखें, अलंकारों मेँ सूक्ष्म बातें कैसी होती हैं, अलंकारों का भी एक शास्त्र होता है, कवि को शुद्ध लेखन करना क्योँ जरूरी होता है, शुद्ध
लेखन के नियम क्या हैं, आदि अनेक विषयों पर वे सहज बातें बताते रहते। मुझे उनके प्रति अपनापा अनुभव होता। वे मुझे पुस्तक देते। अलग-अलग प्रकार के कविता-संग्रह देते। उन्होंने कई नयी तरह की कविताएँ सुनाई तो लगा मैं हस ढर्रे पर कविता बनाऊँ।
फिर तो सारे दिन उस दिशा मेँ मेरी कोशिश चलती। इन बातों से मैँ सौदलगेकर मास्टर के बहुत नज़दीक पहुँच गया और जाने-अनजाने
मेरी मराठी भाषा सुधरने लगी। उसे लिखते समय मैं बहुत सचेत रहने लगा। अलंकार, छंद, लय आदि को सूक्ष्मता से देखने लगा।
शब्दों का नशा चढ़ने लगा और ऐसा लगने लगा कि मन मेँ कोई मधुर बाजा बजता रहता है ।

—अनुवाद
केशव प्रथ

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