शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

अध्याय 8

पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

1992 के पृथ्वी सम्मेलन ने पर्यावरण को विश्व राजनीति के प्रमुख मुद्दोँ मेँ शामिल करा दिया । यहाँ दिए गए चित्रोँ मेँ वर्षा के वन और गरान (मेनग्रोव्स ) देखे जा सकते हैँ ।


परिचयइस अध्याय में विश्व-राजनीति में पर्यावरण और संसाधनों के बढ़ते महत्त्व की चर्चा की
गई है। 1960 के दशक से पर्यावरण के मसले ने जोर पकड़ा । इसी पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर इस अध्याय मेँ कुछ महत्त्वपूर्ण पर्यावरण-आंदोलनों की तुलनात्मक चर्चा की गई हैँ । हम साझी संपदा और ' विश्व की साझी विरासत ' जैसी धारणाओं के बारे में भी पढ़ेँगे इस अध्याय को पढ़कर आप संक्षेप में जान सकते हैं कि पर्यावरण से जुड़ी हाल की बहसों में भारत ने कौन-सा पक्ष लिया हैं । इसके बाद अध्याय में संसाधनों की होड़ से जुड़ी वैश्विक राजनीति की एक संक्षिप्त चर्चा की गई है । अध्याय का समापन यह बताते हुए किया गया है कि समकालीन विश्व -राजनीति मेँ हाशिए पर खड़ी मूलवासी जनता (Indigenous people) के इन सवालोँ से क्या सरोकार हैँ और वह क्या सोचती है ।

वैश्विक राजनीति में पर्यावरण की चिंता क्यों?
इस पुस्तक मेँ हमने विश्व-राजनीति पर बड़े सीमित अर्थों में चर्चा की है, मसलन हमने युद्ध और संधि की बातें कीँ; राज्यशक्ति के उत्थान और पतन की चर्चा हुई या फिर हमने अंतर्राष्ट्रीय फलक पर अपने देश की नुमाइंदगी
करने वाली सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की बातें कीँ। अध्याय सात मेँ हमने
विश्व-राजनीति के दायरे को थोड़ा बढ़ाकर उसमें गरीबी और महामारी जैसे विषय भी
शामिल कर लिए हैं। ऐसा करने में कोई मुश्किल भी नहीं क्योँकि हम सब मानते हैं कि गरीबी और महामारी पर अंकुश रखने की जिम्मेदारी सरकार की है। इस अर्थ मेँ ये मुद्दे विश्व-राजनीति के दायरे में ही आते हैं। अब ज़रा इन मुद्दों पर विचार कीजिए। क्या आप मानते हैं कि इन जैसे मुद्दे समकालीन विश्व-राजनीति के दायरे में आते हैं?











जंगल के सवाल पर राजनीति, पानी के सवाल पर राजनीति और वायुमंडल के मसले पर राजनीति! फिर, किस बात में राजनीति नहीं हैं




अराल के आसपास बसे हज़ारोँ लोगोँ को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा क्योँकि पानी
के विषाक्त होने से मत्स्य-उद्योग नष्ट हो गया । जहाजरानी उद्योग और इससे जुड़े तमाम कामकाज खत्म हो गए । पानी मेँ नमक की सांद्रता के ज्यादा बढ़ जाने से
पैदावार कम हो गई । अनेक अनुसंधान हुए लेकिन इस समस्या का समाधान न हो सका । दरअसल इस जगह मज़ाक-मज़ाक मेँ लोग एक-दूसरे से कहते हैँ कि जितने लोग सागर के अध्ययन के लिए आये वे अगर एक-एक बाल्टी पानी भी लाते तो यह सागर भर गया होता ।(अराल सागर की अवस्थिति देखने समझने के लिए पृष्ठ 24 पर दिए मानचित्र को देखेँ ।

स्रोत : www.gobartimes.org

• दुनिया भर में कृषि-योग्य भूमि में अब कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो रही जबकि मौजूदा उपजाऊ जमीन के एक बड़े हिस्से की
उर्वरता कम हो रही है। चारागाहों के चारे खत्म होने को है और मत्स्य-भंडार घट
रहा है। जलाशयों की जलराशि बड़ी तेजी से कम हुई है उसमें प्रदूषण बढ़ा है। इससे खाद्य- उत्पादन में कमी आ
रही है।

• संयुक्त राष्ट्रसंघ की विश्व विकास रिपोर्ट (2006) के अनुसार विकासशील देशों की एक अरब बीस करोड़ जनता
को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता और यहाँ की दो अरब साठ करोड़ आबादी साफ-सफाई की सुविधा से वंचित हैं। इस वजह से 30 लाख से ज्यादा बच्चे हर साल मौत के शिकार होते हैं।

• प्रकृतिक वन जलवायु को संतुलित रखने में मदद करते है, इनसे जलचक्र भी संतुलित बना रहता है और इन्हीं
वनों में धरती की जैव-विविधता का भंडार भरा रहता है लेकिन ऐसे वनों
की कटाई हो रही है और लोग
विस्थापित हो रहे हैं। जैव-विविधता की हानि जारी है और इसका कारण है उन पर्यावासोँ का विध्वंस जो
जैव-प्रजातियों के मामले में समृद्ध हैं।

• धरती के ऊपरी वायुमंडल में ओजोन गैस की मात्रा में लगातार कमी हो रही है। इसे ओजोन परत में छेद होना
भी कहते हैं। इससे परिस्थितिकी तंत्र और मनुष्य के स्वास्थ्य यर एक बड़ा
खतरा मंडरा रहा है।

• पूरे विश्व में समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण भी बढ़ रहा है। यद्यपि समुद्र का मध्यवर्ती
भाग अब भी अपेक्षाकृत स्वच्छ है लेकिन इसका तटवर्ती जल जमीनी क्रियाकलापों से प्रदूषित हो रहा है। पूरी दुनिया मेँ समुद्रतटीय इलाकों मेँ मनुष्यों की सघन बसाहट जारी है और इस प्रवृति पर
अंकुश न लगा तो समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता मेँ भारी गिरावट आएगी।

आपको लग सकता है कि ये तो नैसर्गिक घटनाएँ हैं और इनका अध्ययन राजनीति विज्ञान की जगह भूगोल वाली कक्षा में किया जाना चाहिए। लेकिन ज़रा फिर से सोचिए। पर्यावरण के नुकसान से जुड़े जिन मसलों की चर्चा ऊपर की गई है उन पर अंकुश रखने के लिए अगर विभिन्न देशों की सरकारें कदम उठाती हैं तो इन मसलों की परिणति इस अर्थ मेँ राजनीतिक होगी। इन मसलों में अधिकांश ऐसे हैं कि किसी एक देश की सरकार इनका पूरा समाधान अकेले दम पर नहीं कर सकती
इस वज़ह से ये मसले विश्व-राजनीति का हिस्सा बन जाते हैं। बहरहाल, पर्यावरण और
प्राकृतिक संसाधनों के मसले एक और गहरे अर्थ मेँ राजनीतिक है। कौन पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता है? इस पर रोक लगाने के उपाय करने की जिम्मेदारी किसकी है? धरती के प्राकृतिक संसाधनों पर किसको कितने
इस्तेमाल का हक है? इन सवालों के जवाब बहुधा इस बात से निर्धारित होते है कि कौन देश कितना ताकतवर है। इस तरह ये मसले गहरे अर्थों मेँ राजनीतिक हैं।

हालाँकि पर्यावरण से जुड़े सरोकारों का लंबा इतिहास है लेकिन आर्थिक विकास के
कारण पर्यावरण पर होने वाले असर की चिँता ने 1960 के दशक के बाद से राजनीतिक चरित्र ग्रहण किया। वैश्विक मामलों से सरोकार रखने वाले एक विद्वत् समूह 'क्लब ऑव रोम'
ने 1972 मेँ 'लिमिट्स टू ग्रोथ' शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की ।यह पुस्तक दुनिया की बढ़ती जनसंख्या के आलोक में प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के अंदेशे को बड़ी खूबी
से बताती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने पर्यावरण से जुड़ी समस्याओँ पर सम्मेलन कराये और इस विषय पर अध्ययन को बढ़ावा देना शुरू किया। इस प्रयास का उद्देश्य पर्यावरण की समस्याओँ पर ज्यादा कारगर
और सुलझी हुई पहलकदमियोँ की शुरुआत करना था। तभी से पर्यावरण वैश्विक राजनीति
का एक महत्त्वपूर्ण मसला बन गया ।

1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केँद्रित एक सम्मेलन ब्राजील के रियो डी जनेरियो में हुआ। इसे पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit) कहा
जाता है। इस सम्मेलन में 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया।


एरेस ,केगल्स कार्टून
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वैश्विक तापवृद्धि

यहाँ अंगुलियोँ को चिमनी और विश्व को एक लाईटर के रूप मेँ दिखाया गया है । ऐसा क्योँ ?

खुद करेँ , खुद सीखेँअपने पास-पड़ोस की ऐसी खबरोँ की कतरनेँ जुटाएँ जिनमेँ पर्यावरण और राजनीति के बीच संबंध दिखाई देता हो ।

एरेस , केगल्स कार्टून
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क्या पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी और गरीब देशों के नज़रिए मेँ अंतर हैँ?
वैश्विक राजनीति के दायरे में पर्यावरण को लेकर बढ़ते सरोकारों को इस सम्मेलन में एक ठोस रूप मिला। इस सम्मेलन से पाँच साल पहले ( 1987) ' अवर कॉमन फ्यूचर' शीर्षक बर्टलैंड रिपोर्ट छपी थी। रिपोर्ट में चेताया गया था कि आर्थिक विकास के चालू तौर-तरीके आगे चलकर टिकाऊ साबित नहीं होंगे। विश्व के दक्षिणी हिस्से में औद्योगिक विकास की माँग ज्यादा प्रबल है और रिपोर्ट में इसी हवाले से चेतावनी दी गई थी।
रियो-सम्मेलन मेँ यह बात खुलकर सामने आयी कि विश्व के धनी और विकसित देश
यानी उत्तरी गोलार्द्ध तथा गरीब और विकासशील
देश यानी दक्षिणी गोलार्द्ध पर्यावरण के अलग-अलग अजेंडे के पैरोकार हैं। उत्तरी
देशों की मुख्य चिंता ओजोन परत की छेद और वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वर्मिंग) को
लेकर थी। दक्षिणी देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबंधन के आपसी रिश्ते को सुलझाने
के लिए ज्यादा चिंतित थे।

रियो-सम्मेलन में जलवायु-परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के सबंध में कुछ
नियमाचार निर्धारित हुए। इसमें 'अजेंडा-21' के रूप में विकास के कुछ तौर-तरीके भी
सुझाए गए। लेकिन इसके बाद भी आपसी अंतर और कठिनाइयाँ बनी रहीं। सम्मेलन मेँ इस बात पर सहमति बनी कि आर्थिक वृद्धि का तरीका ऐसा होना चाहिए कि इससे पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे । इसे 'टिकाऊ विकास' का तरीका कहा गया । लेकिन समस्या यह थी कि 'टिकाऊ विकास' पर अमल कैसे किया जाएगा । कुछ आलोचकोँ का कहना है कि 'अजेँडा-21' का झुकाव पर्यावरण संरक्षण को सुनिश्चित करने के बजाय आर्थिक वृद्धि की ओर है । आइए , अब पर्यावरण की वैश्विक राजनीति के कुछ विवादित मुद्दो पर एक नज़र डालते हैँ ।

+ अंटार्कटिका पर किसका स्वामित्व है ?
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अंटार्कटिक महादेशीय इलाका 1 करोड़ 40 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। विश्व के निर्जन क्षेत्र का 26 प्रतिशत हिस्सा इसी महादेश के अंतर्गत आता है। स्थलीय हिम का 90 प्रतिशत हिस्सा और धरती पर मौजूद स्वच्छ जल का 70 प्रतिशत हिस्सा इस महादेश मेँ मौजूद है। अंटार्कटिक महादेश का 3 करोड़ 60 लाख वर्ग किलोमीटर तक अतिरिक्त विस्तार समुद्र मेँ है। सीमित स्थलीय जीवन वाले इस महादेश का समुद्री पारिस्थितिकी-तंत्र अत्यंत उर्वर है जिसमें कुछ पादप
(सूक्ष्म शैवाल , कवक और लाइकेन) , समुद्री स्तनधारी
जीव, मत्स्य तथा कठिन वातावरण मेँ जीवनयापन के
लिए अनुकूलित विभिन्न पक्षी शामिल हैं। इसमें क्रिल मछली भी शामिल है जो समुद्री आहार श्रृंखला की धुरी है और जिस पर दूसरे जानवरों का आहार निर्भर है। अंटार्कटिक प्रदेश विश्व की जलवायु को संतुलित रखने मेँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस महादेश की
अंदरूनी हिमानी परत ग्रीन हाऊस गैस के जमाव का
महत्त्वपूर्ण सूचना-स्रोत है । साथ ही , इससे लाखोँ बरस
पहले के वायुमंडलीय तापमान का पता किया जा सकता है।
विश्व के सबसे सुदूर ठंढ़े और झंझावाती महादेश अंटार्कटिका पर किसका स्वामित्व है? इसके बारे मेँ दो दावे किये जाते हैं। कुछ देश जैसे - ब्रिटेन, अर्जेन्टीना, चिले, नार्वे, फ्रांस , ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैँड ने अंटार्कटिक क्षेत्र पर अपने संप्रभु अधिकार का वैधानिक दावा किया। अन्य अधिकांश देशी ने इससे उलटा रुख अपनाया कि अंटार्कटिक प्रदेश विश्व की साझी संपदा है और यह किसी भी देश के क्षेत्राधिकार मेँ शामिल नहीं है। इस मतभेद के रहते अंटार्कटिका के पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा के नियम बने और अपनाये गए । ये नियम कल्पनाशील और दूरगामी प्रभाव वाले हैँ । अंटार्कटिका और पृथ्वी के ध्रुवीय क्षेत्र पर्यावरण-सुरक्षा के विशेष क्षेत्रीय नियमोँ के अंतर्गत आते हैँ ।

1959 के बाद इस इलाके मेँ गतिविधियाँ वैज्ञानिक अनुसंधान , मत्स्य आखेट और पर्यटन तक सीमित रही हैँ । लेकिन इतनी कम गतिविधियोँ के बावजूद इस क्षेत्र के कुछ हिस्से अवशिष्ट पदार्थ जैसे तेल के रिसाव के दबाव मेँ अपनी गुणवत्ता खो रहे हैँ ।
विश्व की साझी संपदा की सुरक्षा
साझी संपदा उन संसाधनोँ को कहते हैँ जिन पर किसी एक का नहीँ बल्कि पूरे समुदाय का अधिकार होता है । संयुक्त परिवार का चूल्हा ,चारागाह , मैदान ,कुआँ या नदी साझी संपदा के उदाहरण हैँ । इसी तरह विश्व के कुछ हिस्से और क्षेत्र किसी एक देश के संप्रभु क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैँ । इसीलिए उनका प्रबंध साझे तौर पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है । इन्हेँ 'वैश्विक संपदा' या 'मानवता की साझी विरासत' कहा जाता है । इसमेँ पृथ्वी का वायुमंडल , अंटार्कटिका ,समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष शामिल हैँ ।

'वैश्विक संपदा' की सुरक्षा के सवाल पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग कायम करना टेढ़ी खीर है । इस दिशा मेँ कुछ महत्वपूर्ण समझौते जैसे अंटार्कटिका संधि (1959) ,मांट्रियल न्यायाचार (प्रोटोकॉल 1987) और अंटार्कटिका पर्यावरणीय न्यायाचार (1991) हो चुके हैँ । पारिस्थितिकी से जुड़े हर मसले के साथ एक बड़ी समस्या यह जुड़ी है कि अपुष्ट वैज्ञानिक साक्ष्योँ और समय-सीमा को लेकर मतभेद पैदा होते हैँ । ऐसे मेँ एक सर्व-सामान्य पर्यावरणीय अजेँडा पर सहमति कायम करना मुश्किल होता है। इस अर्थ में 1980 के दशक के मध्य में अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छेद की खोज एक आँख खोल देने वाली घटना है।

ठीक इसी तरह वैश्विक संपदा के रूप में बाहरी अंतरिक्ष के इतिहास से भी पता चलता है कि इस क्षेत्र के प्रबंधन पर उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के बीच मौजूद असमानता का असर पड़ा है। धरती के वायुमंडल और समुद्री सतह के समान यहाँ भी महत्त्वपूर्ण मसला प्रौद्योगिकी और औद्योगिक विकास का है। यह एक ज़रूरी बात है क्योँकि बाहरी
अंतरिक्ष में जो दोहन-कार्य हो रहे हैं उनके फायदे न तो मौजूदा पीढ़ी में सबके लिए
बराबर हैं और न आगे की पीढ़ियों के लिए ।

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बहुत जल्दी ही हमेँ सुनने को मिलेगा कि चंद्रमा का पर्यावरण भी नष्ट हो गया है ।

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1970 के दशक मेँ अफ्रीका की सबसे बड़ी विपदाओं मेँ एक थी अनावृष्टि । इसके कारण पाँच देशो की उपजाऊ जमीन बंजर हो गई और उसमेँ दरार पड़ गई दरअसल पर्यावरणीय शरणार्थी जैसा अटपटा शब्द इसी घटना के बाद प्रचलित हुआ । खेती-किसानी के असंभव हो जाने के कारण अनेक लोगोँ को घर -बार छोड़ना पड़ा ।

स्रोत : www.gobartimes.org

खुद करेँ ,खुद सीखेँक्योटो प्रोटोकॉल के बारे में और अधिक कि जानकारी एकत्र करें। किन बड़े देशों ने इस
पर दस्तखत नहीं किए और क्यों?

साझी परंतु अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ
ऊपर हमने देखा कि पर्यावरण को लेकर उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के देशोँ के रवैये मेँ अंतर है । उत्तर के विकसित देश पर्यावरण के मसले पर उसी रूप मेँ चर्चा करना चाहते हैँ जिस दशा मेँ पर्यावरण के संरक्षण मेँ हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो । दक्षिण के विकासशील देशों का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को नुकसान अधिकांशतया विकसित देशों के
औद्योगिक विकास से पहुँचा है। यदि विकसित देशों ने पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुँचाया है तो उन्हेँ इस नुकसान की भरपाई की
जिम्मेदारी भी ज्यादा उठानी चाहिए। इसके अलावा, विकासशील देश अभी औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं और ज़रूरी है कि
उन पर वे प्रतिबंध न लगेँ जो विकसित देशों पर लगाये जाने हैं। इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय
पर्यावरण कानून के निर्माण, प्रयोग और व्याख्या में विकासशील देशों की विशिष्ट जरूरतों का ध्यान रखा जाना चाहिए। सन् 1992 में हुए
पृथ्वी सम्मेलन में इस तर्क को मान लिया गया और इसे
'साझी परंतु अलग-अलग जिम्मेवारियाँ ' का सिद्धांत कहा गया।

इस संदर्भ में रियो-घोषणापत्र का कहना है कि - " धरती के पारिस्थितिकी तंत्र की अखंडता और गुणवत्ता की बहाली, सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए विभिन्न देश विश्व-बंधुत्व
की भावना से आपस में सहयोग करेंगे। पर्यावरण के विश्वव्यापी अपक्षय मेँ विभिन्न
राज्यों का योगदान अलग-अलग है। इसे देखते हुए विभिन्न राज्यों की 'साझी परंतु
अलग-अलग जिम्मेवारियाँ ' होगीं। विकसित देशों केँ समाजोँ का वैश्विक पर्यावरण पर दबाब ज्यादा है और इन देशों के पास विपुल
प्रौद्योगिक एवं वित्तीय संसाधन हैं। इसे देखते
हुए टिकाऊ विकास के अंतर्राष्ट्रीय प्रयास मेँ
विकसित देश अपनी ख़ास जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं।"

जलवायु के परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्रसंघ के नियमाचार यानी यूनाइटेड
नेशंस फ्रेमवर्क कंवेँशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC-1992) में भी कहा गया है
कि इस संधि को स्वीकार करने वाले देश अपनी क्षमता के अनुरूप, पर्यावरण के अपक्षय में अपनी हिस्सेदारी के आधार पर साझी परंतु अलग- अलग जिम्मेदारियाँ निभाते हुए पर्यावरण को सुरक्षा के प्रयास करेंगे। इस नियमाचार को
स्वीकार करने वाले देश इस बात पर सहमत थे कि ऐतिहासिक रूप से भी और मौजूदा समय में भी ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में
सबसे ज्यादा हिस्सा विकसित देशों का है। यह बात भी मानी गई कि विकासशील देशों
का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम है। इस कारण चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों को क्योटो-प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से अलग रखा गया है। क्योटो प्रोटोकॉल एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसके अंतर्गत
औद्योगिक देशों के लिए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य निर्धारित
किए गए हैं। कार्बन डाइऑक्साइड़, मीथेन और हाइड्रो-फ्लोरो कार्बन जैसी कुछ गैसों के बारे में माना जाता है कि वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में इनकी
कोई-न-कोई भूमिका जरूर है। ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना में विश्व का तापमान बढ़ता है
और धरती के जीवन के लिए यह बात बड़ी प्रलयंकारी साबित होगी। जापान के क्योटो में 1997 में इस प्रोटोकॉल पर सहमति बनी
1992 में इस समझौते के लिए कुछ सिद्धांत तय किए गए थे और सिद्धांत को इस रूपरेखा यानी यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज पर सहमति जताते हुए
हस्ताक्षर हुए थे। क्योटो प्रोटोकॉल पर इन्हीं सिद्धांतों के आलोक में सहमति बनी ।

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यह ज़ायज सिद्धांत है ! हमारे देश मेँ जारी आरक्षण की नीति की तरह ! न?

साझी संपदा


साझी संपदा का अर्थ होता है ऐसी संपदा जिस पर किसी समूह के प्रत्येक सदस्य का
स्वामित्व हो इसके पीछे मूल तर्क यह है कि ऐसे संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख-रखाव के संदर्भ में समूह के हर सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होंगे और समान उत्तरदायित्व निभाने होंगे। उदाहरण के लिए, सदियों के चलन और आपसी समझदारी से भारत के
ग्रामीण समुदायों ने साझी संपदा के संदर्भ मेँ अपने सदस्यों के अधिकार और दायित्व तय किए हैं। निजीकरण, गहनतर खेती, आबादी की वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र की गिरावट
समेत कई कारणों से पूरी दुनिया में साझी संपदा का आकार घट रहा है, उसकी गुणवत्ता और गरीबों को उसकी उपलब्धता कम हो रही है। राजकीय स्वामित्व वाली वन्यभूमि में पावन माने
जाने वाले वन-प्रांतर के वास्तविक प्रबंधन की पुरानी व्यवस्था साझी संपदा के रख-रखाव और उपभोग का ठीक-ठीक उदाहरण है। दक्षिण
भारत के वन-प्रदेशों में विद्यमान पावन वन-प्रांतरों
का प्रबंधन परंपरानुसार ग्रामीण समुदाय करता
आ रहा है ।

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लोग कहते हैं कि लातिनी
अमरीका में एक नदी बेच दो गई। साझी संपदा कैसे बेची जा सकती है?

+ भारत के पावन वन-प्रांतर
बहुत से पुराने समाजों में धार्मिक कारणों से प्रकृति की रक्षा करने का चलन है। भारत में विद्यमान 'पावन वन-प्रांतर ' इस चलन के सुंदर उदाहरण हैं। इस प्रथा में वनों के कुछ हिस्सों को काटा नहीं जाता। इन स्थानों पर देवता अथवा किसी पुण्यात्मा का
वास माना जाता है। इन्हेँ ही 'पावन वन-प्रांतर ' या 'देवस्थान' कहा जाता है । इन पावन वन-प्रांतरों के देशव्यापी फैलाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देशभर की भाषाओँ मेँ इनके लिए अलग-अलग शब्द हैँ । इन देवस्थानोँ को राजस्थान मेँ वानी,केंकड़ी और ओरान; झारखंड मेँ जहेरा थान और सरना; मेघालय मेँ लिंगदोह; केरल मेँ काव; उत्तराखंड मेँ थान या
देवभूमि और महाराष्ट्र में देव रहतिस आदि सैंकडों नामों से जाना जाता हैं । पर्यावरण-संरक्षण से जुड़े साहित्य में 'देवस्थान' के महत्त्व को अब स्वीकार किया जा रहा है और इसे समुदाय आधारित संसाधन-प्रबंधन के रूप में देखा जा रहा है। 'देवस्थान'को हम ऐसी व्यवस्था के रूप में देख सकते हैं जिसके अंतर्गत पुराने समाज प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल इस तरह करते हैं कि परिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बना रहे। कुछ अनुसंधानकर्त्ताओं का विश्वास है कि 'देवस्थान' को मान्यता से जैव-विविधता और परिस्थितिकी- संरक्षण में ही नहीं सांस्कृतिक वैविध्य को भी कायम रखने में मदद मिल सकती है। 'देवस्थान' की व्यवस्था वन-संरक्षण के विभिन्न तौर-तरीकों से संपन्न है और इस व्यवस्था की विशेषताएँ साझी संपदा के संरक्षण की व्यवस्था से
मिलती-जुलती हैं। 'देवस्थान' के महत्त्व का परंपरागत आधार ऐसे क्षेत्र की आध्यात्मिक अथवा सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। हिँदू समवेत रूप से प्राकृतिक वस्तुओं की पूजा करते है जिसमें पेड़ और वन-प्रान्तर भी शामिल हैँ। बहुत-से मंदिरों का निर्माण 'देवस्थान' में हुआ है । संसाधनों की विरलता नहीं प्रकृति के प्रति गहरी श्रद्धा ही वह आधार थी जिसने इतने युगों से वनों की बचाए रखने की प्रतिबद्धता कायम रखी। बहरहाल, हाल के सालों में मनुष्यों की बसाहट के विस्तार ने धीरे-धीरे ऐसे 'देवस्थानों' पर अपना कब्ज़ा कर लिया है ।

नयी राष्ट्रीय वन-नीतियोँ के आने के साथ कई जगहोँ पर इन परंपरागत वनोँ की पहचान मंद पड़ने लगी है । 'देवस्थान' के प्रबंधन में एक कठिन समस्या तब आती है जब ऐसे स्थान का कानूनी स्वामित्व एक के पास हो और व्यावहारिक नियंत्रण किसी दूसरे के हाथ में हो यानी कानूनी स्वामित्व राज्य का हो और व्यवहारिक नियंत्रण समुदाय के हाथ में । इन दोनों के नीतिगत मानक अलग-अलग है और 'देवस्थान' के उपयोग के उद्देश्यों में भी इनके बीच कोई मेल नहीं ।
पर्यावरण के मसले पर भारत का पक्ष
भारत ने 2002 में क्योटो प्रोटोकॉल ( 1997) पर हस्ताक्षर किए और इसका अनुमोदन किया। भारत, चीन और अन्य विकासशील देशो
को क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से छूट दी गई है क्योंके औद्योगीकरण के दौर में ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन के मामले में इनका कुछ ख़ास
योगदान नहीं था । औद्योगीकरण के दौर को
मौजूदा वैश्विक तापवृद्धि और जलवायु-परिवर्तन का जिम्मेदार माना जाता है। बहरहाल, क्योटो प्रोटोकॉल के आलोचकों ने ध्यान दिलाया है
कि अन्य विकासशील देशों सहित भारत और चीन भी जल्दी ही ग्रीनहाऊस गैसोँ के उत्सर्जन के मामले में विकसित देशों की भाँति अगली
कतार में नज़र आयेंगे। 2005 के जून में ग्रुप-8 के देशों की बैठक हुई। इसमें भारत ने ध्यान दिलाया कि विकासशील देशों में ग्रीन हाऊस गैसों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों की तुलना में नाममात्र है। साझी परंतु
अलग-अलग जिम्मेदारियोँ के सिद्धांत के अनुरूप भारत का विचार है कि उत्सर्जन-दर में कमी करने की सबसे ज्यादा जिम्मेवारी विकसित देशों की है क्योँकि इन देशों ने एक लंबी अवधि तक बहुत ज्यादा उत्सर्जन किया है।

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गोबर टाइम्स के पोस्टर पर आधारित
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मैँ समझ गया ! पहले उन लोगोँ ने धरती को बर्बाद किया और अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है । क्या यही है हमारा पक्ष?
संयुक्त राष्ट्रसंघ के जलवायु-परिवर्तन से संबंधित बुनियादी नियमाचार (UNFCCC) के अनुरूप भारत पर्यावरण से जुड़े अंतर्राष्ट्रीय
मसलों में ज्यादातर ऐतिहासिक उत्तरदायित्व
का तर्क रखता है। इस तर्क के अनुसार ग्रीनहाऊस गैसों के रिसाव को ऐतिहासिक और मौजूदा जवाबदेही ज्यादातर विकसित देशों की है। इसमें जोर देकर कहा गया है कि
'विकासशील देशों की पहली और अपरिहार्य प्राथमिकता आर्थिक तथा सामाजिक विकास
की है।' हाल में संयुक्त राष्ट्रसंघ के इस नियमाचार (UNFCCC) के अंतर्गत चर्चा
चली कि तेजी से औद्योगिक होते देश (जैसे ब्राजील, चीन और भारत) नियमाचार की
बाध्यताओं का पालन करते हुए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करें । भारत इस बात के खिलाफ है। उसका मानना है कि यह बात इस नियमाचार की मूल भावना के विरुद्ध है। भारत पर इस तरह की बाध्यता आयद करना अनुचित भी है। भारत में 2030 तक कार्बन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बढ़ने के बावजूद विश्व के (सन् 2000) के औसत (3.8 टन प्रति व्यक्ति) के आधे से भी कम होगा। 2000 तक भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 0.9 टन था और अनुमान है कि 2030 तक यह मात्रा बढ़कर 1.6 टन प्रतिव्यक्ति हो जाएगी।

भारत की सरकार विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए पर्यावरण से संबधित वैश्विक प्रयासों में
शिरकत कर रही है। मिसाल के लिए भारत ने अपनी 'नेशनल ऑटो-फ्यूल पॉलिसी ' के अंतर्गत वाहनों के लिए स्वच्छतर ईधन अनिवार्य कर
दिया है। 2001 मेँ ऊर्जा-संरक्षण अधिनियम पारित हुआ। इसमें ऊर्जा के ज्यादा कारगर इस्तेमाल की पहलकदमी की गई है। ठीक
इसी तरह 2003 के बिजली अधिनियम में पुनर्नवा (Renewable) ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया है। हाल मेँ प्राकृतिक
गैस के आयात और स्वच्छ कोयले के उपयोग पर आधारित प्रौद्योगिकी को अपनाने की तरफ रुझान बढ़ा है। इससे पता चलता है कि भारत पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज़ से ठोस कदम उठा
रहा है। भारत बायोडीजल से संबधित एक राष्ट्रीय मिशन चलाने के लिए भी तत्पर है।
इसके अंतर्गत 2011 -12 तक बायोडीजल तैयार होने लगेगा और इसमें 1 करोड 10
लाख हैक्टेयर भूमि का इस्तेमाल होगा। पुनर्नवीकृत होने वाली ऊर्जा के सबसे बड़े कार्यक्रमों मेँ से एक भारत में चल रहा है।

भारत ने पृथ्वी-सम्मेलन (रियो) के समझौतों के क्रियान्वयन का एक पुनरावलोकन 1997 मेँ किया। इसका मुख्य निष्कर्ष यह
था कि विकासशील देशों को रियायती शर्तो पर नये और अतिरिक्त वित्तीय संसाधन तथा पर्यावरण के संदर्भ में बेहतर साबित होने वाली प्रौद्योगिकी मुहैया कराने की दिशा मेँ कोई सार्थक प्रगति नहीँ हुई है । भारत इस बात को जरूरी मानता है कि विकसित देश विकासशील देशों को वित्तीय संसाधन तथा
स्वच्छ प्रौद्योगिकी मुहैया कराने के लिए तुरंत उपाय करें ताकि विकासशील देश 'फ्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन क्लाइमेट चेंज' की मौजूदा
प्रतिबद्धताओं को पूरा कर सकेँ। भारत का यह भी मानना है कि 'दक्षेस' (SAARC) में शामिल देश पर्यावरण के प्रमुख वैश्विक
मसलों पर एक समान राय बनायें ताकि इस क्षेत्र की आवाज वज़नी हो सके।

पर्यावरण आंदोलन-एक या अनेक
पर्यावरण हानि की चुनौतियों से निबटने के लिए सरकारों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो
पेशकदमी की है हम उस के बारे में जान चुके हैँ । लेकिन इन चुनौतियोँ के मद्देनज़र
कुछ महत्त्वपूर्ण पेशकदमियाँ सरकारों की तरफ से नहीं बल्कि विश्व के विभिन्न भागों
में सक्रिय पर्यावरण के प्रति सचेत कार्यकर्ताओं ने की हैं। इन कार्यकर्ताओँ में कुछ तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और बाकी स्थानीय स्तर पर सक्रिय हैं। आज पूरे विश्व में पर्यावरण आन्दोलन सबसे ज्यादा जीवंत, विविधतापूर्ण तथा ताकतवर सामाजिक आंदोलनों में शुमार किए जाते हैं। सामाजिक चेतना के दायरे में ही राजनीतिक कार्रवाई के नये रूप जन्म लेते है या उन्हें
खोजा जाता है। इन आंदोलनों से नए विचार निकलते हैं। इन आन्दोलनों ने हमें दृष्टि दी है कि वैयक्तिक और सामूहिक जीवन के लिए आगे के दिनों में क्या करना चाहिए और क्या
नहीं करना चाहिए। यहाँ कुछ उदाहरणों की चर्चा की जा रही है जिससे पता चलता है कि मौजूदा पर्यावरण आंदोलनों की एक मुख्य विशेषता उनकी विविधता है।

दक्षिणी देशों मसलन मैक्सिको, चिले, ब्राजील, मलेशिया, इंडोनेशिया, महादेशीय अफ्रीका और भारत के वन-आन्दोलनों पर बहुत दबाव है। तीन दशकों से पर्यावरण को लेकर सक्रियता का दौर जारी है। इसके बावजूद तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में वनों की कटाई खतरनाक गति से जारी है। पिछले दशक में विश्व के विशालतम वनों का विनाश
बढ़ा है ।

खनिज-उद्योग पृथ्वी पर मौजूद सबसे ताकतवर उद्योगों में एक है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में उदारीकरण के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध के अनेक देशोँ की अर्थव्यवस्था बहुराष्ट्रीय कंपनियोँ के लिए खुल चुकी हैं। खनिज उद्योग धरती के भीतर मौजूद संसाधनों को बाहर निकालता है, रसायनों का भरपूर उपयोग करता है; भूमि और जलमार्गों को प्रदूषित करता है और स्थानीय वनस्पतियोँ का विनाश करता है । इसके कारण जन-समुदायोँ को विस्थापित होना पड़ता है। कई बातों के साथ इन कारणों से विश्व के विभिन्न भागों में खनिज-उद्योग की आलोचना
और विरोध हुआ है।

इसका एक अच्छा उदाहरण फिलीपिन्स है जहाँ कई समूहों और संगठनों ने एक साथ
मिलकर एक ऑस्ट्रेलियाई बहुराष्ट्रीय कंपनी 'वेस्टर्न माइनिंग कारपोरेशन' के खिलाफ अभियान चलाया । इस कंपनी का विरोध खुद
इसके स्वदेश यानी ऑस्ट्रेलिया में हुआ। इस विरोध के पीछे परमाण्विक शक्ति के मुख़ालफत की भावनाएँ काम कर रही हैं।
ऑस्ट्रेलिया में इस कंपनी का विरोध ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों के बुनियादी अधिकारों की पैरोकारी के कारण भी किया जा रहा है।

कुछ आंदोलन बड़े बाँधों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। अब बाँध-विरोधी आंदोलन को नदियों को बचाने के अन्दोलनों के रूप में देखने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है क्योँकि ऐसे आंदोलन में नदियों और नदी-घाटियोँ के ज्यादा टिकाऊ तथा न्यायसंगत प्रबंधन की बात उठायी जाती है । 1980 के दशक के शुरूआती और मध्यवर्ती वर्षोँ मेँ विश्व का पहला बाँध -विरोधी आंदोलन दक्षिणी गोलार्द्ध मेँ चला । आस्ट्रेलिया मेँ चला यह आंदोलन फ्रैँकलिन नदी तथा इसके परिवर्ती वन को बचाने का आंदोलन था । यह वन और विजनपन की पैरोकारी करने वाला आंदोलन था ही , बाँध- विरोधी आंदोलन भी था ।

फिलहाल दक्षिणी गोलार्द्ध के देशोँ मेँ तुर्की से लेकर थाईलैंड और दक्षिणी अफ्रीका तक तथा इंडोनेशिया से लेकर चीन तक बड़े बाँधों को बनाने की होड़ लगी है। भारत में बाँध-विरोधी और नदी हितैषी कुछ अग्रणी आंदोलन चल रहे हैं। इन आंदोलनों में नर्मदा
आन्दोलन सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। यह बात ध्यान देने की है कि भारत में बाँध विरोधी तथा पर्यावरण-बचाव के अन्य आंदोलन एक
अर्थ में समानधर्मी है क्योँकि ये अहिंसा पर आधारित हैं।

खुद करेँ ,खुद सीखेँचिपको आंदोलन
के बारे में और है
जानकारी जुटाएं।

+ क्या वन निर्जन होते हैँ ?
एरेस ,केगल्स कार्टून13 4
क्या आप पर्यावरणविदोँ के प्रयास से सहमत हैँ ? पर्यावरणविदोँ को यहाँ जिस रूप मेँ चित्रित किया गया है क्या आपको वह सही लगता है ?
दक्षिणी देशों के वन-आंदोलन उत्तरी देशों के वन-आंदोलनों से एक खास अर्थ मेँ भिन्न हैं। दक्षिणी देशों के वन निर्जन नहीं हैं जबकि उत्तरी गोलार्द्ध के देशो के वन जनविहीन हैं या कहे कि इन देशों में वन को निर्जन प्रांत के रूप में देखा जाता है। इसी वजह से उत्तरी देशों में वनभूमि को निर्जन भूमि का दर्जा दिया गया है यानी ऐसी जगह जहाँ लोग नहीं रहते-बसते। यह दृष्टिकोण मनुष्य को प्रकृति का हिस्सा नहीं मानता। दूसरे शब्दों में कहेँ तो यह दृष्टिकोण
पर्यावरण को मनुष्य से दूर की चीज मानता हैं यानी एक ऐसी चीज जिसे बाग-बगीचे या अभयारण्य मेँ तब्दील कर मनुष्योँ से बचाया जाना चाहिए । दूसरी तरफ ,दक्षिण देशोँ मेँ पर्यावरण के अधिकांश मसले इस मान्यता पर आधारित हैँ कि लोग वनोँ मेँ भी रहते हैँ ।

वनोँ को विजनपन का प्रतीक मानने का दृष्ट्रिकोण ऑस्ट्रेलिया ,स्केँडिनेविया ,उतरी अमरीका और न्यूजीलैँड मेँ हावी है । अधिकांश यूरोपीय देशोँ के विपरित इन इलाकोँ मेँ ' अविकसित निर्जन वन -क्षेत्र ' अपेक्षाकृत ज्यादा हैँ । इसका यह मतलब नहीँ कि दक्षिणी गोलार्द्ध के देशो मेँ 'विजनपन' का अभियान एकदम नदारद है । फिलीपिन्स मेँ 'हरित-संगठनोँ ' ( Green Organisations) ने गरुड़ तथा अन्य शिकारी पक्षियोँ को विलुप्त होने से बचाने के लिए मुहिम चलायी । भारत मेँ 'बंगाल -टाइगर ' को बचाने की मुहिम चल रही है क्योँकि इनकी संख्या लुप्त होने की हद तक कम हो चली थी । अफ्रीका मेँ हाथीदाँत के व्यापार और हाथियोँ को निर्दयतापूर्वक मारने के विरुद्ध लंबा अभियान चलाया गया । विजनपन के कुछ प्रसिद्ध संघर्ष ब्राजील और इंडोनेशिया के जंगलोँ मेँ छिड़े हैँ । इन सभी अभियानोँ का ध्यान किसी ख़ास प्रजाति को बचाने पर रहा है साथ ही इनका जोर निर्जन वन - पर्यावासोँ को संरक्षण देने पर है । ऐसे पर्यावासोँ से जंतु-प्रजातियोँ को कायम रखने मेँ मदद मिलती है । विजनपन से जुड़े अनेक मसलोँ को हाल के दिनोँ मेँ जैव-विविधता के मसलोँ का रूप दिया गया है क्योँकि दक्षिणी गोलार्द्ध के देशोँ मेँ विजनपन की अवधारणा को स्वीकृति मिलना कठिन है । इनमेँ से अनेक अभियानोँ की शुरुआत और वित्तिय मदथ वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (WWF) जैसे संगठनोँ ने की । ऐसे प्रयासोँ मेँ स्थानीय लोगोँ की मदद भी ली गई ।
14 2बांग्लादेश के उत्तर-पूर्वी जिले दिनाजपुर के शहर फुलवाड़ी में एक पूरा-का-पूरा समुदाय
कोयला खनन परियोजना के विरोध मेँ उठ खड़ा हुआ । इस चित्र मेँ अनेक महिलायें प्रस्तावित कोयला परियोजना के विरोध में नारे लगा रही
हैं? इस चित्र मेँ एक स्त्री अपने बच्चे को सीने से लगाए हुए खड़ी है ।

संसाधनोँ की भू-राजनीति
"किसे, क्या , कब, कहाँ और कैसे हासिल होता है" -'संसाधनों की भू-राजनीति'
इन्हीं सवालों से जूझती है। यूरोपीय ताकतों के विश्वव्यापी प्रसार का एक मुख्य साधन और मकसद संसाधन रहे हैं। संसाधनों को लेकर राज्यों के बीच तनातनी हुई है। संसाधनों से जुड़ी भू-राजनीति को पश्चिमी दुनिया ने ज्यादातर व्यापारिक संबंध, युद्ध तथा ताकत
के संदर्भ में सोचा । इस सोच के मूल में था विदेश में संसाधनों की मौजूदगी तथा समुद्री नौवहन में दक्षता। समुद्री नौवहन स्वयं इमारती
लकड़ियों पर आधारित था इसलिए जहाज की शहतीरों के लिए इमारती लकड़ियों की
आपूर्ति 17वीँ सदी से बाद के समय में प्रमुख यूरोपीय शक्तियों की प्राथमिकताओं में रही। पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सामरिक
संसाधनों, खासकर तेल को निर्बाध आपूर्ति का महत्त्व बहुत अच्छी तरह उजागर हो गया ।


एण्डी सिंगर ,केगल्स कार्टून
15 4
जाएँ तो जाएँ कहाँ
पूरे शीतयुद्ध के दौरान उत्तरी गोलार्द्ध के विकसित देशों ने इन संसाधनों की सतत्
आपूर्ति के लिए कई तरह के कदम उठाये। इसके अंतर्गत संसाधन-दोहन के इलाकों तथा समुद्री परिवहन-मार्गोँ के इर्द-गिर्द सेना की तैनाती, महत्वपूर्ण संसाधनों का भंडारण, संसाधनों के उत्पादक देशों में मनपसंद सरकारों की बहाली तथा बहुराष्ट्रीय निगमों और अपने हितसाधक अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को समर्थन देना शामिल है। पश्चिमी देशों के राजनीतिक
चिंतन का केंद्रीय सरोकार यह था कि संसाधनों तक पहुँच अबाध रूप से बनी रहे क्योंकि सोवियत संघ इसे खतरे मेँ डाल सकता था।
एक बडी चिंता यह भी थी कि खाड़ी के देशों में मौजूद तेल तथा दक्षिणी और पश्चिमी
एशिया के देशों में मौजूद खनिज पर विकसित देशों का नियंत्रण बरकरार रहे। शीतयुद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन के बाद सरकारों की मौजूदा चिँता सुरक्षित आपूर्ति को
बनाए रखने की है। अनेक खनिज खासकर रेडियोधर्मी खनिजों से जुड़े व्यावसायिक
फैसलों को लेकर भी सरकारों को चिँता सताती है। बहरहाल, वैश्विक रणनीति में तेल लगातार सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन बना हुआ है।

बीसवीं सदी के अधिकांश समय मेँ विश्व की अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर रही। यह एक जगह से दूसरी जगह तक पहुँचाए जा सकने वाले ईंधन के रूप में अपरिहार्य बना रहा। तेल के साथ विपुल संपदा जुडी है और इसी कारण इस पर कब्जा जमाने के लिए राजनीतिक संघर्ष छिड़ता है। पेट्रोलियम का इतिहास युद्ध और संघर्षों का भी इतिहास है। यह बात पश्चिम एशिया और मध्य
एशिया मेँ सबसे स्पष्ट रूप से नज़र आती है। पश्चिम एशिया, खासकर खाड़ी-क्षेत्र विश्व के कुल तेल-उत्पादन का 30 प्रतिशत मुहैया कराता है। इस क्षेत्र में विश्व के ज्ञात तेल-भंडार का 64 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है और इस कारण यही एकलौता क्षेत्र है जो तेल की माँग में खास बढ़ोत्तरी होने पर उसकी पूर्ति कर सकता है। सऊदी अरब के पास विश्व के
कुल तेल-भंडार का एक चौथाई हिस्सा मौजूद हैं। सऊदी अरब विश्व में सबसे बड़ा तेल-उत्पादक देश है। इराक का ज्ञात तेल-भंडार
सऊदी अरब के बाद दूसरे नंबर पर है। इराक के एक बड़े हिस्से में तेल-भंडारों की मौजूदगी को लेकर खोज-बीन अभी नहीं हुई है। संभावना है कि इराक का तेल-भंडार 112
अरब बैरल से कहीं ज्यादा हो। संयुक्त राज्य अमरीका, यूरोप, जापान तथा चीन और भारत में इस तेल की खपत होती है लेकिन ये देश इस इलाके से बहुत दूरी पर हैं।

+ तेल देखो ,तेल की धार देखो ...!!
हमारे जीवन मेँ पेट्रोलियम पर आधारित उत्पादों की कड़ी अंतहीन है। टूथपेस्ट,पेसमेकर, पेंट, स्याही... । दुनिया को परिवहन के लिए जितनी ऊर्जा की ज़रूरत पड़ती है उसका 95 फीसदी पेट्रोलियम से ही पूरा होता है। पूरी औद्योगिक दुनिया पेट्रोलियम के बूते टिकी है। हम इसके बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते । हालाँकि जमीन के नीचे अभी अरबों बैरल तेल हमारे इस्तेमाल के इंतजार मेँ पड़ा हैं फिर भी देशों के बीच विवाद है।
16 3शेख पैट्रो डॉलर-उल्ला
काला सोना मुल्क के सुल्तान
मैं काला सोना मुल्क के शाही खानदान से हूँ। मैं ही वह शख़्स जिले लोग धनकुबेर कहते हैं। जबसे मेरे मुल्क़ में काला सोना मिला है, मेरी सल्तनत में क़रामात हो रहे हैं। जनाब बिग ऑयल और उनकी हुकूमत यहाँ एक रोज़ बड़ा ख़जाना खोजने आई। हमने तेल खोजा और सौदा
पटा लिया। इन लोगों ने मुझे हथियार दिए। इतने हथियार कि उनका बोझ मुझे ही भारी लगने लगा है। हथियारों से लदा-फँदा मैँ जब कभी दाँत निपोरता हूँ तो लोग अवाक् रह जाते हैं। उन लोगों ने हथियार दिए और बदले मेँ मैंने बिग ऑयल और उसके बेटे-पोतों को तेल और अपनी
वफ़ादारी दी। मैं खुशहाल और मालदार हूँ और वे भी मस्ती और मजे में हैं। अगर उनकी फौज मेरे मुल्क में गश्त कर रही है तो करे, मुझे क्या?

बेशकीमती चीजों की मैँ कद्र करता हूँ। बिग ऑयल कहते हैं कि उनके राष्ट्रपति आजादी और जम्हूरियत को बड़ा कीमती मानते हैँ इसीलिए मैँने भी अपने मुल्क मेँ आजादी और जम्हूरियत को सात तालोँ के भीतर बंद करके रखा है ।

17 3जनाब बिग ऑयल
बिग ऑयल एंड संस के सीईओ
एक दिन मैंने खुद से पूछा कि आखिर मैं अपने मुल्क के किस काम आ सकता हूँ। मेरे मुल्क में तेल की भूख विकट है। वह कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती, चलो, तो फिर तेल का इंतजाम करते हैं। मैं बाजार
की आजादी का हामी हूँ। मतलब यह कि दूर के देशों में तेल के कुएँ खोदने की आजादी; धरती की आबो-हवा को मटियामेट करने की आजादी और ऐसे कठपुतले तानाशाहोँ की ताजपोशी की आज़ादी जो अपनी ही जनता पर कोड़े फटकारे ।

हम कोई राजनीतिक दांवपेंच नहीँ करते। चुनाव अभियानों के वक्त हम रुपयों-पैसों से नेताओँ की कुछ मदद भर कर देते हैं। बदले में हम उनसे कहते हैं कि हमारी कंपनी में पैसे लगाओ । इस तरह हमें टीवी के कैमरों के सामने बेवकूफों की तरह हँसने और हाथ हिलाने के करतब दिखा कर शर्मसार नहीं होना पड़ता।

18 2श्री एवं श्रीमती बड़बोलेहमारे गैराज में एक शानदार चीज नुमाया हैं। है ना ?
एकदम पतली, चकाचक और चमकीली कार । इसमें पॉवर स्टेयरिंग और ऑटोमेटिक गेयर्स भी हैं। इसकी पिक-अप लाज़वाब है और माइलेज के तो क्या कहने! इससे धुआँ वगैरह भी काफी कम निकलता है। देखिए, हमें जल्दी-ज़ल्दी पहुँचना है। हमें खूबसूरत जिँदगी की थोडी हड़बड़ी है। ऊपर वाला सबका भला करें। तो चलें। हुरँ...

19 2जनाब ग़लत-निशानचीजनाब तख्तापलट आजादी और ज़म्हूरियत की हिफाजत की बात करते हैं। शायद इसी वजह से वे बंदूक और
मिसाइल को लेकर बड़े दरियादिल हैं। ऐसी ही मिसाइल और बंदूके उन्होंने हमें रूसी भालुओं से लड़ने के लिए दी थीं। उन्होंने तो हमें लड़ने के दाँवपेंच भी सिखाए। हमेँ नहीँ पता था कि ये लोग तेल के पीछे पड़े हैं। बिग ऑयल हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हैं और मन मोह लेते हैं। लेकिन हम लोग अभी आपस में जंगों की कबड्डी खेल रहे हैं। अब हमने खेल के अपने ही नियम बना लिए हैं। जनाब तख्तापलट की साकार अपने कायदे-कानून बदलते रहती है। हमने कहा यह बात ठीक नहीं है। हमारे कुछ लोग अब जनाब तख्तापलट, उनकी हुकूमत और वहाँ के लोगोँ से नफरत करने लगे हैं। मजा यह है कि तख्तापलट को उसके ही खेल में जब मात देनी होती है तो उनके दिए
गोले-बारूद और मिसाइल हमारे लिए की काम के साबित होते हैं।
विश्व-राजनीति के लिए पानी एक और महत्त्वपूर्ण संसाधन है। विश्व के कुछ भागों में साफ पानी की कमी हो रही है। साथ ही , विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में मौजूद नहीं है। इस करण, संभावना है कि साझे जल-संसाधन को लेकर पैदा मतभेद 21वीं सदी में फसाद की जड़ साबित हों। इस जीवनदायी संसाधन को लेकर हिंसक संघर्ष होने की संभावना है और इसी को इंगित करने के लिए विश्व-राजनीति के कुछ विद्वानों ने 'जलयुद्ध' शब्द गढ़ा है। मिसाल के लिए हम एक प्रचलित मतभेद की चर्चा करें।
जलधारा के उद्गम से दूर बसा हुआ देश उद्गम के नजदीक बसे हुए देश द्वारा इस पर बाँध बनाने, इसके माध्यम से अत्यधिक सिंचाई
करने या इसे प्रदूषित करने पर आपत्ति जताता है क्योँकि ऐसे कामों से दूर बसे हुए देश को मिलने वाले पानी की मात्रा कम होगी या उसकी गुणवत्ता घटेगी। देशों के बीच स्वच्छ
जल-संसाधनों को हथियाने या उनकी सुरक्षा करने के लिए हिंसक झड़पें हुई हैं। इसका
एक उदाहरण है - 1950 और 1960 के दशक में इज़रायल, सीरिया तथा जार्डन के
बीच हुआ संघर्ष इनमें से प्रत्येक देश ने जॉर्डन और यारमुक नदी से पानी का बहाव मोड़ने की कोशिश की थी। फिलहाल तुर्की, सीरिया और इराक के बीच फरात नदी पर बाँध के निर्माण को लेकर एक-दूसरे से ठनी
हुई है। बहुत से देशों के बीच नदियों का साझा है और उनके बीच सैन्य-संघर्ष होते रहते हैं।


एरेस ,केगल्स कार्टून
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पृथ्वी पर पानी का विस्तार ज्यादा और भूमि का विस्तार कम हैं । फिर भी, कार्टूनिस्ट ने ज़मीन को पानी की अपेक्षा ज्यादा बड़े हिस्से मेँ दिखाने का फैसला किया है यह कार्टून किस तरह पानी की कमी को चित्रित करता है ?
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हमारे देश मेँ भी पानी को लेकर बड़े झगड़े -टंटे चल रहे हैँ । ये संघर्ष उनसे किस तरह अलग है ?
मूलवासी (Indigenous People) और उनके अधिकार
मूलवासियों का सवाल पर्यावरण, संसाधन और
राजनीति को एक साथ जोड़ देता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 1982 में इनकी एक शुरुआती
परिभाषा दी। इन्हें ऐसे लोगों का वंशज बताया गया जो किसी मौजूदा देश मेँ बहुत दिनोँ से रहते चले आ रहे थे । फिर किसी दूसरी संस्कृति या जातीय मूल के लोग विश्व के दूसरे हिस्से से उस देश मेँ आये और इन लोगोँ को अधीन बना लिया । किसी देश के 'मूलवासी' आज भी उस देश की संस्थाओँ के अनुरूप आचरण करने से ज़्यादा अपनी परंपरा , सांस्कृतिक रिवाज़ तथा अपने ख़ास सामाजिक , आर्थिक ढर्रे पर जीवन-यापन करना पसंद करते हैँ ।

भारत सहित विश्व के विभिन्न हिस्सोँ मेँ मौजूद लगभग 30 करोड़ मूलवासियोँ के सर्वसामान्य हित विश्व-राजनीति के संदर्भ मेँ क्या हैँ ? फिलीपिन्स के कोरडिलेरा क्षेत्र मेँ 20 लाख मूलवासी लोग रहते हैँ । चिले मेँ मापुशे नामक मूलवासियोँ की संख्या 10 लाख है ।


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आदिवासी जनता और उनके आंदोलनोँ के बारे में कुछ ज्यादा बातें क्योँ नहीं सुनायी पड़तीँ ? क्या मीडिया का उनसे कोई मनमुटाव है?
बांग्लादेश के चटगांव पर्वतीय क्षेत्र मेँ 6 लाख आदिवासी बसे हैं। उत्तर अमरीकी मूलवासियोँ
की संख्या 3 लाख 50 हजार है। पनामा नहर के पूरब में कुना नामक मूलवासी 50 हजार की तादाद मेँ हैं और उत्तरी सोवियत मेँ ऐसे लोगों की आबादी 10 लाख है। दूसरे सामाजिक आंदोलनों की तरह मूलवासी भी अपने संघर्ष, अजेंडा और अधिकारों की आवाज़ उठाते हैं।

विश्व-राजनीति में मूलवासियोँ की आवाज़ विश्व-बिरादरी में बराबरी का दर्जा पाने के लिए
उठी है। मूलवासियो के निवास वाले स्थान मध्य
और दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, दक्षिणपूर्व एशिया तथा भारत में है जहाँ इन्हें आदिवासी या जनजाति कहा जाता है। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड समेत ओसियाना क्षेत्र के बहुत से द्वीपीय देशों में हजारों सालों से पॉलिनेशिया, मैलनेशिया और माइक्रोनेशिया वंश के मूलवासी रहते हैं। सरकारों से इनकी माँग है कि इन्हेँ मूलवासी कौम के रूप में अपनी स्वतंत्र पहचान रखने वाला समुदाय माना जाए। अपने मूल वासस्थान पर हक की दावेदारी में विश्वभर के मूलनिवासी यह जुमला इस्तेमाल करते हैं कि हम यहाँ 'अनंत काल से रहते चले आ रहे हैं'। भौगोलिक रूप से चाहे
मूलवासी अलग-अलग जगहों पर कायम हैं लेकिन जमीन और उस पर आधारित विभिन्न
जीवन-प्रणालियों के बारे में इनकी विश्वदृष्टि आश्चर्यजनक रूप से एक जैसी है। भूमि की
हानि का अर्थ है, आर्थिक-संसाधनों के एक आधार की हानि और यह मूलवासियोँ के जीवन के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है । उस राजनीतिक आज़ादी का क्या मतलब जो जीने के लिए साधन ही न मुहैया कराये ?

भारत मेँ 'मूलवासी' के लिए अनुसूचित जनजाति या आदिवासी शब्द प्रयोग किया जाता है । ये कुल जनसंख्या का आठ प्रतिशत हैँ । अपवादस्वरूप कुछेक घुमन्तू जनजातियोँ को छोड़ देँ तो भारत की अधिकांश आदिवासी जनता अपने जीवन-यापन के लिए खेती पर निर्भर हैँ । सदियोँ से ये लोग बेधड़क जितनी बन पड़े उतनी जमीन पर खेती करते आ रहे थे । लेकिन , ब्रितानी औपनिवेशिक शासन कायम होने के बाद से जनजातीय समुदायोँ का सामना बाहरी लोगोँ से हुआ ।


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एक चम्मच पर्यावरण भी !

क्या आपको यह नजरिया जँचता है जिसमेँ एक शहरी इलाके के आदमी को प्रकृतिखोर और लालची दिखाया गया है ।

हालँकि राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिहाज से इनको संवैधानिक सुरक्षा हासिल है लेकिन देश के विकास का इन्हेँ ज्यादा
लाभ नहीं मिल सका है। आजादी के बाद से विकास की बहुत सी परियोजनाएँ चलीं और बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए। ऐसी
परियोजनाओं से विस्थापित होने वालों में यह समुदाय सबसे बड़ा है। दरअसल इन लोगों ने विकास की बहुत बड़ी कीमत चुकायी है।

मूलवासी समुदायों के अधिकारों से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में लंबे समय तक उपेक्षित रहे हैं। हाल के दिनों मेँ इस सवाल पर ध्यान दिया जाने लगा है।

1970 के दशक मेँ विश्व के विभिन्न भागों के मूलवासियों के नेताओँ के बीच संपर्क बढ़ा। इससे इनके साझे अनुभवों और सरोकारों को एक शक्ल मिली। 1975 में 'वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इंडिजिनस पीपल' का गठन हुआ। संयुक्त राष्ट्रसंघ मेँ सबसे पहले
इस परिषद् को परामर्शदायी परिषद् का दर्जा दिया गया। इसके अतिरिक्त आदिवासियों के
सरोकारों से संबद्ध 10 अन्य स्वयंसेवी संगठनों को भी यह दर्जा दिया गया है। अगले अध्याय में वैश्वीकरण के विरोध मेँ चल रहे आंदोलन की चर्चा की गई है। इनमें अनेक आंदोलनों ने मूलवासियों के अधिकारों पर जोर दिया है।

आओ मिलजुल कर करेँचरण

• हर छात्र से कहेँ कि अपने रोजमर्रा के इस्तेमाल की दस वस्तुओँ की सूची बनाए।
(इस सूची में कलम/कागज़ /इरेज़र/कंप्यूटर/पानी आदि के नाम लिए जा सकते हैं।)

• छात्रों से कहें कि वे इन वस्तुओँ के निर्माण मेँ प्रयुक्त प्राकृतिक संसाधनोँ की मात्रा का आकलन करेँ । कलम/कागज /कंप्यूटर आदि बनी -बनायी चीज़ हो तो छात्र इसमेँ लगे प्राकृतिक संसाधन की मात्रा बताएँ । अगर सूची मेँ पानी या इस जैसी कोई चीज हो तो छात्रोँ से कहेँ कि प्रति गैलन पानी की पंपिंग और परिशोधन मेँ लगी बिजली की मात्रा की गणना करेँ । हर छात्र आकलन करे और अंदाज़े से एक मात्रा को लिखे ।

अध्यापकोँ के लिए

莽 हर छात्र द्वारा बतायी गई संख्या को एकत्र कर लेँ फिर इसे जोड़ देँ ताकि पता लगे कि उक्त कक्षा के छात्रोँ द्वारा संसाधनोँ की कितनी मात्रा का उपयोग हुआ (अध्यापक मदद करेँ और छात्रोँ को खुद से गणना करने देँ )।

莽 इसी विद्यालय की बाकी कक्षाओँ से इस अभ्यास को जोड़े फिर देश के सभी विद्यालयोँ के लिए इसका आकलन करेँ । देश के स्तर पर जो आंकड़ा आए उसका इस्तेमाल दूसरे देशोँ के स्कूल मेँ उपयोग किए जा रहे संसाधनोँ की मात्रा से तुलना करने मेँ भी हो सकता है । ( अध्यापक के पास पहले से कुछ चुनिन्दा देशोँ के छात्रोँ द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे संसाधनोँ के बारे मेँ जानकारी होनी चाहिए । देशोँ का चयन करते समय ध्यान रखेँ कि वे विकसित/ विकासशील/अविकसित देशोँ मेँ से होँ )

莽 छात्रोँ से कहेँ कि वे उस मात्रा का अनुमान लगाएँ जिसका हम उपयोग कर रहे हैँ । उनसे भविष्य मेँ किए जाने वाले उपभोग की मात्रा का अनुमान लगाने को कहेँ ।

प्रश्नावली
1. पर्यावरण के प्रति बढ़ते सरोकारों का क्या कारण है? निम्नलिखित में सबसे बेहतर विकल्प चुनें।
(क) विकसित देश प्रकृति की रक्षा को लेकर चिंतित हैं।
(ख) पर्यावरण की सुरक्षा मूलवासी लोगों और प्राकृतिक पर्यावासोँ के लिए ज़रूरी है।
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हूआ है और यह नुकसान ख़तरे की हद तक पहुँच गया है।
(घ) इनमें से कोई नहीं।

2. निम्नलिखित कथनों में प्रत्येक के आगे सही या ग़लत का चिह्न लगायें। ये कथन पृथ्वी-सम्मेलन के बारे में हैं-
(क) इसमें 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भाग लिया।
(ख) यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्त्वावधान में हुआ ।
(ग) वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दों ने पहली बार राजनीतिक धरातल पर ठोस आकार ग्रहण किया।
(घ) यह महासम्मेलनी बैठक थी।

3. 'विश्व की साझी विरासत ' के बारे मेँ निम्नलिखित मेँ कौन-से कथन सही है?
(क) धरती का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष को 'विश्व की साझी विरासत ' माना जाता है।
(ख) 'विश्व की साझी विरासत ' किसी राज्य के संप्रभु क्षेत्राधिकार मेँ नहीं आते ।
ग) ' विश्व की साझी विरासत ' के प्रबंधन के सवाल पर उत्तरी और दक्षिणी देशोँ के बीच मतभेद हैं ।
(घ) उत्तरी गोलार्द्ध के देश 'विश्व की साझी विरासत ' को बचाने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से कहीँ ज्यादा चिंतित हैं।

4. रियो सम्मेलन के क्या परिणाम हुए?

5. 'विश्व की साझी विरासत ' का क्या अर्थ है? इसका दोहन और प्रदूषण कैसे होता है ?

6. 'साझी परंतु अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ ' से क्या अभिप्राय है? हम इस विचार को कैसे लागू कर सकते हैँ ?

7. वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक से विभिन्न देशोँ के प्राथमिक सरोकार क्योँ बन गए हैँ ?

8. पृथ्वी को बचाने के लिए ज़रूरी है कि विभिन्न देश सुलह और सहकार की नीति अपनाएँ । पर्यावरण के सवाल पर उत्तरी और दक्षिणी देशोँ के बीच जारी वार्ताओँ की रोशनी मेँ इस कथन की पुष्टि करेँ ।

9. विभिन्न देशोँ के सामने सबसे गंभीर चुनौती वैश्विक पर्यावरण को आगे कोई नुकसान पहुँचाए बगैर आर्थिक विकास करने की है । यह कैसे हो सकता है ? कुछ उदाहरणोँ के साथ समझाएँ ।

पेज 117 से 134 तक
•• समाप्त ••


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1 टिप्पणी:

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    Imagine what you could do with eighteen delicious new greens in your dining arsenal including purslane, chickweed, curly dock, wild spinach, sorrel, and wild mustard.

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