बुधवार, 13 दिसंबर 2017

डायरी के पन्ने (ऐन फ्रैँक) भाग 1

बुधवार ,8 जुलाई ,1942
प्यारी किट्टी ,

ऐसा लग रहा है मानो रविवार के बाद से बरसों
बीत गए हों। इतना कुछ हो गया है जैसे पूरी दुनिया ही उलट-पुलट गई है। लेकिन जैसा कि तुम देख सकती हो, किट्टी, मैँ जिँदा हूँ , लेकिन यह मत पूछो कि कहाँ और कैसे। मैँ
जो कुछ भी कह रही हूँ उसमें शायद ही कोई बात तुम्हारे पल्ले पड़े, इसलिए मैं तुम्हेँ शुरू से बताती हूँ कि रविवार की दोपहर को क्या हुआ था।

तीन बजे थे। हैलो जा चुका था लेकिन वह दोबारा फिर से आने वाला था, तभी दरवाजे
की घंटी बजी। चूँकि मैं बाल्कनी में धूप में अलसाई सी बैठी पढ़ रही थी इसलिए मुझे घंटी की आवाज़ सुनाई नहीं दी। कुछ देर बाद रसोई के दरवाजे पर मार्गोट नज़र आई। वह बहुत गुस्से मेँ थी-पापा को ए.एस.एस. से बुलाए जाने का नोटिस मिला है, वह फुसफुसाई। माँ मिस्टर वान दान को देखने गई हुई हैं। मिस्टर वान दान पापा के बिजनेस पार्टनर हैं और
उनके अच्छे दोस्त हैं।

मैं आवाक् रह गई थी।
बुलावा ?
हर कोई जानता था कि बुलावे का क्या मतलब होता है। यातना शिविरों के नजारे और
वहाँ की कोठरियों के दृश्य मेरी आँखों के आगे तैर गए। हम अपने पापा को इस तरह की नियति के भरोसे कैसे छोड़ सकते थे। हम उन्हेँ हर्गिज नहीं जाने देंगे। मार्गोट ने उस वक्त कहा था जब वह ड्राइंग रूम में माँ की राह देख रही थी। माँ मिस्टर वान दान से पूछने गई हैं कि हम कल ही छुपने की जगह पर जा सकते हैं। वान दान परिवार भी हमारे साथ जा रहा है। हम लोग कुल मिलाकर सात लोग होंगे। मौन । हम आगे बात ही नहीं कर पाए। यह खयाल कि पापा यहूदी अस्पताल में किसी को देखने गए हुए हैं, माँ के लिए इंतजार की लंबी घड़ियाँ, गरमी, सस्पेंस, इन सारी चीजों ने हमारे शब्द ही हमसे छीन लिए थे। तभी दरवाजे की घंटी बजी-यह हैलो ही होगा, मैंने कहा था।

दरवाजा मत खोलो, मार्गोट ने हैरान ढोते मुझे रोका, लेकिन इसकी ज़रूरत नहीं थी क्योँकि हमने नीचे से माँ और मिस्टर वान दान को हैलो से बात करते हूए सुन लिया था। तब दोनों ही भीतर आए और अपने पीछे दरवाजा बंद कर दिया। जब भी दरवाजे की घंटी बजती तो मुझे या मार्गोट को उचककर नीचे देखना पड़ता कि क्या पापा आ गए हैं। हमने
किसी और को भीतर नहीं आने दिया। मुझे और मार्गोट को बाहर भेज दिया गया था क्योंकि वान दान माँ से अकेले में बात करना चाहते थे। जब मैँ और मार्गोट बेडरूम में बैठे बात कर रहे थे तो उसने मुझे बताया कि यह बुलावा पापा के लिए नहीं बल्कि खुद उसके लिए था । इस दूसरे सदमे से मैँ तो चीखने लगी । मार्गोट सोलह बरस की थी । तय है कि वे लोग इस उम्र की लड़कियोँ को उनके खुद के भरोसे यहाँ से भेजना चाहते हैँ । लेकिन भगवान का शुक्र है ,वह नहीँ जाएगी । माँ ने मुझसे यही कहा था । पापा जब मुझसे छिपने की जगह पर जाने की बात कर रहे थे तो उन्होँने भी शायद यही कहा होगा ।

अज्ञातवास...हम कहाँ जाकर छुपेँगे? शहर मेँ ? किसी घर मेँ? किसी परछत्ती पर? कब...कहाँ...कैसे...ये ऐसे सवाल थे जो मैँ पूछ नहीँ सकती थी लेकिन फिर भी ये सवाल मेरे दिमाग मेँ कुलबुला रहे थे ।

मार्गोट और मैँने अपनी बहुत ज़रूरी चीजेँ एक थैले मेँ भरनी शुरू कीँ ।

मैँने सबसे पहले अपने थैले मेँ यह डायरी ठूँसी । इसके बाद मैँने कर्लर रुमाल ,स्कूली किताबेँ ,एक कंघी और कुछ पुरानी चिट्ठियाँ थैले मेँ डालीँ । मैँ अज्ञातवास मेँ जाने के खयाल से इतनी अधिक आतंकित थी कि मैँने थैले मेँ अजीबोगरीब चीज़ेँ भर डालीँ ,फिर भी मुझे अफ़सोस नहीँ है । स्मृतियाँ मेरे लिए पोशाकोँ की तुलना मेँ ज्यादा मायने रखती हैँ ।तब हमने मिस्टर क्लीमेन को फ़ोन किया कि क्या वे शाम को हमारे घर आ पाएँगे ।

मिस्टर वान दान चले गए ताकि मिएप को लिवा ला सकेँ । मिएप आईँ और वादा किया कि वे रात को एक बार फिर आएँगी ।वे अपने साथ जूतोँ ,ड्रेसोँ ,जैकेटोँ , अंडरवियरोँ तथा स्टॉकिंग्स से भरा एक थैला लेकर गईँ । इसके बाद हमारे फ़्लैट मेँ सन्नाटा छा गया । हममेँ से किसी की भी खाना खाने की इच्छा ही नहीँ हुई । मौसम अभी भी गरम था और सारी चीज़ेँ जैसे हमारे लिए अजनबी होती चली जा रही थीँ ।

हमने अपना ऊपर वाला एक बड़ा कमरा तीसेक बरस के
एक विधुर मिस्टर गोल्डश्म्ड्टि को किराए पर दे रखा था। तय था कि उसे उस शाम कोई काम धंधा नहीं था, इसके बावजूद-हमारे कई इशारों के बावजूद वह रात दस बजे तक वहीं पर मँडराता रहा।
मिएप और जॉन गिएज रात ग्यारह बजे आए। मिएप 1933 से पापा की कंपनी मेँ काम कर रही थीं और इसलिए पापा के करीबी दोस्तों मेँ थीं। उसके पति जॉन भी पापा के अच्छे दोस्त थे। एक बार फिर जूते, स्टॉकिंग्स, अंडरवियर और किताबे मिएप के गहरे
बैग और जॉन की जेबों मेँ गायब हो रही थीं। साढ़े ग्यारह बजे वे खुद भी बिदा लेकर चले गए। मैं बुरी तरह से थक गई थी, फिर भी एक बात मैं अच्छी तरह जानती थी कि यह रात मेरे अपने
बिस्तर मेँ मेरी आखिरी रात है। मैं जैसे घोड़े बेचकर सोई। मेरी नीँद अगली सुबह साढ़े पाँच बजे मार्गोट के जगाने पर ही खुली। किस्मत
से यह सुबह रविवार की तरह गरम नहीं थी । दिन भर गरम बरसात की फुहारें पड़ती रहीं। हम चारों ने अपने बदन पर इतने ज्यादा
कपड़े ले लिए थे मानो हम रात फ्रिज मेँ गुजारने जा रहे होँ। वजह सिर्फ इतनी-सी थी कि हम अपने साथ ज़्यादा से ज्यादा कपड़े ले जाना चाहते थे। हम जिस स्थिति मेँ थे उसमें कोई यहूदी व्यक्ति
कपड़ोँ से भरा सूटकेस ले जाने के बारे मेँ सोच भी नहीं सकता था। मैँने दो बनियाने, तीन पैंटें, एक ड्रेस और उसके ऊपर एक स्कर्ट, एक जैकेट, एक बरसाती, दो जोड़ी स्टॉकिंग्स, भारी जूते, एक कैप, एक स्कार्फ़, और इन सबके अलावा और भी बहुत कुछ
ओढ़-पहन रखा था। घर से निकलने से पहले ही मेरा दम घुटने लगा था लेकिन किसी को भी परवाह नहीँ थी कि मुझसे पूछे -ऐन ,कैसा लग रहा है तुम्हेँ?

मार्गोट ने अपने थैले में स्कूल की किताबें दूँस ली थीं और
वह अपनी साइकिल लेने चली गई और फिर वह मिएप की
निगरानी में अज्ञात जगह के लिए रवाना हो गई। कुछ भी रहा हो,मेरे लिए तो वह अनजान जगह ही थी ; क्योँकि मुझे अभी भी पता नहीँ था कि हम कहाँ जाने वाले हैँ । साढ़े सात बजे हमने भी अपने पीछे दरवाज़ा बंद किया । मूर्त्जे ही एकमात्र ऐसी जीवित प्राणी थी जिसे मुझे गुड-बाई कहना था। हमने गोल्डश्म्ड्टि के लिए जो नोट छोड़ा उसके अनुसार
बिल्ली को पड़ोसियोँ के यहाँ छोड़ा जाना था। वे ही अब उसकी देखभाल करने वाले थे।
खाली बिस्तरे, मेज़ पर बिखरा नाश्ते का सामान, रसोई में बिल्ली के लिए सेर भर मीट, ये सारी चीजें यही दर्शाती थीं कि हम बहुत ही हड़बड़ी में छोड़-छाड़कर गए हैं। लेकिन इंप्रैशन छोड़कर जाने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हम तो किसी भी तरह वहाँ से निकल जाना
चाहते थे और कहीं सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाना चाहते थे। और कोई बात मायने नहीं रखती थी

बाकी कल,

तुम्हारी ऐन

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