शनिवार, 28 नवंबर, 1942
मेरी प्यारी किट्टी,
हम इन दिनों बिजली का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते रहे हैं और अपने राशन से ज्यादा खर्च कर चुके हैं। नतीजा यह होगा कि और अधिक किफ़ायत, और हो सकता है, बिजली भी कट जाए। एक पखवाड़े के लिए कोई बिजली नहीं, कितना मजेदार खयाल है, नहीं क्या? लेकिन कौन जानता है, यह अरसा इससे कम भी हो
सकता है। बहुत अँधेरा हो जाता है चार, साढ़े चार बजते ही। हम तब पढ़ नहीं सकते। इसलिए वह वक्त हम ऊल-जुलूल हरकतें करके
गुजारते हैं। हम पहेलियाँ बुझाते हैं, अँधेरे मेँ व्यायाम करते हैं, अंग्रेजी या फ्रेंच बोलते हैं और किताबोँ की समीक्षा करते हैं। हम कुछ भी
करें, थोड़ी देर बाद बोर लगने लगता है। कल मैँने वक्त गुजारने का एक नया तरीका खोज निकाला। दूरबीन लगाकर पड़ोसियोँ के रोशनी
वाले कमरों मेँ झाँकना। दिन के वक्त हमारे परदे हटाए नहीं जा सकते, एक इंच भर भी नहीं, लेकिन जब अँधेरा हो तो परदे हटाने मेँ कोई हर्ज नहीं होता।
मुझे पता नहीं था कि हमारे पड़ोस मेँ इतने दिलचस्प लोग रहते हैं। खैर, हमारे पड़ोसी हैं। मैंने जो पड़ोसी देखे-उनमें से एक परिवार डिनर कर रहा था, एक परिवार फिल्म बना रहा था तो सामने वाले घर मेँ एक दंत चिकित्सक एक डरी हुई बुढ़िया से जूझ रहा था।
मिस्टर डसेल जिनके बारे मेँ कहा गया था कि उनकी बच्चोँ
के साथ बहुत पटती है और वे उन्हेँ खूब प्यार करते हैं, दरअसल बाबा आदम के ज़माने के अनुशासन मास्टर हैं और लंबे-लंबे भाषण देने लगते हैं जिन्हेँ सुनकर ही नीँद आने लगे । चूँकि मुझ अकेली को ही यह सुख(?) मिला हुआ है कि मैँ उनके साथ ,महाराज डसेल के साथ यह लंबोतरा ,सँकरा कमरा शेअर करती हूँ ,और चूँकि मुझे ही , हम तीन बच्चोँ मेँ आमतौर पय खरदिमाग और तुनकमिज़ाज समझा जाता है , मेरे पास यही एक उपाय बचता है कि उनकी वही पुरानी डाँट-फटकार और भाषणोँ की लंबी-लंबी उबाऊ श्रृंखला की तरफ़ कान न धरूँ ।न सुनने का नाटक करती रहूँ । ये बात तो खैर मैँ फिर भी सहन कर लेती लेकिन मिस्ट डसेल अच्छे-खासे चुगलखोर हैँ ।
वे जाकर इन सारी बातों की रिपोर्ट मम्मी को दे आते हैं। अगर मिस्टर डसेल ने मुझे कोई उपदेश पिलाया होता है तो उसे दोबारा से मुझे मम्मी से सुनना पड़ता है और मम्मी तो कोई लिहाज़ भी नहीं करती मेरा, और अगर मेरी किस्मत वाकई अच्छी होती है तो मिसेज़ वान मुझे पाँच मिनट बाद बुलवा भेजती हैं।
सचमुच, मीन-मेख निकालने वाले परिवार में आप केँद्र में हों और सारा दिन आपको,
हर तरफ़ से दुत्कारा फटकारा जाए-ये सब झेलना आसान काम नहीं होता।
रात को जब मैँ बिस्तर पर होती हूँ तो अपने पापों और बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई अपनी खामियों के बारे में सोचती हूँ तो वे इतनी ज्यादा होती हैं कि अपने मूड के हिसाब से या तो मैँ उन पर हँस सकती हूँ या रो ही सकती हूँ। तब मैँ इस अजीब से खयाल के साथ सो जाती हूँ कि मैँ जो कुछ हूँ, उससे अलग होना चाहती हूँ या मैँ उससे अलग तरीके से व्यवहार करना चाहती हूँ जो
मैँ हूँ या जो मैँ होना चाहती हूँ।
मेरी प्यारी किट्टी,
अब मैं तुम्हें कितना उलझा
रही हूँ। लेकिन मैँ चीजें
एक बार लिखकर उन्हे
काटना पसंद नहीं करती
और इस कमी वाले वक्त में कागज़ को मोड़-तोड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल देना बिलकुल मना है। इसलिए मैँ तुम्हेँ सिर्फ़ यही सलाह दे सकती हूँ कि तुम ऊपर वाले हिस्से को फिर से पढ़ने की कोशिश मत करना; क्योँकि इसमें तुम्हें बात का सिर-पैर भी नहीं मिलेगा।
तुम्हारी ऐन
मेरी प्यारी किट्टी,
हम इन दिनों बिजली का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते रहे हैं और अपने राशन से ज्यादा खर्च कर चुके हैं। नतीजा यह होगा कि और अधिक किफ़ायत, और हो सकता है, बिजली भी कट जाए। एक पखवाड़े के लिए कोई बिजली नहीं, कितना मजेदार खयाल है, नहीं क्या? लेकिन कौन जानता है, यह अरसा इससे कम भी हो
सकता है। बहुत अँधेरा हो जाता है चार, साढ़े चार बजते ही। हम तब पढ़ नहीं सकते। इसलिए वह वक्त हम ऊल-जुलूल हरकतें करके
गुजारते हैं। हम पहेलियाँ बुझाते हैं, अँधेरे मेँ व्यायाम करते हैं, अंग्रेजी या फ्रेंच बोलते हैं और किताबोँ की समीक्षा करते हैं। हम कुछ भी
करें, थोड़ी देर बाद बोर लगने लगता है। कल मैँने वक्त गुजारने का एक नया तरीका खोज निकाला। दूरबीन लगाकर पड़ोसियोँ के रोशनी
वाले कमरों मेँ झाँकना। दिन के वक्त हमारे परदे हटाए नहीं जा सकते, एक इंच भर भी नहीं, लेकिन जब अँधेरा हो तो परदे हटाने मेँ कोई हर्ज नहीं होता।
मुझे पता नहीं था कि हमारे पड़ोस मेँ इतने दिलचस्प लोग रहते हैं। खैर, हमारे पड़ोसी हैं। मैंने जो पड़ोसी देखे-उनमें से एक परिवार डिनर कर रहा था, एक परिवार फिल्म बना रहा था तो सामने वाले घर मेँ एक दंत चिकित्सक एक डरी हुई बुढ़िया से जूझ रहा था।
मिस्टर डसेल जिनके बारे मेँ कहा गया था कि उनकी बच्चोँ
के साथ बहुत पटती है और वे उन्हेँ खूब प्यार करते हैं, दरअसल बाबा आदम के ज़माने के अनुशासन मास्टर हैं और लंबे-लंबे भाषण देने लगते हैं जिन्हेँ सुनकर ही नीँद आने लगे । चूँकि मुझ अकेली को ही यह सुख(?) मिला हुआ है कि मैँ उनके साथ ,महाराज डसेल के साथ यह लंबोतरा ,सँकरा कमरा शेअर करती हूँ ,और चूँकि मुझे ही , हम तीन बच्चोँ मेँ आमतौर पय खरदिमाग और तुनकमिज़ाज समझा जाता है , मेरे पास यही एक उपाय बचता है कि उनकी वही पुरानी डाँट-फटकार और भाषणोँ की लंबी-लंबी उबाऊ श्रृंखला की तरफ़ कान न धरूँ ।न सुनने का नाटक करती रहूँ । ये बात तो खैर मैँ फिर भी सहन कर लेती लेकिन मिस्ट डसेल अच्छे-खासे चुगलखोर हैँ ।
वे जाकर इन सारी बातों की रिपोर्ट मम्मी को दे आते हैं। अगर मिस्टर डसेल ने मुझे कोई उपदेश पिलाया होता है तो उसे दोबारा से मुझे मम्मी से सुनना पड़ता है और मम्मी तो कोई लिहाज़ भी नहीं करती मेरा, और अगर मेरी किस्मत वाकई अच्छी होती है तो मिसेज़ वान मुझे पाँच मिनट बाद बुलवा भेजती हैं।
सचमुच, मीन-मेख निकालने वाले परिवार में आप केँद्र में हों और सारा दिन आपको,
हर तरफ़ से दुत्कारा फटकारा जाए-ये सब झेलना आसान काम नहीं होता।
रात को जब मैँ बिस्तर पर होती हूँ तो अपने पापों और बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई अपनी खामियों के बारे में सोचती हूँ तो वे इतनी ज्यादा होती हैं कि अपने मूड के हिसाब से या तो मैँ उन पर हँस सकती हूँ या रो ही सकती हूँ। तब मैँ इस अजीब से खयाल के साथ सो जाती हूँ कि मैँ जो कुछ हूँ, उससे अलग होना चाहती हूँ या मैँ उससे अलग तरीके से व्यवहार करना चाहती हूँ जो
मैँ हूँ या जो मैँ होना चाहती हूँ।
मेरी प्यारी किट्टी,
अब मैं तुम्हें कितना उलझा
रही हूँ। लेकिन मैँ चीजें
एक बार लिखकर उन्हे
काटना पसंद नहीं करती
और इस कमी वाले वक्त में कागज़ को मोड़-तोड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल देना बिलकुल मना है। इसलिए मैँ तुम्हेँ सिर्फ़ यही सलाह दे सकती हूँ कि तुम ऊपर वाले हिस्से को फिर से पढ़ने की कोशिश मत करना; क्योँकि इसमें तुम्हें बात का सिर-पैर भी नहीं मिलेगा।
तुम्हारी ऐन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें