बुधवार, 13 दिसंबर 2017

सिल्वर वैडिंग (मनोहर श्याम जोशी )


 ब सेक्शन आफ़िसर
वाई.डी. (यशोधर) पंत ने आखिरी फ़ाइल का लाल फीता बाँधकर निगाह मेज़ से उठायी तब दफ़्तर की पुरानी दीवार घड़ी पाँच बजकर पच्चीस मिनट बजा रही थी ।उनकी अपनी कलाई घड़ी में साढ़े पाँच बजे थे। पंत जी अपनी घड़ी रोज़ाना सुबह-शाम रेडियो-समाचारों से मिलाते हैं, इसलिए उन्होंने दफ़्तर की घड़ी को ही सुस्त ठहराया। फ़ाइल आउट ट्रे में डाल कर उन्होंने एक निगाह अपने मातहतों पर डाली जो उनके ही कारण पाँच बजे के बाद भी दफ़्तर में बैठने को मजबूर होते हैं। चलते-चलते जूनियरों से कोई मनोरंजक बात कह कर दिन भर के शुष्क व्यवहार का निराकरण कर जाने की कृष्णानन्द (किशनदा) पांडे से मिली हुई परंपरा का पालन करते हुए उन्होंने कहा, "आप लोगों की देखादेखी सेक्शन की घड़ी भी सुस्त हो गयी है! "
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सीधे 'असिस्टेंट ग्रेड ' में आये नये छोकरे चड्ढा ने, जिसकी चौड़ी मोहरीवाली पतलून और ऊँची एड़ी वाले जूते पंतजी को ' सम हाउ इंप्रॉपर ' मालूम होते हैं, थोड़ी बदतमीज़ी-सी की।
' ऐज यूजुअल ' बोला, " बड़े बाऊ , आपकी अपनी चूनेदानी का क्या हाल है ? वक्त सही देती है ? "
पन्त जी ने चड्ढा की धृष्टता को अनदेखा किया और कहा, 
" मिनिट टू मिनिट करेक्ट चलती है।"
चड्ढा ने कुछ और धृष्ट होकर पंत जी की कलाई थाम ली। इस तरह का धृष्टता का प्रकट विरोध करना यशोधर बाबू ने छोड़ दिया है। मन-ही-मन वह उस ज़माने की याद ज़रूर करते हैं जब दफ़्तर में वह किशनदा को भाई नहीं 
' साहब ' कहते और समझते थे। घड़ी की ओर देखकर वह बोला , "बाबा आदम के ज़माने की है बड़े बाऊ यह तो! आप तो डिजिटल ले लो एक जापानी। सस्ती मिल जाती है।"


"यह घड़ी मुझे शादी में मिली थी। हम पुरानी चाल के, हमारी घड़ी पुरानी चाल की। अरे यही बहुत है कि अब तक 'राइट टाइम' चल रही है-क्यों कैसी रही? "


इस तरह का नहले पर दहला जवाब देते हुए एक हाथ आगे बढ़ा देने की परम्परा थी,रेम्जे स्कूल अल्मोड़ा में जहाँ से कभी यशोधर बाबू ने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। इस तरह के आगे बढ़े हुए हाथ पर सुनने वाला बतौर दाद अपना हाथ मारा करता था और वक्ता-श्रोता दोनों ठठाकर हाथ मिलाया करते थे। ऐसी ही परम्परा किशनदा के क्वार्टर में भी थी जहाँ रोज़ी-रोटी की तलाश में आये यशोधर पंत नामक एक मैट्रिक पास बालक को शरण मिली थी कभी। किशन दा कुँआरे थे और पहाड़ से आये हुए कितने ही लड़के ठीक-ठिकाना होने से पहले उनके यहाँ रह जाते थे। मैस-जैसी थी। मिलकर लाओ, पकाओ, खाओ। यशोधर बाबू जिस समय दिल्ली आये थे उनकी उम्र सरकारी नौकरी के लिए कम थी। कोशिश करने पर भी 'बॉय सर्विस' में वह नहीं लगाये जा सके। तब किशनदा ने उन्हें मैस का रसोईया बनाकर रख लिया। यही नहीं, उन्होंने यशोधर को पचास रुपये उधार भी दिये कि वह अपने लिए कपड़े बनवा सके और गाँव पैसा भेज सके। बाद में इन्हीं किशनदा ने अपने ही नीचे नौकरी दिलवायी और दफ़्तरी जीवन में मार्ग-दर्शन किया।


चड्ढा ने ज़ोर से कहा, "बडे बाऊ आप किन ख्यालों में खो गये? मेनन पूछ रहा है कि आपकी शादी हुई कब थी ?"


यशोधर बाबू ने सकपका कर अपना बढ़ा हुआ हाथ वापस खींचा और मेनन से मुखातिब होकर बोले, "नाव लैट मी सी, आइ वॉज़ मैरिड ऑन सिक्स्थ फ़रवरी नाइंटीन फ़ोर्टी सेवन।"


मेनन ने फ़ौरन हिसाब लगाया और चहककर बोला, "मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ द डे सर! आज तो आपका 'सिल्वर वेडिंग' है। शादी को पूरा पच्चीस साल हो गया।"


यशोधर जी खुश होते हुए झेंपे और झेंपते हुए खुश हुए। यह अदा उन्होंने किशनदा से सीखी थी।


चड्ढा ने घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया और कहा, "सुन भई भगवानदास, बड़े बाऊ से बड़ा नोट ले और सारे सेक्शन के लिए चा-पानी का इन्तज़ाम कर फटाफट।"


यशोधर जी बोले, "अरे ये 'वैडिंग एनिवर्सरी' वग़ैरह सब गोरे साहबों के चोंचले हैं- हमारे यहाँ थोड़ी मानते हैं।"


चड्ढा बोला, "मिक्चर मत पिलाइए गुरुदेव । चाय-मट्ठी-लड्डु बस इतना ही तो सौदा है। इनमें कौन आपकी बड़ी माया निकली जानी है।"


यशोधर बाबू ने जेब से बटुवा और बटुए से दस का नोट निकाला और कहा,"आप लोग चाय पीजिए 'दैट' तो 'आई डू नाट माइंड', लेकिन जो हमारे लोगों में 'कस्टम' नहीं है, उस पर 'इनसिस्ट' करना, 'दैट' मैं 'समहाउ इंप्रॉपर फाइंड' करता हूँ।"


चड्ढा ने दस का नोट चपरासी को दिया और पुनः बड़े बाऊ के आगे हाथ फैला दिया कि एक नोट से सेक्शन का क्या बनना है? रुपया तीस हो तो चुग्गे भर का जुगाड़ करा सकें।


सारा सेक्शन जानता है कि यशोधर बाबू अपने बटुवे में सौ-डेढ़ सौ रुपये हमेशा रखते हैं भले ही उनका दैनिक ख़र्च नगण्य है। और तो और, बस-टिकट का ख़र्च भी नहीं। गोल मार्केट से 'सेक्रेट्रिएट' तक पहले साइकिल में आते-जाते थे, इधर पैदल आने-जाने लगे हैं क्योंकि उनके बच्चे आधुनिक युवा हो चले हैं और उन्हें अपने पिता का साइकिल-सवार होना सख्त नागवार गुज़रता है। बच्चों के अनुसार साइकिल तो चपरासी चलाते हैं। बच्चे चाहते हैं कि पिता जी स्कूटर ले लें। लेकिन पिता जी को 'समहाउ' स्कूटर निहायत बेहूदा सवारी मालूम होती है और कार जब 'अफ़ोर्ड' की ही नहीं जा सकती तब उसकी बात सोचना ही क्यों?


चड्ढा के ज़ोर देने पर बड़े बाऊ ने दस-दस के दो नोट और दे दिये लेकिन सारे सेक्शन के इसरार करने पर भी वह अपनी 'सिल्वर वैडिंग' की इस दावत के लिए रुके नहीं। मातहत लोगों से चलते-चलाते थोड़ा हँसी-मज़ाक कर लेना किशनदा की परम्परा में है। उनके साथ बैठकर चाय-पानी और गप्प-गप्पाष्टक में वक्त बरबाद करना उस परम्परा के विरुद्ध है।


इधर यशोधर बाबू ने दफ़्तर से लौटते हुए रोज़ बिड़ला मन्दिर जाने और उसके उद्यान में बैठकर प्रवचन सुनने अथवा स्वयं ही प्रभु का ध्यान लगाने की नयी रीत अपनायी है।


यह बात उनके पत्नी-बच्चों को बहुत अखरती है। बब्बा आप कोई बुड्ढे थोड़े हैं जो रोज़-रोज़ मन्दिर जाएँ, इतने ज्यादा व्रत करें-ऐसा कहते हैं वे। यशोधर बाबू इस आलोचना को अनसुना कर देते हैं। सिद्धान्त के धनी की, किशनदा के अनुसार, यही निशानी है।


बिड़ला मन्दिर से उठकर यशोधर बाबू पहाड़गंज जाते हैं और घर के लिए साग-सब्जी ख़रीद लाते हैं। अगर किसी से मिलना-मिलाना हो तो वह भी इसी समय कर लेते हैं। तो भले ही दफ़्तर पाँच बजे छूटता हो वह घर आठ बजे से पहले कभी नहीं पहुँचते।
आज बिड़ला मन्दिर जाते हुए यशोधर बाबू की निगाह उस अहाते पर पड़ी जिसमें कभी किशनदा का तीन बेडरूम वाला बड़ा क्वार्टर हुआ करता था और जिस पर इन दिनों एक छः मंजिला इमारत बनायी जा रही है। इधर से गुज़रते हुए, कभी के 'डी.आई.जैड.' एरिया की बदलती शक्ल देखकर यशोधर बाबू को बुरा-सा लगता है। ये लोग सारा गोल मार्केट क्षेत्र तोड़ कर यहाँ एक मंजिला क्वार्टरों की जगह ऊँची इमारतें बना रहे हैं। यशोधर बाबू को पता नहीं कि ये लोग ठीक कर रहे हैं कि ग़लत कर रहे हैं। उन्हें यह ज़रूर पता है कि उनकी यादों के गोल मार्केट के ढहाये जाने का गम मनाने के लिए उनका इस क्षेत्र में डटे रहना निहायत ज़रूरी है। उन्हें एण्ड्रयूज़गंज, लक्ष्मीबाई नगर, पंडारा रोड आदि नयी बस्तियों में पद की गरिमा के अनुरूप डी-2 टाइप क्वार्टर मिलने की अच्छी ख़बर कई बार आयी है, मगर हर बार उन्होंने गोल मार्केट छोड़ने से इन्कार कर दिया है। जब उनका क्वार्टर टूटने का नम्बर आया तब भी उन्होंने इसी क्षेत्र की इन बस्तियों में बचे हुए क्वार्टरों में एक अपने नाम अलाट करा लिया। पत्नी के यह पूछने पर कि जब यह भी टूट जाएगा तब क्या करोगे? उन्होंने कहा- तब की तब देखी जाएगी। कहा और उसी तरह मुस्कराए जिस तरह किशनदा यही फ़िकरा कह कर मुस्कराते थे।


सच तो यह है कि पिछले कई वर्षों से यशोधर बाबू का अपनी पत्नी और बच्चों से हर छोटी-बड़ी बात में मतभेद होने लगा है और इसी वजह से वह घर जल्दी लौटना पसन्द नहीं करते। जब तक बच्चे छोटे थे तब तक वह उनकी पढ़ाई-लिखाई में मदद कर सकते थे। अब बड़ा लड़का एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी पा गया है यद्यपि 'समहाउ' यशोधर बाबू को अपने साधारण पुत्र को असाधारण वेतन देने वाली यह नौकरी कुछ समझ में आती नहीं।


वह कहते हैं कि डेढ़ हज़ार रुपया तो हमेँ अब रिटायरमेँट के पास पहुँच कर मिला है , शुरू मे ही डेढ़ हज़ार रुपया देने वाली इस नौकरी में ज़रूर कुछ पेंच होगा। यशोधर जी का दूसरा बेटा दूसरी बार आई.ए.एस. देने की तैयारी कर रहा है और यशोधर बाबू के लिए यह समझ सकना असम्भव है कि अब यह पिछले साल 'एलाइड सर्विसेज़' की सूची में, माना काफ़ी नीचे आ गया था तब इसने 'ज्वाइन' करने से इन्कार क्यों कर दिया? उनका तीसरा बेटा 'स्कॉलरशिप' लेकर अमरीका चला गया है और उनकी एकमात्र बेटी न केवल तमाम प्रस्तावित वर अस्वीकार करती चली जा रही है बल्कि डॉक्टरी की उच्चतम शिक्षा के लिए स्वयं भी अमरीका चले जाने की धमकी दे रही है। यशोधर बाबू जहाँ बच्चों की इस तरक्की से खुश होते हैं वहाँ 'समहाउ' यह भी अनुभव करते हैं कि वह ख़ुशहाली भी कैसी जो अपनों में परायापन पैदा करे। अपने बच्चों द्वारा ग़रीब रिश्तेदारों की उपेक्षा उन्हें 'समहाउ' जँचती नहीं। 'एनीवे- जेनरेशनों में गैप तो होता ही है सुना'- ऐसा कहकर स्वयं को दिलासा देता है पिता।


यद्यपि यशोधर बाबू की पत्नी अपने मूल संस्कारों से किसी भी तरह आधुनिक नहीं हैं, तथापि बच्चों की तरफ़दारी करने की मातृसुलभ मजबूरी ने उन्हें भी मॉड बना डाला है। कुछ यह भी है कि जिस समय उनकी शादी हुई थी यशोधर बाबू के साथ गाँव से आये ताऊ जी और उनके दो विवाहित बेटे भी रहा करते थे। इस संयुक्त परिवार में पीछे ही पीछे बहुओं में गज़ब के तनाव थे लेकिन ताऊजी के डर से कोई कुछ कह नहीं पाता था। यशोधर बाबू की पत्नी को शिकायत है कि संयुक्त परिवार वाले उस दौर में पति ने हमारा पक्ष कभी नहीं लिया, बस जिठानियों की चलने दी। उनका यह भी कहना है कि मुझे आचार-व्यवहार के ऐसे बन्धनों में रखा गया मानों मैं जवान औरत नहीं, बुढ़िया थी। जितने भी नियम इसकी बुढ़िया ताई के लिए थे, वे सब मुझ पर भी लागू करवाए- ऐसा कहती है घरवाली बच्चों से। बच्चे उससे सहानुभूति व्यक्त करते हैं। फिर वह यशोधर जी से उन्मुख होकर कहती हैं- तुम्हारी ये बाबा आदम के ज़माने की बातें मेरे बच्चे नहीं मानते तो इसमें उनका कोई कसूर नहीं। मैं भी इन बातों को उसी हद तक मानूंगी जिस हद तक सुभीता हो। अब मेरे कहने से वह सब ढोंग-ढकोसला हो नहीं सकता-साफ़ बात ।


धर्म-कर्म, कुल-परम्परा सबको ढोंग-ढकोसला कहकर घर वाली आधुनिकाओं-सा आचरण करती है तो यशोधर बाबू 'शानयल बुढ़िया', 'चटाई का लहँगा' या 'बूढ़ी मुँह मुँहासे, लोग करें तमासे' कह कर उसके विद्रोह को मज़ाक में उड़ा देना चाहते हैं, अनदेखा कर देना चाहते हैं लेकिन यह स्वीकार करने को बाध्य भी होते जाते हैं कि तमाशा स्वयं उनका बन रहा है।


जिस जगह किशनदा का क्वार्टर था उसके सामने खड़े होकर एक गहरा निः श्वास छोड़ते हुए यशोधर जी ने अपने से पूछा कि क्या यह 'बेटर' नहीं रहता कि किशनदा की तरह घर-गृहस्थी का बवाल ही न पाला होता और 'लाइफ़ कम्युनिटी' के लिए 'डेडीकेट' कर दी होती।


फिर उनका ध्यान इस ओर गया कि बाल-जती किशनदा का बुढ़ापा सुखी नहीं रहा। उसके तमाम साथियों ने हौज़ख़ास, ग्रीनपार्क, कैलाश कहीं-न-कहीं ज़मीन ली, मकान बनवाया, लेकिन उसने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। रिटायर होने के छह महीने बाद जब उसे क्वार्टर खाली करना पड़ा तब, हद हो गयी, उसके द्वारा उपकृत इतने सारे लोगों में से एक ने भी उसे अपने यहाँ रखने की पेशकश नहीं की। स्वयं यशोधर बाबू उसके सामने ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं रख पाये क्योंकि उस समय तक उनकी शादी हो चुकी थी और उनके दो कमरों के क्वार्टर में तीन परिवार रहा करते थे। किशनदा कुछ साल राजेन्द्र नगर में किराये का क्वार्टर लेकर रहा और फिर अपने गाँव लौट गया जहाँ साल भर बाद उसकी मृत्यु हो गयी। ज्यादा पेंशन खा नहीं सका बेचारा! विचित्र बात यह है कि उसे कोई भी बीमारी नहीं हुई। बस रिटायर होने के बाद मुरझाता-सूखता ही चला गया। जब उसके एक बिरादर से मृत्यु का कारण पूछा तब उसने यशोधर बाबू को यही जवाब दिया, "जो हुआ होगा।" यानी 'पता नहीं, क्या हुआ ।'
जिन लोगों के बाल-बच्चे नहीं होते, घर-परिवार नहीं होता उनकी रिटायर होने के बाद 'जो हुआ होगा' से भी मौत हो जाती है- यह जानते हैं यशोधर जी! बच्चों का होना भी ज़रूरी है। यह सही है कि यशोधर जी के बच्चे मनमानी कर रहे हैं और ऐसा संकेत दे रहे हैं कि उनके कारण यशोधर जी को बुढ़ापे में कोई विशेष सुख प्राप्त नहीं होगा लेकिन यशोधर जी अपने मर्यादा-पुरुष किशनदा से सुनी हुई यह बात नहीं भूले हैं कि गधा-पच्चीसी में कोई क्या करता है, इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए क्योंकि बाद में हर आदमी समझदार हो जाता है। यद्यपि युवा यशोधर को विश्वास नहीं होता तथापि किशनदा बताते हैं कि किस तरह मैंने जवानी में पचासों किस्म की खुराफ़ात की है। ककड़ी चुराना, गर्दन मोड़ के मुर्गी मार देना, पीछे की खिड़की से कूद कर 'सेकेण्ड शो' सिनेमा देख आना-कौन करम ऐसा है जो तुम्हारे इस किशनदा ने नहीं कर रखा।


जिम्मेदारी सर पर पड़ेगी तब सब अपने आप ठीक हो जाएँगे, यह भी किशनदा से विरासत में मिला हुआ एक फिकरा है जिसे यशोधर बाबू अक्सर अपने बच्चों के प्रसंग में दोहराते हैं। उन्हें कभी-कभी लगता है कि अगर मेरे पिता तब नहीं गुज़र गये होते जब मैं मैट्रिक में था तो शायद मैं भी गधा-पच्चीसी के लम्बे दौर से गुज़रता। जिम्मेदारी सर पर जल्दी पड़ गयी तो जल्दी ही जिम्मेदार आदमी भी बन गया। जब तक बाप है तब तक मौज कर ले। यह बात यशोधर जी कभी-कभी तंजिया कहते हैं। लेकिन कहते हुए उनके चेहरे पर जो मुस्कान खेल जाती है वह बच्चों पर यह प्रकट करती है कि बाप को उनका सनाथ होना, ग़ैर-जिम्मेदार होना, कुल मिलाकर अच्छा लगता है।


यशोधर बाबू कभी-कभी मन ही मन स्वीकार करते हैं कि दुनियादारी में बीवी-बच्चे अधिक सुलझे हुए हो सकते हैं, लेकिन दो के चार करने वाली दुनिया ही उन्हें कहाँ मंजूर है जो उसकी रीति मंजूर करे। दुनियादारी के हिसाब से बच्चों का यह कहना सही हो सकता है कि बब्बा ने डी.डी.ए. फ्लैट के लिए पैसा न भर के भयंकर भूल की है। किन्तु 'समहाउ' यशोधर बाबू को किशनदा की यह उक्ति अब भी जँचती है- मूरख लोग मकान बनाते हैं, सयाने उनमें रहते हैं। जब तक सरकारी नौकरी तब तक सरकारी क्वार्टर। रिटायर होने पर गाँव का पुश्तैनी घर। बस !


गाँव का पुश्तैनी घर टूट-फूट चुका है और उस पर इतने लोगों का हक है कि वहाँ जाकर बसना, मरम्मत की जिम्मेदारी ओढ़ना और बेकार के झगड़े मोल लेना होगा-इस बात को यशोधर जी अच्छी तरह समझते हैं। बच्चे बहस में जब यह तर्क दोहराते हैं तब उनसे कोई जवाब देते नहीं बनता। उन्होंने हमेशा यही कल्पना की थी, और आज भी करते हैं कि उनका कोई लड़का उनके रिटायर होने से पहले सरकारी नौकरी में आ जाएगा और क्वार्टर उनके परिवार के पास बना रह सकेगा। अब भी पत्नी द्वारा भविष्य का प्रश्न उठाये जाने पर यशोधर बाबू इस सम्भावना को रेखांकित कर देते हैं। जब पत्नी कहती है , 'अगर ऐसा नहीं हुआ तो? आदमी को तो हर तरह से सोचना चाहिए।' तब यशोधर बाबू टिप्पणी करते हैं कि सब तरह से सोचने वाले हमारी बिरादरी में नहीं होते हैं। उसमें तो एक तरह से सोचने वाले होते हैं और कहकर लगभग नक़ली-सी हँसी हँसते हैं।


जितना ही इस लोक की ज़िन्दगी यशोधर बाबू को यह नकली हँसी हँसने के लिए बाध्य कर रही है उतना ही वह परलोक के बारे में उत्साही होने का यत्न कर रहे हैं। तो उन्होंने बिड़ला मन्दिर की ओर तेज़ क़दम बढ़ाए, लक्ष्मीनारायण के आगे हाथ जोड़े , असीक का फूल चुटिया में खोंसा और पीछे के उस प्राँगण में जा पहुँचे जहाँ एक महात्मा जी गीता का प्रवचन कर रहे थे।


अफ़सोस , आज प्रवचन सुनने में यशोधर जी का मन ख़ास लगा नहीं। सच तो यह है कि वह भीतर से बहुत ज्यादा धार्मिक अथवा कर्मकाण्डी हैं नहीं। हाँ, इस सम्बन्ध में अपने मर्यादा-पुरुष किशनदा द्वारा स्थापित मानक हमेशा उनके सामने रहे हैं। जैसे-जैसे उम्र ढल रही है, वैसे-वैसे वह भी किशनदा की तरह रोज़ मन्दिर जाने, सन्ध्या-पूजा करने, और गीता प्रेस गोरखपुर की किताबें पढ़ने का यत्न करने लगे हैं। अगर कभी उनका मन शिकायत करता है कि इस सब में लग नहीं पा रहा हूँ तब उससे कहते हैं कि भाई लगना चाहिए। अब तो माया-मोह के साथ-साथ भगवत्-भजन को भी कुछ स्थान देना होगा कि नहीं? नयी पीढ़ी को देकर राजपाट तुम लग जाओ बाट वन-प्रदेश की। जो करते हैं, जैसा करते हैं, करें। हमें तो अब इस 'व-रल्ड' की नहीं , उसकी , इस 'लाइफ' की नहीं उसकी चिन्ता करनी है। वैसे अगर बच्चे सलाह माँगें, अनुभव का आदर करें तो अच्छा लगता है। अभी नहीं माँगते तो न माँगें।


यशोधर बाबू ने फिर अपने को झिड़का कि यह भी क्या हुआ कि मन को समझाने में फिर भटक गये। गीता महिमा सुनो।


सुनने लगे मगर व्याख्या में जनार्दन शब्द जो सुनाई पड़ा तो उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद हो आयी। परसों ही कार्ड आया है कि उनकी तबीयत ख़राब है। यशोधर बाबू सोचने लगे कि जीजा जी का हाल पूछने अहमदाबाद जाना ही होगा। ऐसा सोचते ही उन्हें यह भी ख्याल आया कि यह प्रस्ताव उनकी पत्नी और बच्चों को पसन्द नहीं आएगा। सारा संयुक्त परिवार बिखर गया है। पत्नी और बच्चों की धारणा है कि इस बिखरे परिवार के प्रति यशोधर जी का एकतरफ़ा लगाव आर्थिक दृष्टि से सर्वथा मूर्खतापूर्ण है। यशोधर जी खुशी-गम के हर मौके पर रिश्तेदारों के यहाँ जाना ज़रूरी समझते हैं। वह चाहते हैं कि बच्चे भी पारिवारिकता के प्रति उत्साही हों। बच्चे क्रुद्ध ही होते हैं। अभी उस दिन हद हो गयी। कमाऊ बेटे ने यह कह दिया कि आपको बुआ को भेजने के लिए पैसे मैं तो नहीं दूँगा। यशोधर बाबू को कहना पड़ा कि अभी तुम्हारे बब्बा की इतनी साख है कि सौ रुपया उधार ले सकें।
यशोधर जी का नारा है, ‘हमारा तो सैप ही ऐसा देखा ठहरा'- हमें तो यही परम्परा विरासत में मिली है। इस नारे से उनकी पत्नी बहुत चिढ़ती है। पत्नी का कहना है, और सही कहना है कि यशोधर जी का स्वयं का देखा हुआ कुछ भी नहीं है। माँ के मर जाने के बाद छोटी ही उम्र में वह गाँव छोड़कर अपनी विधवा बुआ के पास अल्मोड़ा आ गये थे। बुआ का कोई ऐसा लम्बा-चौड़ा परिवार तो था नहीं जहाँ कि यहाँ यशोधर जी कुछ देखते और परम्परा के रंग में रँगते। मैट्रिक पास करते ही वह दिल्ली आ गये और यहाँ रहे कुँआरे कृष्णानन्द जी के साथ। कुँआरे की गिरस्ती में देखने को होता क्या है? पत्नी आग्रहपूर्वक कहती है कि कुछ नहीं तुम अपने उन किशनदा के मुँह से सुनी-सुनायी बातों को अपनी आँखों देखी यादें बना डालते हो । किशनदा को जो भी मालूम था वह उनका पुराने गँवई लोगों से सीखा हुआ ठहरा। दिल्ली आकर उन्होंने घर-परिवार तो बसाया नहीं जो जान पाते कि कौन से रिवाज निभा सकते हैं, कौन से नहीं। पत्नी का कहना है कि किशनदा तो थे ही जनम के बूढ़े, तुम्हें क्या सुर लगा जो उनका बुढ़ापा ख़ुद ओढ़ने लगे हो? तुम शुरू में तो ऐसे नहीं थे, शादी के बाद मैंने तुम्हें देख जो क्या नहीं रखा है! हफ्ते में दो-दो सिनेमा देखते थे , गज़ल गाते थे गज़ल! गजल हुई और सहगल के गाने।


यशोधर बाबू स्वीकार करते हैं कि उनमें कुछ परिवर्तन हुआ है लेकिन वह समझते हैं कि उम्र के साथ-साथ बुज़ुर्गियत आना ठीक ही है। पत्नी से वह कहते हैं कि जिस तरह तुमने बुढ़याकाल यह बग़ैर बाँह का ब्लाउज़ पहनना, यह रसोई से बाहर दाल-भात खा लेना, यह ऊँची हील वाली सैण्डल पहनना, और ऐसे ही पचासों काम अपनी बेटी की सलाह पर शुरू कर दिये हैं, मुझे तो वे 'समहाउ इम्प्रॉपर' ही मालूम होते हैं। एनीवे मैं तुम्हें ऐसा करने से रोक नहीं रहा । देयरफोर तुम लोगों को भी मेरे जीने के ढंग पर कोई एतराज होना नहीं चाहिए।


यशोधर बाबू को धार्मिक प्रवचन सुनते हुए भी अपना पारिवारिक चिन्तन में ध्यान डूबा रहना अच्छा नहीं लगा। सुबह-शाम सन्ध्या करने के बाद जब वह थोड़ा ध्यान लगाने की कोशिश करते हैं तब भी मन किसी परम सत्ता नहीं, इसी परिवार में लीन होता है। यशोधर जी चाहते हैं कि ध्यान लगाने की सही विधि सीखें तथा साथ ही वह अपने से भी कहते हैं कि परहैप्स ऐसी चीज़ों के लिए 'रिटायर' होने के बाद का समय ही प्रॉपर ठहरा। वानप्रस्थ के लिए प्रेसक्राइब्ड ठहरी ये चीजें। वानप्रस्थ के लिए यशोधर बाबू का अपने पुश्तैनी गाँव जाने का इरादा है रिटायर हो कर। फॉर फ्राम द मैंडिंग क्राउड-समझे!


इस तरह की तमाम बातें यशोधर बाबू पैदाइशी बुजुर्गवार किशनदा के शब्दों में और उनके ही लहजे में कहा करते हैं और कह कर उनकी तरह की वह झेंपी-सी लगभग नकली-सी हँसी हँस देते हैं। जब तक किशनदा दिल्ली में रहे यशोधर बाबू नित्य नियम से हर दूसरी शाम उनके दरबार में हाज़िरी लगाने पहुँचते रहे।


स्वयं किशनदा हर सुबह सैर से लौटते हुए अपने इस मानस पुत्र के क्वार्टर में झाँकना और 'हैल्दी वैल्दी ऐण्ड वाइज़' बन रहा है न भाऊ ऐसा कहना कभी नहीं भूलते। जब यशोधर बाबू दिल्ली आये थे तब उनकी सुबह थोड़ी देर से उठने की आदत थी। किशनदा ने उन्हें रोज़ सुबह झकझोर कर उठाने और साथ सैर में ले जाना शुरू किया और यह मंत्र दिया कि 'अर्ली टु बेड एंड अरली टु राइज मेक्स ए मैन हैल्दी एंड वाइज!' जब यशोधर बाबू अलग क्वार्टर में रहने लगे और अपनी गृहस्थी में डूब गये तब भी किशनदा ने यह देखते रहना ज़रूरी समझा कि भाऊ यानी बच्चा सवेरे जल्दी उठता है कि नहीं ? यशोधर बाबू को यह अच्छा लगता कि कोई उन्हें भाऊ कहता है। हर सवेरे वह किशनदा से अनुरोध करते कि चाय पी कर जाए। किशनदा कभी-कभी इस अनुरोध की रक्षा कर देते। यशोधर बाबू ने किशनदा को घर और दफ्तर में विभिन्न रूपों में देखा है लेकिन किशनदा की जो छवि उनके मन में बसी हुई है वह सुबह को सैर निकले किशनदा की है , कुर्ते पजामे के ऊपर ऊनी गाउन पहने, सिर पर गोल विलायती टोपी और पाँवों में देशी खड़ाऊँ धारण किये हुए और हाथ में (कुत्तों के भगाने के लिए) एक छड़ी लिये हुए।


जब तक किशनदा दिल्ली में रहे तब तक यशोधर बाबू ने उनके पट्टशिष्य और उत्साही कार्यकर्ता की भूमिका पूरी निष्ठा से निभायी। किशनदा के चले जाने के बाद उन्होंने ही उनकी कई परम्पराओं को जीवित रखने की कोशिश की और इस कोशिश में पत्नी और बच्चों को नाराज़ किया। घर मेँ होली गवाना, 'जन्यो पुन्यूं' के दिन सब कुमाऊँनियों को जनेऊ बदलने के लिए अपने घर आमंत्रित करना, रामलीला की तालीम के लिए क्वार्टर का एक कमरा दे देना-ये और ऐसे ही कई और काम यशोधर बाबू ने किशनदा से विरासत में लिये थे। उनकी पत्नी और बच्चों को इन आयोजनों पर होने वाला ख़र्च और इन आयोजनों में होने वाला शोर, दोनों ही सख्त नापसन्द थे। बदतर यही कि इन आयोजनों के लिए समाज में भी कोई ख़ास उत्साह रह नहीं गया है।


यशोधर जी चाहते हैं कि उन्हें समाज का सम्मानित बुज़ुर्ग माना जाय लेकिन जब समाज ही न हो तो यह पद उन्हें क्योंकर मिले? यशोधर जी कहते हैं कि बच्चे मेरा आदर करें और उसी तरह हर बात में मुझसे सलाह लें जिस तरह मैं किशनदा से लिया करता था। यशोधर बाबू डेमोक्रेट हैं और हरगिज़ यह दुराग्रह नहीं करना चाहते कि बच्चे उनके कहे को पत्थर की लकीर समझें। लेकिन यह भी क्या हुआ कि पूछा न ताछा, जिसके मन में जैसा आया, करता रहा । ग्राण्टेड तुम्हारी नॉलेज ज़्यादा होगी लेकिन 'एक्सपीरिएन्स' का कोई सबस्टीट्‌यूट ठहरा नहीं बेटा । मानो न मानो, झूठे मुँह से सही-एक बार पूछ तो लिया करो, ऐसा कहते हैं यशोधर बाबू और बच्चे यही उत्तर देते हैं, "बब्बा , आप तो हद करते हैं , जो बात आप जानते ही नहीं आप से क्यों पूछेँ ?"
प्रवचन सुनने के बाद यशोधर बाबू सब्ज़ीमण्डी गये। यशोधर बाबू को अच्छा लगता अगर उनके बेटे बड़े होने पर अपनी तरफ़ से यह प्रस्ताव करते कि दूध लाना, राशन लाना, सी.जी.एच.एस. डिस्पेन्सरी से दवा लाना, सदर बाज़ार जाकर दालें लाना, पहाड़गंज से सब्ज़ी लाना, डिपो से कोयला लाना ये सब काम आप छोड़ दें, अब हम कर दिया करेंगे , एकाध बार बेटों से ख़ुद उन्होंने ही कहा तब वे एक दूसरे से कहने लगे कि तू किया कर, तू क्यों नहीं करता? इतना कुहराम मचा और लड़कों ने एक दूसरे को इतना ज्यादा बुरा-भला कहा कि यशोधर बाबू ने इस विषय को उठाना भी बन्द कर दिया। जब से बड़ा बेटा विज्ञापन कम्पनी में बड़ी नौकरी पा गया है तब से बच्चों का इस प्रसंग में एक ही वक्तव्य है- "बब्बा हमारी समझ में नहीं आता कि इन कामों के लिए आप एक नौकर क्यों नहीं रख लेते? ईजा को भी आराम हो जाएगा।" कमाऊ बेटा नमक छिड़कते हुए यह भी कहता कि नौकर की तनख्वाह मैं दे दूँगा।


यशोधर बाबू को यही 'समहाउ इम्प्रॉपर' मालूम होता है कि उनका बेटा अपना वेतन उनके हाथ में नहीं रखे । यह सही है कि वेतन स्वयं बेटे के अपने हाथ में नहीं आता, 'एकाउण्ट ट्रान्सफर' द्वारा बैंक में जाता है। लेकिन क्या बेटा बाप के साथ ज्वाइंट एकाउण्ट नहीं खोल सकता था? झूठे मुँह से ही सही, एक बार ऐसा कहता तो । तिस पर बेटे का अपने वेतन को अपना समझते हुए बार-बार कहना कि यह काम मैं अपने पैसे से कर रहा हूँ, आपके से नहीं जो आप नुक्ताचीनी करें। इस क्रम में बेटे ने पिता का यह क्वार्टर तक अपना बना लिया है। अपना वेतन अपने ढंग से वह इस घर पर ख़र्च कर रहा है। कभी कारपेट बिछवा रहा है, कभी पर्दे लगवा रहा है। कभी सोफा आ रहा है। कभी डनलपवाला डबल बैड और सिंगार मेज़। कभी टी.वी. कभी फ्रिज़ क्या हुआ यह? और ऐसा भी नहीं कहता कि लीजिए पिता जी मैं आपके लिए यह टी.वी. ले आया। कहता यही है कि यह मेरा टी.वी. है समझे, इसे कोई न छुआ करे ! क्वार्टर ही उसका हो गया! यह अच्छी रही! अब इनका एक नौकर भी रखो घर में। इनका नौकर होगा तो इनके लिए ही होगा। हमारे लिए तो क्या होगा- ऐसा समझाते हैं यशोधर बाबू घरवाली को । काम सब अपने हाथ से ही ठीक होते हैं। नौकरों को सौंपा कारबार चौपट हुआ । कहते हैं यशोधर बाबू ,पत्नी सुनती है, मगर नहीं सुनती। पर सुनकर अब चिढ़ती भी नहीं। 


सब्ज़ी का झोला लेकर यशोधर बाबू खुदी हुई सड़कों और टूटे हुए क्वार्टरों के मलबे से पटे हुए नालों को पार करके स्क्वायर के उस कोने में पहुँचे जिसमें तीन क्वार्टर अब भी साबुत खड़े हुए थे। उन तीन में से कुल एक को अब तक एक सिलसिला आबाद किये हुए है। बाहर बदरंग तख्ती में उसका नाम लिखा है- वाई.डी. पन्त।


इस क्वार्टर के पास पहुँच कर आज वाई.डी. पन्त को पहले धोखा हुआ कि किसी ग़लत जगह आ गये हैं। क्वार्टर के बाहर एक कार थी, कुछ स्कूटर-मोटर साइकिल। बहुत से लोग विदा ले-दे रहे थे। बाहर बरामदे में रंगीन काग़ज़ की झालरें और गुब्बारे लटके हुए थे और रंगबिरंगी रोशनियाँ जली हुई थीं।


फिर उन्हें अपना बड़ा बेटा भूषण पहचान में आया जिससे कार में बैठा हुआ कोई साहब हाथ मिला रहा था और कह रहा था, 'गिव माइ वार्म रिगाड्‌र्स टु योर फ़ादर।'


यशोधर बाबू ठिठक गए। उन्होंने अपने से पूछा- क्यों आज मेरे क्वार्टर में क्या हो रहा होगा? उसका जवाब भी उन्होंने अपने को दिया- जो करते होंगे यह लौंडे-मौंडे, इनकी माया यही जानें ।


अब यशोधर बाबू का ध्यान इस ओर गया कि उनकी पत्नी और उनकी बेटी भी कुछ मेमसाबों को विदा करते हुए बरामदे में खड़ी हैं , लड़की जीन और बगैर बाँह का टाप पहने है। यशोधर बाबू उससे कई मर्तबा कह चुके हैं कि तुम्हारी यह पतलून और सैण्डो बनने वाली ड्रेस मुझे तो 'समहाउ इम्प्रॉपर' मालूम होती है। लेकिन वह भी जिद्दी ऐसी है कि इसे ही पहनती है। और पत्नी भी उसी की तरफ़दारी करती है। कहती है- वह सिर पर पल्लू-वल्लू मैंने कर लिया बहुत तुम्हारे कहने पर समझे, मेरी बेटी वही करेगी जो दुनिया कर रही है। पुत्री का पक्ष लेने वाली यह पत्नी इस समय होंठों पर लाली और बालों पर खिज़ाब लगाये हुए थी जबकि ये दोनों ही चीज़ें, आप कुछ भी कहिए, यशोधर बाबू को 'समहाउ इम्प्रॉपर' ही मालूम होती हैं।


आधुनिक क़िस्म के अजनबी लोगों की भीड़ देखकर यशोधर बाबू अँधेरे में ही दुबके रहे। उनके बच्चों को इसीलिए शिकायत है कि बब्बा तो 'एल.डी.सी.' टाइपों से ही मिक्स करते हैं।


जब कार वाले लोग चले गये तब यशोधर बाबू ने अपने क्वार्टर में क़दम रखने का साहस जुटाया। भीतर अब भी पार्टी चल रही थी, उनके पुत्र-पुत्रियों के कई मित्र तथा उनके कुछ रिश्तेदार जमे हुए थे। उनके बड़े बेटे ने झिड़की-सी सुनायी, "बब्बा आप भी हद करते है । सिल्वर वेडिंग के दिन साढ़े आठ बजे घर पहुँचे हैं। अभी तक मेरे बॉस आप की राह देख रहे थे।"


"हम लोगों के यहाँ सिल्वर वेडिंग कब से होने लगी है।" यशोधर बाबू ने शर्मीली हँसी हँस दी।


"जब से तुम्हारा बेटा डेढ़ हज़ार माहवार कमाने लगा, तब से।" यह टिप्पणी थी चन्द्रदत्त तिवारी की जो इसी साल एस.ए.एस. पास हुआ है और दूर के रिश्ते से यशोधर बाबू का भांजा लगता है।
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यशोधर बाबू को अपने बेटों से तमाम तरह की शिकायतें हैं लेकिन कुल मिला कर उन्हें यह अच्छा लगता है कि लोग-बाग उन्हें ईर्ष्या का पात्र समझते हैं। भले ही उन्हें भूषण का ग़ैर-सरकारी नौकरी करना समझ में न आता हो तथापि वह यह बख़ूबी समझते हैं कि इतनी छोटी उम्र में डेढ़ हज़ार माहवार प्लस कन्वेएंस एलाउन्स ऐण्ड तुम्हारा अदर वर्क्स पा जाना कोई मामूली बात नहीं है। इसी तरह भले ही यशोधर बाबू ने बेटों की ख़रीदी हुई हर नयी चीज़ के सन्दर्भ में यही टिप्पणी की हो कि ये क्या हुई ,समहाउ मेरी तो समझ में आता नहीं। इसकी क्या ज़रूरत थी, तथापि उन्हें कहीं इस बात से थोड़ी ख़ुशी भी होती है कि इस चीज़ के आ जाने से उन्हें नये दौर के, निश्चय ही ग़लत, मानकों के अनुसार बड़ा आदमी मान लिया जा रहा है। मिसाल के लिए जब बेटों ने गैस का चूल्हा जुटाया तब यशोधर बाबू ने उसका विरोध किया और आज भी वह यही कहते हैं कि इस पर बनी रोटी मुझे तो समहाउ रोटी जैसी लगती नहीं, तथापि वह जानते हैं , गैस न होने पर इन नगर में चपरासी श्रेणी के मान लिये जाते। इस तरह फ्रिज़ के सन्दर्भ में आज भी यशोधर बाबू यही कहते हैं कि मेरी समझ में आज तक यह नहीं आया कि इसका फ़ायदा क्या है? बासी खाना खाना अच्छी आदत नहीं ठहरी। और यह ठहरा इसी काम का कि सुबह बना के रख दिया और शाम को खाया। इसमें रखा हुआ पानी भी मेरे मन को तो भाता नहीं, गला पकड़ लेता है। कहते हैं, मगर इस बात से सन्तुष्ट होते हैं कि घर आये साधारण हैसियत वाले मेहमान इस फ्रिज़ का पानी पीकर अपने को धन्य अनुभव करते हैं।


अपनी सिल्वर वैडिंग की यह भव्य पार्टी भी यशोधर बाबू को 'समहाउ इम्प्रॉपर' ही लगी तथापि उन्हें इस बात से सन्तोष हुआ कि जिस अनाथ यशोधर के जन्मदिन तक पर कभी लड्‌डू नहीं आए , जिसने अपने विवाह भी कोऑपरेटिव से दो-चार हज़ार कर्ज़ा निकालकर किया बगैर किसी ख़ास धूमधाम के, उसके विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर केक, चार तरह की मिठाई, चार तरह की नमकीन, फल, कोल्डडिंरक्स, चाय सब कुछ मौजूद है।


गिरीश बोला, मुझे आज सुबह बैठे-बैठे याद आयी कि आपकी शादी छह फ़रवरी सन्‌ सैंतालिस को हुई थी और इस हिसाब से आज उसे पच्चीस साल पूरे हो गये हैं। मैंने आपके दफ्तर फ़ोन किया लेकिन शायद आपका फ़ोन ख़राब था। तब मैंने भूषण को फ़ोन किया। भूषण ने कहा, "शाम को आ जाइए, पार्टी करते हैं। मैं अपने बॉस को भी बुला लूँगा इसी बहाने।"


गिरीश यशोधर बाबू की पत्नी का चचेरा भाई है। बड़ी कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर है और इसकी सहायता से ही यशोधर बाबू को अपना यह सम्पन्न साला समहाउ भयंकर ओछाट यानी ओछेपन का धनी मालूम होता है। उन्हें लगता है कि इसी ने भूषण को बिगाड़ दिया है। कभी कहते हैं ऐसा तो पत्नी बरस पड़ती है- जिन्दगी बना दी तुम्हारे सेकेण्ड क्लास बी.ए. बेटे की, कहते हो बिगाड़ दिया।


भूषण ने अपने मित्रों-सहयोगियों का यशोधर बाबू से परिचय कराना शुरू किया। उनकी "मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ़ द डे" का "थैंक्यू" कहकर जवाब देते हुए, जिन लोगों का नाम पहले बता दिया गया हो उनकी ओर "वाई.डी. पन्त, होम मिनिस्ट्री, भूषण्स फादर" कह कर स्वयं हाथ बढ़ा देने में यशोधर बाबू ने हरचन्द यह जताने की कोशिश की कि भले ही वह सरकारी कुमाऊँनी हैं तथापि विलायती रीति-रिवाज़ से भी भलीभाँति परिचित हैं। किशनदा कहा करते थे कि आना सब कुछ चाहिए, सीखना हर एक की बात ठहरी , लेकिन अपनी छोड़ना नहीं हुई। टाई-सूट पहनना आना चाहिए लेकिन धोती कुर्ता अपनी पोशाक है यह नहीं भूलना चाहिए।


अब बच्चों ने एक और विलायती परम्परा के लिए आग्रह किया- यशोधर बाबू अपनी पत्नी के साथ केक काटें। घरवाली पहले थोड़ा शरमायी लेकिन जब बेटी ने हाथ खींचा तब उसे केक के पीछे जा खड़ा होने में कोई हिचक नहीं हुई, वहीं से उसने पति को भी पुकारा।


यशोधर बाबू को केक काटना बचकानी बात मालूम हुई। बेटी उन्हें लगभग खींचकर ले गयी। यशोधर बाबू ने कहा, "समहाउ आई डोँट लाइक ऑल दिस ।" लेकिन एनीवे उन्होंने केक काट ही दिया। गिरीश ने उसकी यह अनमनी किन्तु सन्तुष्ट छवि कैमरे में कैद कर ली। अब पति-पत्नी से कहा गया कि वे केक से मुँह मीठा करें एक-दूसरे का। पत्नी ने खा लिया मगर यशोधर बाबू ने इन्कार कर दिया। उनका कहना था कि मैं केक खाता नहीं। इसमें अण्डा पड़ा होता है। उन्हें याद दिलाया गया कि अभी कुछ वर्षों पहले तक आप मांसाहारी थे एक टुकड़ा केक खा लेने में क्या हो जाएगा? लेकिन वह नहीं माने। तब उनसे अनुरोध किया गया कि लड्डु ही खा लें। भूषण के एक मित्र ने लड्डु उठा कर उनके मुँह में ठूँसने का यत्न किया। लेकिन यशोधर बाबू इसके लिए भी राजी नहीं हुए। उनका कहना था कि मैंने अब तक संध्या नहीं की है। इस पर भूषण ने झुँझलाकर कहा, "तो बब्बा पहले जाकर संध्या कीजिए आप की वजह से हम लोग कब तक रुके रहेंगे।"
"नहीं , नहीं , आप सब खाइए," यशोधर बाबू ने बच्चों के दोस्तों से कहा, "प्लीज़ गो अहेड । नो फारमैल्टी।"


यशोधर बाबू ने आज पूजा में कुछ ज्यादा ही देर लगायी। इतनी देर कि ज्यादातर मेहमान उठ कर चले गए।

उनकी पत्नी, उनके बच्चे, बारी-बारी से आकर झाँकते रहे और कहते रहे-जल्दी कीजिए मेहमान लोग जा रहे हैं।


शाम की पन्द्रह मिनट की पूजा को लगभग पच्चीस मिनट तक खींच लेने के बाद भी जब बैठक से मेहमानों की आवाजे आती सुनाई दीं तब यशोधर बाबू पद्मसन साधकर ध्यान लगाने बैठ गये। वह चाहते थे कि उन्हें प्रकाश का एक नीला बिन्दु दिखाई दे मगर उन्हें किशनदा दिखाई दे रहे थे।


यशोधर बाबू किशनदा से पूछ रहे थे कि 'जो हुआ होगा' से आप कैसे मर गये? किशनदा कह रहे थे कि भाऊ सभी जन इसी 'जो हुआ होगा' से मरते हैं। गृहस्थ हों, ब्रह्मचारी हों, अमीर हों, ग़रीब हों मरते 'जो हुआ होगा' से ही हैं। हाँ-हाँ, शुरू में और आखिर में, सब अकेले ही होते हैं, अपना कोई नहीं ठहरा दुनिया में, बस एक अपना नियम अपना हुआ।


यशोधर बाबू पाज़ामा-कुर्ता पर ऊनी ड्रेसिंग गाउन पहने, सिर पर गोल विलायती टोपी, पाँवों में देशी खड़ाऊँ और हाथ में डण्डा धारण किये इस किशनदा से अकेलेपन के विषय में बहस करनी चाही, उनका विरोध करने के लिए नहीं बल्कि बात कुछ और अच्छी तरह समझने के लिए।


हर रविवार किशनदा शाम को ठीक चार बजे यशोधर बाबू के घर आया करते थे। उनके लिए गरमागरम चाय बनवायी जाती थी। उनका कहना था कि जिसे फूँक मारकर न पीना पड़े वह चाय कैसी। चाय सुड़कते हुए किशनदा प्रवचन करते थे और यशोधर बाबू बीच-बीच में शंकाएँ उठाते थे।


यशोधर बाबू को लगता है कि किशनदा आज भी मेरा मार्ग दर्शन कर सकेंगे और बता सकेंगे कि मेरे बीवी बच्चे जो कुछ भी कर रहे हैं उसके विषय में मेरा रवैया क्या होना चाहिए?

लेकिन किशन दा तो वही अकेलेपन का खटराग अलापने पर आमादा से मालूम होते हैं।

कैसी बीवी , कहाँ के बच्चे , यह सब माया ठहरी और यह जो भूषण तेरा आज इतना उछल रहा है वह भी किसी दिन इतना ही अकेला और असहाय अनुभव करेगा,जितना कि आज तू कर रहा है।


यशोधर बाबू बात आगे बढ़ाते लेकिन उनकी घर वाली उन्हें झिड़कते हुए आ पहुँची कि क्या आज पूजा में ही बैठे रहोगे । यशोधर बाबू आसन से उठे और उन्होंने दबे स्वर में पूछा-"मेहमान गये?" पत्नी ने बताया ,कुछ गये, कुछ हैं। उन्होंने जानना चाहा कि कौन-कौन हैं? आश्वस्त होने पर कि सभी रिश्तेदार ही हैं वह उसी लाल गमछे में बैठक में चले गये जिसे पहन कर वह संध्या करने बैठे थे। यह गमछा पहनने की आदत भी उन्हें किशनदा से विरासत में मिली है और उनके बच्चे इसके सख्त ख़िलाफ़ हैं।


"एवरीबडी गॉन, पार्टी ओवर?" यशोधर बाबू ने मुस्कराकर अपनी बेटी से पूछा, "अब गोया गमछा पहने रहा जा सकता है?"


उनकी बेटी झल्लायी ,"लोग चले गये इसका मतलब यह थोड़ी है कि आप गमछा पहन कर बैठक में आ जाएँ। बब्बा ,यू आर द लिमिट।"


"बेटी, हमें जिसमें सज आयेगी वहीं करेंगे ना, यशोधर बाबू ने कहा, तुम्हारी तरह जीन पहन कर हमें तो सज आती- नहीं।"


यशोधर बाबू की दृष्टि मेज़ पर रखे कुछ पैकेटों पर पड़ी। बोले, "ये कौन भूले जा रहा है?"

भूषण बोला, "आपके लिए प्रेजेँट हैं, खोलिए ना।"

"अह , इस उम्र में क्या हो रहा प्रेजेँट-वरजैंट! तुम खोलो , तुम्हीं इस्तेमाल करो।" यशोधर बाबू शर्मीली हँसी हँसे।
भूषण ने सब से बड़ा पैकेट उठा कर और उसे खोलते हुए बोला, "इसे तो ले लीजिए। यह मैं आपके लिए लाया हूँ। ऊनी ड्रेसिंग गाउन है। आप सवेरे जब दूध लेने जाते हैं बब्बा , फटा पुलोवर पहन के चले जाते हैं जो बहुत ही बुरा लगता है। आप इसे पहन के जाया कीजिए।"
बेटी पिता का पाजामा-कुर्ता उठा लायी कि इसे पहन कर गाउन पहनें। थोड़ा-सा ना-नुच करने के बाद यशोधर जी ने इस आग्रह की रक्षा की। गाउन का सैश कसते हुए उन्होंने कहा, "अच्छा तो यह ठहरा ड्रेसिंग गाउन।"
उन्होंने कहा और उनकी आँखों की कोर में ज़रा-सी नमी चमक गयी।
यह कहना मुश्किल है कि इस घड़ी उन्हें यह बात चुभ गई कि उनका जो बेटा यह कह रहा है कि आप सवेरे यह ड्रेसिंग गाउन पहन कर दूध लाने जाया करें, वह यह नहीं कर रहा है कि दूध मैं ला दिया करूँगा या कि इस गाउन को पहन कर उनके अंगों में वह किशनदा उतर आया है जिसकी मौत 'जो हुआ होगा' से हुई।

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