बुधवार, 13 दिसंबर 2017

अतीत मेँ दबे पाँव (ओम थानवी )

भी भी मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं, दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। ये सिंधु घाटीसभ्यता के परवर्ती यानी परिपक्व दौर के शहर हैं। खुदाई में और शहर भी मिले हैं। लेकिन मुअनजो-दड़ो ताम्र काल के शहरों मेँ सबसे बड़ा है। वह सबसे उत्कृष्ट भी है। व्यापक खुदाई यहीं पर संभव हुई। बड़ी तादाद में इमारतें, सड़केँ , धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भांडे , मुहरें, साज़ो-सामान और खिलौने
आदि मिले। सभ्यता का अध्ययन संभव
हुआ। उधर सैकड़ोँ मील दूर हड़प्पा के ज्यादातर साक्ष्य रेललाइन बिछने के दौरान 'विकास की भेंट चढ़ गए ।'

मुअनजो-दड़ो के बारे में धारणा है कि अपने दौर में वह घाटी की सभ्यता का केँद्र
रहा होगा। यानी एक तरह की राजधानी। माना जाता है यह शहर दो सौ हैक्टर क्षेत्र में फैला था। आबादी कोई पंचासी हजार थी। जाहिर है, पाँच हजार साल पहले यह 
आज के 'महानगर' की परिभाषा को भी लाँघता होगा।

दिलचस्प बात यह है कि सिंधु घाटी मैदान की संस्कृति थी, पर पूरा मुअनजो-दड़ो छोटे-मोटे टीलों पर आबाद था। ये टीले प्राकृतिक नहीं थे। कच्ची और पक्की दोनों तरह की ईंटों से धरती की 
सतह को ऊँचा उठाया गया था , ताकि सिंधु का पानी बाहर पसर आए तो उससे बचा जा सके ।
मुअनजो -दड़ो की एक गली
मुअनजो-दड़ो की खूबी यह है
कि इस आदिम शहर की
सड़कोँ और गलियोँ मेँ आप
आज भी घूम-फिर सकते हैँ ।
यहाँ की सभ्यता और संस्कृति
का सामान भले अजायबघरोँ
की शोभा बढ़ा रहा हो ,शहर
जहाँ था अब भी वहीँ है । आप
इसकी किसी भी दीवार पर
पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैँ
। वह एक खंडहर क्योँ न हो ,
किसी घर की देहरी पर पाँव
रखकर आप सहसा सहम
सकते हैँ , रसोई की खिड़की
पर खड़े होकर उसकी गंध
महसूस कर सकते हैँ ।

03 9
मुअनजो-दड़ो की
एक मुख्य सड़क
जो 33 फीट
चौड़ी है

या शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान देकर उस
बैलगाड़ी की रुन-झुन सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्व
की तसवीरों मेँ मिट्टी के रंग में देखा है। सच है कि यहाँ किसी आँगन की टूटी-फूटी
सीढ़ियाँ अब आपको कहीं नहीं ले जातीं; वे आकाश की तरफ़
अधूरी रह जाती हैं। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े
होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की
छत पर हैं; वहाँ से आप इतिहास को नहीं, उसके पार
झाँक रहे हैं।

सबसे ऊँचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है। मगर यह
मुअनजो-दड़ो की सभ्यता के बिखरने के बाद एक जीर्ण-
शीर्ण टीले पर बना। कोई पचीस फुट ऊँचे चबूतरे पर
छब्बीस सदी पहले बनी ईंटों
के दम पर स्तूप को आकार
दिया गया। चबूतरे पर
भिक्षुओँ के कमरे भी हैं। 1922
में जब राखालदास बनर्जी
यहाँ आए, तब वे इसी स्तूप
की खोजबीन करना चाहते
थे। इसके गिर्द खुदाई शुरू
करने के बाद उन्हेँ इलहाम
हुआ कि यहाँ ईसा पूर्व के
निशान हैं। भारतीय पुरातत्त्व
सर्वक्षण के महानिदेशक जॉन
मार्शल के निर्दश पर खुदाई का
व्यापक अभियान शुरू हुआ।
धीमे-धीमे यह खोज विशेषज्ञों
को सिंधु घाटी सभ्यता की
देहरी पर ले आई। इस खोज
ने भारत को मिस्र और
मेसोपोटामिया (इराक) की
प्राचीन सभ्यताओं के समकक्ष
ला खड़ा किया। दुनिया की
प्राचीन सभ्यता होने के
भारत के दावे को पुरातत्त्व का
वैज्ञानिक आधार मिल गया।

पर्यटक बँगले से एक सर्पिल
पगडंडी पार कर हम सबसे
पहले इसी स्तूप पर पहुँचे।
पहली ही झलक ने हमेँ अपलक
कर दिया। इसे नागर भारत
का सबसे पुराना लैंडस्केप
कहा गया है। यह शायद
सबसे रोमाँचक भी है। न
आकाशा बदला है ,न धरती ।
पर कितनी सभ्यताएँ ,
इतिहास और कहानियाँ बदल
गईँ । इस ठहरे हुए दृश्य मेँ
हज़ारोँ साल से लेकर पलभर
पहले तक की धड़कन बसी
हुई है । इसे देखकर सुना जा
सकता है । भले ही किसी
जगह के बारे मेँ हमने कितना
पढ़-सुन रखा हो , तसवीरेँ
या वृत्तचित्र देखे होँ , देखना
अपनी आँख से देखना है।
बाकी सब आँख का झपकना
है। जैसे यात्रा अपने पाँव
चलना है, बाकी सब तो
कदम-ताल है।

मौसम जाड़े का था पर दुपहर
की धूप बहूत कड़ी थी। सारे
आलम को जैसे एक फीके
रंग मेँ रंगने की कोशिश करती
हुई । यह इलाका राजस्थान
से बहूत मिलता-जुलता है।
रेत के टीले नहीं हैं। खेतों का
हरापन यहाँ है। मगर बाकी
वही खुला आकाश, सूना
परिवेश; धूल, बबूल और
ज्यादा ठंड, ज्यादा गरमी।
मगर यहाँ की धूप का मिजाज़
जुदा है। राजस्थान की धूप
पारदर्शी है। सिंध की धूप
चौँधियाती है। तसवीर
उतारते वक्त आप कैमरे में
ज़रूरी पुर्ज़े न घुमाएँ तो ऐसा
जान पड़ेगा जैसे दूश्योँ के रंग
उड़े हुए हों।

पर इससे एक फ़ायदा हुआ।
हमें हर दृश्य पर नज़रें
दुबारा फिरानी पड़ती । इस
तरह बार-बार निहारेँ तो
दृश्य जेहन में ऐसे ठहरते हैं
मानो तसवीर देखकर उनकी
याद ताज़ा करने की कभी
ज़रूरत न पड़े।

स्तूप वाला चबूतरा मुअनजो- दड़ो के सबसे खास हिस्से के एक सिरे पर स्थित है। इस हिस्से को पुरातत्व के विद्वान 'गढ़' कहते हैं। चारदीवारी के भीतर ऐतिहासिक शहरों के
सत्ता-केँद्र अवस्थित होते थे, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता। बाकी शहर गढ़ से
कुछ दूर बसे होते थे। क्या यह रास्ता भी दुनिया को मुअनजो
-दड़ो ने दिखाया?

मुअनजो-दड़ो मेँ बौद्ध स्तूप
सभी अहम और अब दुनिया-भर मेँ प्रसिद्ध इमारतों के
खंडहर चबूतरे के पीछे यानी पश्चिम मेँ हैं। इनमें 'प्रशासनिक' इमारतें, सभा भवन, ज्ञानशाला और कोठार हैं। वह अनुष्ठानिक महाकुंड भी जो सिंधु घाटी सभ्यता के अद्वितीय वास्तुकौशल को
स्थापित करने के लिए अकेला ही काफ़ी भाना जाता है। असल मेँ यहाँ यही एक निर्माण है जो अपने मूल स्वरूप के बहुत नज़दीक बचा रह सका है। बाकी इमारतें इतनी उजड़ी हुई हैं कि कल्पना
और बरामद चीज़ोँ के जोड़ से उनके उपयोग का अंदाजा भर लगाया जा सकता है।

नगर नियोजन की मुअनजो-दड़ो अनूठी मिसाल है। इस कथन का मतलब आप बड़े चबूतरे से नीचे की तरफ़ देखते हुए सहज ही भाँप सकते हैं। इमारतें भले खंडहरों मेँ बदल चुकी हों मगर 'शहर' की सड़कों और गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिए ये खंडहर काफ़ी हैं। यहाँ की कमोबेश सारी सड़केँ सीधी हैं या फिर आड़ी। आज वास्तुकार इसे 'ग्रिड प्लान' कहते हैं। आज की
सेक्टर-मार्का कॉलोनियों में हमेँ आड़ा-सीधा 'नियोजन' बहुत मिलता है। लेकिन वह रहन-सहन को नीरस बनाता है। शहरों में नियोजन के नाम पर भी हमेँ अराजकता ज्यादा हाथ लगती है। ब्रासीलिया या
चंडीगढ और इस्लामाबाद 'ग्रिड' शैली के शहर हैं जो आधुनिक नगर नियोजन के प्रतिमान ठहराए जाते हैं, लेकिन उनकी बसावट शहर के खुद विकसने का कितना अवकाश छोड़ती है इस पर
बहुत शंका प्रकट की जाती है ।

मुअनजो-दड़ो की साक्षर सभ्यता एक सुसंस्कृत समाज की स्थापना थी , लेकिन उसमेँ नगर नियोजन और वास्तुकला की आखिर कितनी भूमिका थी ?

स्तूप वाले चबूतरे के पीछे 'गढ़' और ठीक सामने 'उच्च' वर्ग की बस्ती है । उसके पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंधु बहती है । पूरब की इस बस्ती से दक्षिण की तरफ़ नज़र दौड़ाते हुए पूरा पीछे घूम जाएँ तो आपको मुअनजो-दड़ो के खंडहर हर जगह दिखाई देँगे । दक्षिण मेँ जो टूटे -फूटे घरोँ का जमघट है , वह कामगारोँ की बस्ती है। कहा जा सकता है इतर वर्ग की। संपन्न समाज में वर्ग भी होंगे। लेकिन क्या निम्न वर्ग यहाँ नहीं था? कहते हैं, निम्न वर्ग के घर इतनी मज़बूत सामग्री के नहीं रहे होंगे कि पाँच हजार साल टिक सके। उनकी बस्तियाँ और दूर रही होंगीं। यह भी है कि सौ साल में अब तक इस इलाके के एक-तिहाई हिस्से की खुदाई ही हो पाई है। अब वह भी बंद हो चुकी है।

हम पहले स्तूप के टीले से महाकुंड के विहार की दिशा में उतरे। दाईँ तरफ़ एक लंबी
गली दीखती है। इसके आगे महाकुंड है। पता नहीं सायास है या संयोग कि धरोहर के
प्रबंधकों ने उस गली का नाम दैव मार्ग (डिविनिटि स्ट्रीट) रखा है। माना जाता है कि उस सभ्यता में सामूहिक स्नान किसी अनुष्ठान का अंग होता था। कुंड करीब चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। गहराई सात फुट । कुंड में उत्तर और दक्षिण से सीढियाँ उतरती हैं। इसके तीन तरफ़ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं। उत्तर में दो पाँत में आठ स्नानघर हैं। इनमें
किसी का द्वार दूसरे के सामने नहीं खुलता। सिद्ध वास्तुकला का यह भी एक नमूना है।

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मुअनजो-दड़ो का
प्रसिद्ध जल कुंड

इस कुंड में खास बात पक्की ईँटों का जमाव है। कुंड का पानी रिस न सके और बाहर
का 'अशुद्ध' पानी कुंड में न आए, इसके लिए कुंड के तल में और दीवारों पर ईँटों के
बीच चूने और चिरोड़ी के गारे का इस्तेमाल हुआ है। पार्श्व की दीवारों के साथ दूसरी दीवार खड़ी की गई है जिसमेँ सफ़ेद डामर का प्रयोग है । कुंड के पानी के बंदोबस्त के लिए एक तरफ़ कुआँ है । दोहरे घेरे वाला यह अकेला कुआँ है । इसे भी कुंड के पवित्र या अनुष्ठानिक होने का प्रमाण माना गया है । कुंड से पानी को बाहर बहाने के लिए नालियाँ हैँ । इनकी खासियत यह है कि ये भी पक्की ईंटोँ से बनी हैँ और ईंटोँ से ढ़की भी हैँ ।

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जल निकासी का
उन्नत प्रबंध जो
सिंधु घाटी की
अनूठी विशेषता है ।

पक्की और आकार में समरूप धूसर ईँटेँ तो सिंधु घाटी सभ्यता की विशिष्ट पहचान मानी ही गई हैं, ढकी हुई नालियों का उल्लेख भी
पुरातात्त्विक विद्वान और इतिहासकार ज़ोर देकर करते हैं। पानी-निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहल के इतिहास में नहीं मिलता।

महाकुंड के बाद हमने 'गढ़' की 'परिक्रमा' की। कुंड के
दूसरी तरफ़ विशाल कोठार है। कर के रूप में हासिल अनाज शायद यहाँ जमा किया जाता था। इसके निर्माण रूप खासकर चौकियों और हवादारी को देखकर ऐसा कयास लगाया गया है । यहाँ नौ-नौ चौकियोँ की तीन कतारेँ हैँ । उत्तर मेँ एक गली है जहाँ बैलगाड़ियोँ का -जिनके प्रयोग के साक्ष्य मिले हैँ -ढ़ुलाई के लिए आवागमन होता होगा । ठीक इसी तरह का कोठार हड़प्पा मेँ भी पाया गया है ।

अब यह जगज़ाहिर है कि सिंधु घाटी के दौर मेँ व्यापार ही नहीँ ,उन्नत खेती भी होती थी । बरसोँ यह माना जाता रहा कि सिंधु घाटी के लोग अन्न उपजाते नहीं थे, उसका आयात करते थे। नयी खीज ने इस खयाल को निर्मूल साबित किया है। बल्कि अब कुछ विद्वान मानते हैं कि वह मूलत: खेतिहर और
पशुपालक सभ्यता ही थी। लोहा शुरू मेँ नहीं था पर पत्थर और ताँबे की बहुतायत थी। पत्थर
सिंध मेँ ही था, ताँबे की खानें राजस्थान मेँ थीं। इनके उपकरण खेती-बाड़ी मेँ प्रयोग किए जाते थे। जबकि मिस्र और सुमेर मेँ चकमक और लकड़ी के उपकरण इस्तेमाल होते थे। इतिहासकार इरफान हबीब के मुताबिक यहाँ के लोग रबी की फ़सल लेते थे। कपास, गेहूँ , जौ, सरसों और चने की उपज के पुख्ता सबूत खुदाई मेँ मिले हैं। वह सभ्यता का तर-युग था जो धीमे-धीमे सूखे मेँ ढल गया।

विद्वानों का मानना है कि यहाँ ज्वार, बाजरा और रागी की उपज भी होती थी। लोग खजूर, खरबूज़े और अंगूर उगाते थे। झाडियों से बेर जमा करते थे। कपास की खेती भी होती थी। कपास को छोड़कर बाकी सबके बीज मिले हैं और उन्हेँ परखा गया है। कपास के बीज तो नहीं, पर सूती कपड़ा मिला है। ये दुनिया मेँ सूत के दो सबसे पुराने नमूनों मेँ एक है।
दूसरा सूती कपड़ा तीन हजार ईसा पूर्व का है जो जॉर्डन मेँ मिला। मुअनजो-दड़ो मेँ सूती की कताई-बुनाई के साथ रंगाई भी होती थी। रंगाई का एक छोटा कारखाना खुदाई मेँ माधोस्वरूप वत्स को मिला था। छालटी (लिनन) और ऊन कहते हैं यहाँ सुमेर से आयात होते थे। शायद
सूत उनको निर्यात होता हो। जैसा कि बाद मेँ सिंध से मध्य एशिया और यूरोप को सदियों
हुआ। प्रसंगवश , मेसोपोटामिया के शिलालेखोँ मेँ मुअनजो-दड़ो के लिए 'मेलुहा' शब्द का संभावित प्रयोग मिलता है ।

महाकुंड के उत्तर -पूर्व मेँ एक बहुत लंबी-सी इमारत के अवशेष हैँ । इसके बीचोँबीच खुला बड़ा दालान है । तीन तरफ़ बरामदे हैँ । इनके साथ कभी छोटे-छोटे कमरे रहे होँगे । पुरातत्त्व के जानकार कहते हैँ कि धार्मिक अनुष्ठानोँ मेँ ज्ञानशालाएँ सटी हुई होती थीँ , उस नज़रिए से इसे 'कॉलेज ऑफ प्रीस्ट्स' माना जा सकता है । दक्षिण मेँ एक और भग्न इमारत है । इसमेँ बीस खंभोँ वाला एक बड़ा हॉल है । अनुमान है कि यह राज्य सचिवालय , सभा -भवन या कोई सामुदायिक केँद्र रहा होगा ।

गढ़ की चारदीवारी लाँघ कर हम बस्तियोँ की तरफ़ बढ़े । ये 'गढ़' के मुकाबले छोटे टीलोँ पर बनी हैँ , इसलिए इन्हेँ 'नीचा नगर' कहकर भी पुकारा जाता है । खुदाई की प्रक्रिया मेँ टीलोँ का आकार घट गया है , कहीँ-कहीँ वे फिर ज़मीन से जा मिले हैँ और बस्ती के कुएँ ,लगता है जैसे मीनारोँ की शक्ल मेँ धरती छोड़कर बाहर निकल आए हैँ ।

पूरब की बस्ती 'रईसोँ की बस्ती ' है । हालाँकि आज के युग मेँ पूरब की बस्तियाँ गरीबोँ की बस्तियाँ मानी जाती हैँ । मुअनजो -दड़ो इसका उलट था । यानी बड़े घर ,चौड़ी सड़केँ , ज्यादा कुएँ। मुअनजो-दड़ो के सभी खंडहरों को खुदाई कराने वाले पुरातत्त्ववेत्ताओं का संक्षिप्त नाम दे दिया गया है। जैसे 'डीके' हलका-दीक्षित काशीनाथ की खुदाई । उनके नाम पर यहाँ दो हलके
हैं। 'डीके' क्षेत्र दोनों बस्तियों में सबसे महत्वपूर्ण हैं। शहर की मुख्य सड़क (फ़र्स्ट स्ट्रीट) यहीं पर है। यह बहुत लंबी सड़क है , मानो कभी पूरे शहर को नापती हो। अब यह आधा मील बची है। इसकी चौड़ाई तैँतीस फ़ुट है। मुअनजो-दड़ो से तीन तरह के वाहनों के साक्ष्य मिले हैं। इनमें सबसे चौड़ी बैलगाड़ी रही होगी। इस सड़क पर दो बैलगाडियाँ एक साथ आसानी से आ-जा सकती हैं। यह सड़क वहाँ पहुँचती है, जहाँ कभी 'बाजार' था।

इस सड़क के दोनों ओर घर हैं। लेकिन सड़क की ओर सारे
घरों की सिर्फ पीठ दिखाई देती है। यानी कोई घर सड़क पर नहीं खुलता; उनके दरवाज़े अंदर गलियों में हैं। दिलचस्प संयोग है कि
चंडीगढ मेँ ठीक यही शैली पचास साल पहले कार्बूजिए ने
इस्तेमाल की। वहाँ भी कोई घर मुख्य सड़क पर नहीं खुलता। आपको किसी के घर जाने के लिए मुख्य सड़क से पहले सेक्टर के भीतर दाखिल होना पड़ता है, फिर घर की गली मेँ, फिर घर में। क्या कार्बूजिए ने यह सीख मुअनजो-दड़ो से ली? कहते हैं, कविता मेँ से कविता निकलती है। कलाओं की तरह वास्तुकला मेँ भी कोई प्रेरणा चेतन-अवचेतन ऐसे ही सफ़र करती होगी!

ढकी हुईं नालियाँ मुख्य सड़क के दोनों तरफ़ समांतर दिखाई
देती हैं। बस्ती के भीतर भी इनका यही रूप है। हर घर मेँ एक स्नानघर है। घरों के भीतर से पानी या मैल की नालियाँ बाहर हौदी तक आती हैं और फिर नालियों के जाल से जुड़ जाती हैं। कहीँ-कहीँ से खुली हैं पर ज्यादातर बंद हैं। स्वास्थ्य के प्रति मुअनजो-दड़ो के बाशिंदोँ के सरोकारो का यह बेहतर उदाहरण है । बस्ती के भीतर छोटी सड़केँ हैँ और उनसे छोटी गलियाँ भी । छोटी सड़केँ नौ से बारह फ़ुट तक चौड़ी हैँ । इमारतोँ से पहले जो चीज़ दूर से ध्यान खीँचती हैँ ,वह है कुओँ का प्रबधं । ये कुएँ भी पकी हुई एक ही आकार की ईँटो से बने हैँ । इतिहासकार कहते हैँ सिंधु घाटी सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोद कर भू-जल तक पहुँची।
उनके मुताबिक केवल मुअनजो-दड़ो में सात सौ के करीब कुएँ थे।

07 6
मुअनजो -दड़ो
का एक कुआँ

नदी, कुएँ, कुंड, स्नानागार और बेजोड़ पानी-निकासी। क्या सिंधु घाटी सभ्यता को
हम जल-संस्कृति कह सकते हैं?

बड़ी बस्ती में पुरातत्त्वशास्त्री काशीनाथ दीक्षित के नाम पर एक हलका 'डीके-जी' कहलाता है। इसके घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। मोटी दीवार का अर्थ यह लगाया जाता है कि उस पर दूसरी मंजिल भी रही होगी। कुछ दीवारों मेँ छेद हैं जो संकेत देते हैं कि दूसरी मंजिल उठाने के लिए शायद यह शहतीरों की जगह हो। सभी घर ईंट के हैं। एक ही आकार की ईंटें-1:2:4 के अनुपात की । सभी भट्टी मेँ पकी हुईँ । हड़प्पा से हटकर , जहाँ पक्की और कच्ची ईँटोँ का मिला-जुला निर्माण उजागर हुआ है । मुअनजो -दड़ो मेँ पत्थर का प्रयोग मामूली हुआ । कहीँ-कहीँ नालियाँ ही अनगढ़ पत्थरोँ से ढकी दिखाई दीँ ।

इन घरों मेँ दिलचस्प बात यह है कि सामने की दोबार मेँ केवल प्रवेश द्वार बना है, कोई खिड़की नहीं है। खिड़कियाँ शायद ऊपर की दीवार मेँ रहती हों, यानी दूसरी मंजिल पर । बड़े घरों के भीतर आँगन के चारों तरफ़ बने कमरों मेँ खिड़कियों ज़रूर हैं। बड़े आँगन वाले घरों के बारे मेँ समझा जाता है कि वहॉ कुछ उद्यम होता होगा। कुम्हारी का काम या कोई धातु-कर्म । हालाँकि सभी घर
खंडहर हैं और दिखाई देने वाली चीजों से हम सिर्फ़ अंदाजा लगा सकते हैं।

घर छोटे भी हैं और बड़े भी। लेकिन सब घर एक कतार मेँ
हैं। ज्यादातर घरों का आकार तकरीबन तीस-गुणा-तीस फुट का होगा। कुछ इससे दुगने और तिगुने आकार के भी हैं। इनकी वास्तु शैली कमोबेश एक-सी प्रतीत होती है। व्यवस्थित और नियोजित
शहर में शायद इसका भी कोई कायदा नगरवासियों पर लागू हो। एक घर को 'मुखिया' का घर कहा जाता है। इसमें दो आँगन और करीब बीस कमरे हैं।

डीके-बी, सी हलका आगे पूरब मेँ है। दाढ़ी वाले 'याजक-नरेश' की मूर्ति इसी तरफ़ के एक घर से मिली थी। डीके-जी की "मुख्य सड़क" पर दक्षिण की ओर बढ़े तो डेढ़ फर्लाँग की दूरी पर
'एचआर' हलका है। सड़क उसे दो भागों मेँ बॉट देती है। ये हलका हेरल्ड हरग्रीव्ज के नाम पर है जिन्होंने 1924-25 मेँ राखालदास बनर्जी के बाद खुदाई करवाई थी। यहीं पर एक बड़े घर मेँ कुछ
कंकाल मिले थे, जिन्हेँ लेकर कई तरह की कहानियाँ बनती रहीँ प्रसिद्ध 'नर्तकी' शिल्प भी यहीँ एक छोटे घर की खुदाई मेँ निकला था । इसके बारे मेँ पुरातत्त्वविद मार्टिमर वीलर ने कहा था कि संसार मेँ इसके जोड़ की दूसरी चीज़ शायद ही होगी । यह मूर्ति अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय मेँ है ।

यहीँ पर एक बड़ा घर है जिसे उपासना-केँद्र समझा जाता है । इसमेँ आमने-सामने की दो चौड़ी सीढ़ियाँ ऊपर की (ध्वस्त ) मंज़िल की तरफ़ जाती हैँ ।

पश्चिम मेँ-गढ़ी के ठीक पीछे-माधोस्वरूप वत्स के नाम पर वीएस हिस्सा है। यहाँ वह 'रंगरेज़ का कारखाना' भी लोग चाव से देखते हैं, जहाँ ज़मीन मेँ ईँटों के गोल गड्ढे उभरे
हुए हैं। अनुमान है कि इनमें रंगाई के बड़े बर्तन रखे जाते थे। दो कतारों मेँ सोलह छोटे
एक-मंजिला मकान हैं। एक कतार मुख्य सड़क पर है, दूसरी पीछे की छोटी सड़क की
तरफ़। सब में दो-दो कमरे हैं। स्नानघर यहाँ भी सब घरों में हैं। बाहर बस्ती मेँ कुएँ सामूहिक प्रयोग के लिए हैं। ये कर्मचारियों या कामगारों के घर रहे होंगे।

मुअनजो-दड़ो मेँ कुँओं को छोड़कर लगता है जैसे सब कुछ चौकोर या आयताकार हो। नगर की योजना, बस्तियाँ, घर, कुंड, बड़ी इमारतें, ठप्पेदार मुहरें, चौपड़ का खेल, गोटियाँ,
तौलने के बाट आदि सब ।

छोटे घरों मेँ छोटे कमरे समझ मेँ आते हैं। पर बड़े घरों मेँ छोटे कमरे देखकर अचरज
होता है। इसका एक अर्थ तो यह लगाया गया है कि शहर की आबादी काफी रही होगी।
दूसरी तरफ़ यह विचार सामने आया है कि बड़े घरों मेँ निचली( भूतल)मंजिल मेँ
नौकर-चाकर रहते होंगे। ऐसा अमेरिकी नृतत्त्वशास्त्री ग्रेगरी पोसेल का मानना है। बड़े घरों के आँगन मेँ चौड़ी सीढ़ियाँ हैं। कुछ घरों मेँ ऊपर की मंजिल के निशान हैं, पर सीढ़ियाँ नहीं हैं। शायद यहाँ लकड़ी की सीढ़ियाँ रही हों, जो कालांतर मेँ नष्ट ही गई। संभव है ऊपर की मंज़िल मेँ ज्यादा खिड़कियों, झरोखे और साज़-सज्जा रही हो । लकड़ी का इस्तेमाल भी बहुत संभव है पूरे घर मेँ होता हो । कुछ घरोँ मेँ बाहर की तरफ सीढ़ियोँ के संकेत हैँ । यहाँ शायद ऊपर और नीचे अलग-अलग परिवार रहते होँगे । छोटे घरोँ की बस्ती मेँ छोटी संकरी सीढ़ियाँ हैँ ।उनके पायदान भी ऊँचे हैँ ।ऐसा जगह की तंगी की वजह से होता होगा ।

गौर किया कि मुअनजो-दड़ो के किसी घर मेँ खिड़कियोँ या दरवाज़ोँ पर छज्जोँ के चिह्न नहीँ हैँ । गरम इलाकोँ के घरोँ मेँ छाया के लिए यह आम प्रावधान होता है । क्या उस वक्त यहाँ इतनी कड़ी धूप नहीँ पड़ती होगी ? मुझे मुअनजो-दड़ो की जानी -मुहरोँ के पशु याद हो आए । शेर , हाथी या गैँडा इस मरु-भूमि मेँ हो नहीँ सकते । क्या उस वक्त यहाँ जंगल भी थे? यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि यहाँ अच्छी खेती होती थी । पुरातत्त्वी शीरीन रत्नागर का मानना है कि सिँधु-वासी कुँओँ से सिँचाई कर लेते थे । दूसरे , मुअनजो-दड़ो की किसी खुदाई मेँ नहर होने के प्रमाण नहीँ मिले हैँ । यानी बारिश उस काल मेँ काफ़ी होती होगी । क्या बारिश घटने और कुँओँ के अत्यधिक इस्तेमाल से भू-तल जल भी पहुँच से दूर चला गया ? क्या पानी के अभाव मेँ यह इलाका उजड़ा और उसके साथ सिँधु घाटी की समृद्ध सभ्यता भी ?

मुअनजो-दड़ो मेँ उस रोज़ हवा बहुत तेज़ बह रही थी। किसी बस्ती के टूटे-फूटे घर मेँ दस्वाजे या खिड़क्री के सामने से हम गुज़रते तो सांय-सांय की ध्वनि मेँ हवा की लय साफ़ पकड़ मेँ आती थी। वैसे ही जैसे सड़क पर किसी वाहन से गुज़रते हुए
किनारे की पटरी के अंतरालों मेँ रह-रहकर हवा के लयबद्ध थपेड़े सुनाई पड़ते हैं। सूने घरों मेँ हवा की लय और ज्यादा गूँजती है। इतनी कि कोनों का अँधियारा भी सुनाई दे। यहाँ एक घर से दूसरे
घर मेँ जाने के लिए आपको किसी घर से वापस बाहर नहीं आना पड़ता। आखिर सब खंडहर हैं। सब कुछ खुला है। अब कोई घर जुदा नहीं है। एक घर दूसरे मेँ खुलता है, दूसरा तीसरे में। जैसे पूरी
बस्ती एक बड़ा घर हो। लेकिन घर एक नक्शा ही नहीं होता। हर घर का एक संस्कारमय आकार होता है। भले ही वह पाँच हजार
साल पुराना घर क्योँ न हो। हममें कमोबेश हर कोई पाँव आहिस्ता उठाते हुए एक घर से दूसरे घर मेँ बेहद धीमी गति से दाखिल होता था। मानो मन मेँ अतीत को निहारने की जिज्ञासा ही न हो, किसी अजनबी घर मेँ अनधिकार चहल-कदमी का अपराध-बोध भी हो।
जैस किसी पराए घर मेँ पिछवाड़े से चोरी-छुपे घुस आए सब जानते हैं यहाँ अब कोई बसने नहीं आएगा। लेकिन यह मुअनजो-दड़ो के
पुरातात्त्विक अभियान की ही खूबी थी कि मिट्टी मेँ इंच-दर-इंच कंघी कर इस कदर शहर, उसकी गलियों और घरों को ढूँढ़ा और सहेजा गया है कि यह अहसास हर वक्त आपके साथ रहता है, कल कोई यहाँ बसता था। जरूर यह आपकी सभ्यता परंपरा है । मगर घर आपका नहीँ है ।

अनचाहे मुझे मुअनजो-दड़ो की गलियोँ या घरोँ मेँ राजस्थान का खयाल न आए, ऐसा नहीँ हो सका । महज़ इसलिए नहीँ कि (पश्चिमी) राजस्थान और सिंध-गुजरात की दृश्यावली एक -सी है । कई चीज़ेँ हैँ जो मुझे यहाँ से वहाँ जोड़ जाती हैँ । जैसे हज़ारोँ साल पुराने यहाँ के खेत । बाजरे और ज्वार की खेती । मुअनजो-दड़ो के घरोँ मेँ टहलते हुए मुझे कुलधरा की याद आई । यह जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरोँ वाला एक खूबसूरत गाँव है । उस खूबसूरती मेँ हरदम एक गमी व्याप्त है। गाँव मेँ घर हैं, पर लोग नहीं हैं। कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर स्वाभिमानी गाँव का हर बाशिदा रातोरात अपना घर छोड़ चला गया। दरवाज़े-असबाब पीछे लोग उठा ले गए। घर खंडहर ही गए पर ढहे नहीं। घरों की दीवारें,
प्रवेश और खिड़कियाँ ऐसी हैं जैसे कल की बात हो। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे थाम लिया। जैसे सुबह लोग घरों से निकले हों, शायद शाम ढले लौट आने वाले हों।

राजस्थान ही नहीं, गुजरात, पंजाब और हरियाणा मेँ भी कुएँ, कुंड, गली-कूचे, कच्ची-पक्की ईंटों के कई घर भी आज वैसे मिलते हैं जैसे हज़ारों साल पहले हुए।

जॉन मार्शल ने मुअनजो-दड़ो पर तीन खंडों का एक विशद प्रबंध छपवाया था। उसमें
खुदाई मेँ मिली ठोस पहियों वाली मिट्टी की गाड़ी के चित्र के साथ सिँध मेँ पिछली सदी
मेँ बरती जा रही ठीक उसी तरह की बैलगाड़ी का भी एक चित्र प्रकाशित है। तसवीर से
उन्होंने एक सतत् परंपरा का इज़हार किया, हालाँकि कमानी या आरे वाले पहिए का आविष्कार बहुत पहले हो चुका था जब मैँ छोटा था, हमारे गाँव मेँ भी लकड़ी वाले ठोस पहिए बैलगाड़ी मेँ जुड़ते थे । दुल्हन पहली दफा इसी बैलगाड़ी मेँ ससुराल जाती थी । बाद मेँ हमारे यहाँ भी बैलगाड़ी मेँ आरे वाले पहिए जुड़ने लगे । अब तो उसमेँ जीप के उतारू पहिए लगते हैँ । हवाई जहाज के उतारू पहिए बाजार मेँ आने के बाद ऊँटगाड़े (गाड़ी नहीँ ) का भी आविष्कार हो गया है । रेगिस्तान के जहाज़ से हवा के जहाज़ का यह ऐतिहासिक गठजोड़ है । हालाँकि कहना मुश्किल है कि दुल्हन की सवारी के रूप मेँ बैलगाड़ी या ऊँटगाड़े का अब वहाँ कभी इस्तेमार होता होगा !

हमारे मेज़बान ने ध्यान दिलाया कि मुअनजो-दड़ो का अजायबघर देखना अभी बाकी है । खंडहरोँ से निकल हम उस साबुत इमारत मेँ आ गए । लेकिन प्रदर्शित सामान आपको खंड़हरोँ से निकल आने का एहसास होने नहीँ देता । अजायबघर छोटा ही है । जैसे किसी कस्बाई स्कूल की इमारत हो । सामान भी ज़्यादा नहीँ है । अहभ चीज़ेँ कराची ,लाहौर , दिल्ली और लंदन मेँ हैँ । योँ अकेले मुअनजो-दड़ो की खुदाई मेँ निकली पंजीकृत चीज़ोँ की संख्या पचास हज़ार से ज़्यादा है । मगर जो मुट्ठी भर चीज़ेँ यहाँ प्रदर्शित हैँ ,पहुँची हुई सिंधु सभ्यता की झलक दिखाने को काफ़ी हैँ ।
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काला पड़ गया गेहूँ , ताँबे और काँसे के बर्तन ,मुहरेँ ,वाद्य ,चाक पर बने विशाल मृद्-भांड , उन पर
काले- भूरे चित्र, चौपड़ की गोटियाँ, दीये,
माप-तौल पत्थर, ताँबे
का आईना , मिट्टी की
बैलगाड़ी और दूसरे
खिलौने , दो पाटन वाली चक्की , कंघी , मिट्टी के कंगन , रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औज़ार । अजायबघर में
तैनात अली नवाज़ बताता है , कुछ सोने के गहने भी यहाँ हूआ करते थे जो चोरी हो गए।

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एक खास बात यहाँ कोई भी महसूस करेगा । अजायबघर में प्रदर्शित चीजों में औजार तो हैं, पर हथियार कोई नहीं है। मुअनजो-दड़ो क्या , हड़प्पा से लेकर हरियाणा तक समूची सिंधु सभ्यता में
हथियार उस तरह कहीं नहीं मिले हैं जैसे किसी राजतंत्र मेँ होते हैं ।

इस बात को लेकर विद्वान सिंधु सभ्यता मेँ शासन या सामाजिक प्रबंध के तौर-तरीके को समझने की कोशिश
कर रहे हैं। वहाँ अनुशासन ज़रूर था, पर ताकत के बल पर नहीं। वे न रही हो । मगर कोई अनुशासन ज़रूर था जो नगर योजना , वास्तुशिल्प , मुहर-ठप्पोँ, पानी या साफ़-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओँ आदि मेँ एकरूपता तक को कायम रखे हुए था । दूसरी बात ,जो सांस्कृतिक धरातल पर सिंधु घाटी सभ्यता को दूसरी सभ्यताओँ से अलग ला खड़ा करती है ,वह है प्रभुत्व या दिखावे के तेवर का नदारद होना ।

दूसरी जगहोँ पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल , उपासना-स्थल ,मूर्तियाँ और पिरामिड आदि मिलते हैँ । हड़प्पा संस्कृति मेँ न भव्य राजप्रसाद मिले हैँ ,न मंदिर ,न राजाओँ, महंतों की समाधियाँ । यहाँ के मूर्तिशिल्प छोटे हैं और औजार भी। मुअनजो-दड़ो के 'नरेश' के सिर पर जो 'मुकुट' है, शायद उससे छोटे सिरपेच की कल्पना भी नहीं की जा सकती। और तो और, उन लोगों की नावें बनावट में मिस्र की नावों जैसी होते हुए भी आकार में छोटी रहीं। आज़ के मुहावरे में कह सकते हैं वह 'लो-प्रोफाइल' सभ्यता थी;
लघुता में भी महत्ता अनुभव करने वाली संस्कृति।

मुअनजो-दड़ो सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा शहर ही नहीं था, उसे साधनों और
व्यवस्थाओं को देखते हुए सबसे समृद्ध भी माना गया है। फिर भी इसको सपन्नता की बात कम हुई है तो शायद इसलिए कि उसमें भव्यता का आडंबर नहीं है। दूसरी वजह यह भी है कि मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा पिछली सदी में ही उद्घाटित्त ही सके। उनको अनबूझ लिपि अभी भी सारे रहस्य अपने मेँ छिपाए हुए है।

नृत्य मुद्रा मेँ
लड़की
2500 ई. पूर्व

सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्त्व ज्यादा था। वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, धातु और पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियोँ की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास, आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक-सिद्ध से ज़्यादा कला-सिद्ध ज़ाहिर करता है । एक पुरातत्त्वेत्ता के मुताबिक सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य -बोध है , " जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था ।" शायद इसीलिए आकार की भव्यता की जगह उसमेँ कला की भव्यता दिखाई देती है ।

अजायबघर मेँ रखी चीज़ोँ मेँ कुछ सुइयाँ भी हैँ । खुदाई मेँ ताँबे और काँसे की तो बहुत सारी सुइयाँ मिली थीँ । काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सुइयाँ मिलीँ जिनमेँ एक दो-इंच लंबी थी । समझा गया है कि यह बारीक कशीदेकारी मेँ काम आती होगी । याद करेँ ,नर्तकी के अलावा मुअनजो-दड़ो के नाम से प्रसिद्ध जो दाढ़ी वाले 'नरेश' की मूर्ति है , उसके बदन पर आकर्षक गुलकारी बाला दुशाला भी है। आज छापे वाला कपड़ा 'अज़रक' सिंध की खास पहचान बन गया है, पर कपड़ोँ पर छपाई का
आविष्कार बहुत बाद का है। खुदाई में सुइयों के अलावा हाथीदाँत और ताँबे के सुए भी मिले हैं। जानकार मानते हैं कि इनसे शायद दरियाँ बुनी जाती थीं। हालाँकि दरी का कोई नमूना या साक्ष्य हासिल नहीँ हुआ है ।

वह शायद कभी हासिल न हो , क्योँकि मुअनजो-दड़ो मेँ अब खुदाई बंद कर दी गई है । सिंधु के पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है । मौजूदा खंडहरोँ को बचाकर रखना ही अब अपने आप मेँ बड़ी चुनौती है ।

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