बुधवार, 13 दिसंबर 2017

डायरी के पन्ने (ऐन फ्रैँक) भाग 6

शुक्रवार, 23 जनवरी, 1944
मेरी प्यारी किट्टी,

इधर के सप्ताहों मेँ मुझे परिवार के वंश वृक्षोँ और राजसी परिवारों की वंशावली
तालिकाओँ में खासी रूचि हो गई है। मैं इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि एक बार तुम खोजना शुरू कर दो तो तुम्हें अतीत मेँ गहरे, और गहरे उतरना पड़ेगा। इस खोज से तुम्हारे हाथ और भी रोचक जानकारियाँ लगेंगी।

हालाँकि जब मेरे स्कूल के काम की बात आती है तो मैं बहुत मेहनत करती हूँ और
रेडियों यर बी.बी.सी. की होम सर्विस को समझ सकती हूँ, इसके बावजूद मैं अपने ज्यादातर रविवार अपने प्रिय फ़िल्मी कलाकारों की तसवीरें अलग करने और देखने में गुज़ारती हूँ। यह संग्रह अच्छा-खासा हो चुका है। मिस्टर कुगलर मुझ पर हर सोमवार कुछ ज्यादा ही मेहरबान
होते है और मेरे लिए सिनेमा एंड थियेटर पत्रिका की प्रति लेते आते हैं। इस घर-परिवार के ऐसे लोग भी ,जो ज़रा भी दुनियादार नहीँ हैँ ,इसे पैसोँ की बरबादी मानते हैँ लेकिन इस बात पर हैरान भी होते हैं कि कैसे मैँ एक साल के बाद भी किसी फ़िल्म के सभी कलाकारों के नाम ऊपर से नीचे तक सही-सही बता सकती हूँ। बेप जो अकसर छुट्टी के दिन अपने बॉयफ्रेंड के साथ फिल्म देखने जाती है, शनिवार को ही मुझे बता देती है कि वे कौन सी फिल्म देखने जा रहे हैँ, तो मैँ फिल्म के मुख्य नायकों और नायिकाओं के नाम तथा समीक्षाएँ
फ़र्राटे से बोलना शुरू कर देती हूँ। हाल ही में मम्मी ने फ़िकरा कसा कि मुझे बाद में फ़िल्में देखने जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी, क्योँकि मुझे सारी फिल्मों की कहानियाँ, नायकों के नाम तथा समीक्षाएँ ज़बानी याद हैं।

जब भी मैं नयी केश सज्जा बनाकर बाहर आती हूँ, मैं सबके चेहरों पर उग आई असहमति साफ़-साफ़ पढ़ सकती हूँ। और यह भी बता सकती हूँ कि कोई न कोई ज़रूर टोक देगा कि मैं फलाँ
फिल्म स्टार की नकल कर रही हूँ। मेरा यह जबाब कि ये स्टाइल मेरा खुद का आविष्कार है, मज़ाक के रूप मेँ लिया जाता है। जहाँ तक मेरे हेयर स्टाइल का सवाल है, यह आधे घंटे से ज्यादा नहीं टिका रहता। तब तक मैं उससे बोर ही चुकी होती हूँ और सबकी टिप्पणियाँ सुनते-सुनते मेरे कान पकने लगते हैं। मैं सीधे गुसलखाने की तरफ़ लपकती हूँ और मेरे बाल फिर से पहले की तरह उलझे हुए घुँघराले हो जाते हैं।

तुम्हारी ऐन


बुधवार, 28 जनवरी, 1944
मेरी प्यारी किट्टी,

आज सुबह मैं सोच रही थी कि क्या तुमने अपने आपको
कभी गाय समझा है जिसे हर दिन मेरी बासी खबरें बार-बार चबानी पड़ती हैं। इनकी इतनी अधिक जुगाली कि तुम्हें उबासी आ जाए और तुम मन ही मन कामना करो कि ऐन कुछ नए समाचार दे।

सॉरी, तुम्हें ये नाली के सड़ते पानी की तरह नीरस लगता
होगा। लेकिन ज़रा मेरी हालत की कल्पना करो जिसे रोज़-रोज़ यही सुनना पड़ता है। अगर खाने के वक्त बातचीत राजनीति या अच्छे खाने के बारे मेँ नहीं हो रही होती तो मम्मी या मिसेज़ वान दान
अपने बचपन की उन कहानियों को लेकर बैठ जाती हैं जो हम हज़ार बार सुन चुके हैं या फिर डसेल शुरू हो जाते हैं खूबसूरत रेस के घोड़े ,उनकी चार्लोट का महँगा वॉर्डरोब ,लीक करती नावेँ , चार बरस की उम्र मेँ तैर सकने वाले बच्चे ,दर्द करती माँसपेशियाँ और डरे हुए मरीज़ -ये सब किस्से। इन सारी बातोँ का निचोड़ ये है : जब भी हम आठोँ मेँ से कोई भी अपना मुँह खोलता है , बाकी सातोँ उसके लिए कहानी पूरी कर सकते हैँ। किसी भी लतीफ़े को सुनने से पहले ही हमेँ उसकी पंच लाइन पता होती है । नतीजा यह होता है कि लतीफ़ा सुनाने वाले को अकेले हँसना पड़ता है। अलग-अलग ग्वाले, राशनवाले, कसाई जो घरों की इन दो भूतपूर्व मालकिनों के संपर्क में आए, इतनी बार उनके चरित्र-चित्रण हो चुके हैं कि हमारी कल्पना शक्ति में उनमें जोड़ने के लिए कुछ भी नहीं बचा। एनेक्सी की यह हालत है कि यहाँ नया या ताजा सुनने-सुनाने को कुछ भी नहीं बचा है।

फिर भी, इन सारी चीजों में ताजा सुनने-सुनाने को कुछ भी नहीं बचा है। लोगों को
नमक-मिर्च लगाकर वह सब कुछ दोहराने की आदत न होती जो मिस्टर क्लीमेन, जॉन, मिएप पहले ही बता चुके होते हैं। कई बार मैँ मेज़ के नीचे अपने आपको खुद चिकोटी काट कर रोके रहती हूँ कि कहीं किसी को टोक न दूँ। छोटे बच्चे, खासकर ऐन कभी भी किसी बड़े को टोकने, सही लाइन पर लाने की हिमाकत न करें। भले ही उनकी गाड़ी पटरी से
उतरी जा रही हो या उनकी कल्पनाशक्ति का दिवाला पिट चुका हो।

जॉन और मिस्टर क्लीमेन को अज्ञातवास में छुपे या भूमिगत हो गए लोगों के बारे में बात करना अच्छा लगता है। वे जानते हैं कि हम अपने जैसी हालत में जी रहे लोगों की बातें जानने के इच्छुक हैं। हमें उन सबकी तकलीफ़ोँ से हमदर्दी है जो गिरफ्तार हो गए हैं और उन लोगों की खुशी में हमारी खुशी है जो कैद से आजाद कर दिए गए हैं। भूमिगत होना और अज्ञातवास में चल जाना तो अब आम बात हो गई है । हाँ कई प्रतिरोधी दल भी हैँ ,जैसे फ्री
नीदरलैंड्स जो नकली पहचानपत्र बनाते है, अज्ञातवास में छुपे लोगों को वित्तीय सहायता देते है,
युवा ईसाइयों के लिए काम तलाशते हैं। कितनी हैरानी की बात है कि ये लोग अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरों की मदद के लिए कितना काम कर रहे हैं। इसका सबसे बढ़िया
उदाहरण हमारी मदद करने वालोँ का है, जो हमारी आज तक मदद करते आए है और उम्मीद तो यही है कि वे हमें सुरक्षित किनारे तक ले आएँगे। इसका कारण यह है कि अगर वे ऐसा नहीँ करते तो उनकी किस्मत भी हमारी जैसी हो जाएगी । उन्होँने कभी नहीँ कहा कि हम उनके लिए मुसीबत हैँ । वे रोज़ाना ऊपर आते हैँ , पुरूषोँ से कारोबार और राजनीति की बात करते हैँ , महिलाओँ से खाने और युद्ध के समय की मुश्किलोँ की बात करते हैँ , बच्चोँ से किताबोँ और अखबारोँ की बात करते हैँ । हमेशा हर संभव मदद करते हैँ । हमेँ ये बात कभी भी नहीँ भूलनी चाहिए । ऐसे मेँ जब दूसरे लोग जर्मनोँ के खिलाफ़ युद्ध मेँ बाहदुरी दिखा रहे हैँ , हमारे मददगार रोज़ाना अपनी बेहतरीन भावनाओँ और प्यार से हमारा दिल जीत रहे हैँ ।


अजीब-अजीब कहानियाँ चल रही है । उनमें काफ़ी सच भी है । अभी मिस्टर क्लीमेन
गेल्डरलैंड में भूमिगत हो चुके आदमियों और पुलिसवालों के बीच हुए फ़ुटबाल मैच का
ज़िक्र कर रहे थे , हिल्वरसम में नए राशनकार्ड जारी किए गए । (ऐसे लोगों को , जो अज्ञातवास में रह रहे हैँ , राशन खरीदने की सुविधा हो सके ) अगर राशनकार्ड न हो तो एक कार्ड के लिए 60 गिल्डर देने पड़ते हैं। ज़िले मेँ अज्ञातवास मेँ रह रहे सभी लोगों से रजिस्ट्रार ने आग्रह किया कि वे फ़लाँ दिन एक अलग मेज़ पर आकर अपने कार्ड ले जाएँ।

इस सबके साथ ये भी खयाल रखना पड़ता है कि इस तरह
की चालाकियोँ की जर्मनों को हवा भी न लगे। 

तुम्हारी ऐन


बुधवार, 29 मार्च, 1944
मेरी प्यारी किट्टी,

कैबिनट मंत्री मिस्टर बोल्के स्टीन ने लंदन से डच प्रसारण मेँ कहा कि युद्ध के बाद युद्ध का वर्णन करने वाली डायरियों और पत्रों का संग्रह किया जाएगा। और फिर हर कोई मेरी डायरी पर
झपट पड़ा। सोचो, ये कितना दिलचस्प होगा जब मैं इस गुप्त एवेक्सी के बारे मेँ छपवाऊँगी। उसका शीर्षक ही ऐसा होगा कि लोग इसे एक जासूसी कहानी समझेंगे।

मैं सही बता रही हूँ, युद्ध के दस साल बाद लोग इससे
कितना चकित होंगे कि जब उन्हेँ पता चलेगा कि हम लोग कैसे रहते थे, हम क्या खाते थे और यहूदियों के रूप मेँ अज्ञातवास मेँ हम क्या-क्या बातें करते थे। हालँकि मैं तुम्हें इस जीवन के बारे मेँ काफी-कुछ बता चुकी हूँ, फिर भी तुम अभी भी थोड़ा-सा ही
जान पाई हो। हवाई हमले के दौरान औरतें कैसी डर जाती हैं; अब देखो ना, पिछले रविवार जब 350 ब्रिटिश वायुयानों ने इज्मुईडेन पर
550 टन गोला-बारूद बरसाया तो हमारे घर ऐसे काँप रहे थे जैसे हवा मेँ घास की पत्तियाँ। या हमारे इन घरों मेँ कैसी महामारियाँ
फैली हुई हैं।

तुम्हें इस सबकी कुछ खबर नहीं है। सब कुछ तुम्हें बताने मेँ पूरा दिन लग जाएगा। लोगों को सब्जियों और सभी प्रकार के सामानों के लिए लाइनों मेँ खड़े होना पड़ता है; डॉक्टर अपने मरीज़ोँ को नहीँ देख पाते ,क्योँकि उन्होँने पीठ मोड़ी नहीँ कि उनकी कारेँ और मोटर साइकिलेँ चुरा ली जाती हैँ ,चोरी -चकारी इतनी बढ़ गई है कि डच लोगोँ मेँ अँगूठी पहनने क रिवाज़ तक नहीँ रह गया है ।

छोटे-छोटे बच्चे आठ-आठ, दस-दस बरस के होंगे लेकिन लोगों के घरों की खिड़कियाँ तोड़ कर घुस जाते हैं और जो भी हाथ लगा, उठा ले जाते हैं। लोग पाँच मिनट के लिए भी अपना घर छोड़ने की हिम्मत नहीं कर सकते हैं, क्योँकि लौटने पर उन्हेँ घर में झाडू फिरी मिलेगी। चोरी गए टाइपराइटरों, ईरानी कालीनों, बिजली से चलने वाली घड़ियों, कपडों आदि को लौटाने के लिए अखबारों में इनाम के विज्ञापन आए दिन पढ़ने को मिलते हैं। गली-गली नुक्कडों पर लगी बिजली से चलने वाली घड़ियाँ लोग उतार ले गए और सार्वजनिक टेलीफ़ोनोँ का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा गायब हो चुका है।

डचों की नैतिकता अच्छी नहीं है। सब भूखे हैं ; नकली कॉफ़ी को छोड़ दो तो एक हफ्ते का राशन दो दिन भी नहीं चल पाता। अभी और क्या देखना बाकी है, पुरुषों को जर्मनी
भेजा जा रहा है, बच्चे बीमार हैं या फिर भूख से बेहाल हैं; सब लोग फटे-पुराने कपड़े और घिसे-पिटे जूते पहनकर काम चला रहे हैं। ब्लैक मार्केट में जूते का नया तला 7.50 गिल्डर
का मिलता है। इसके अलावा बहूत कम मोची मरम्मत का काम कर रहे हैं, यदि वे करते
भी हैं तो चार महीने इंतजार करना महंगा और इस बीच जूता गायब हो चुका होगा।

इसका एक लाभ भी हुआ है, खाना जितना खराब होता जा रहा है बिक्री उतनी ही गंभीर
हो रही है; सरकारी लोगों पर हमले की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। खाद्य कार्यालय, पुलिस, अधिकारी-सभी या तो अपने साथी नागरिकोँ की मदद कर रहे हैँ या उन पर कोई आरोप लगाकर जेल मेँ भेज देते हैँ । सौभाग्य से बहुत कम डच लोग गलत पक्ष मेँ हैँ ।

तुम्हारी ऐन


मंगलवार, 11 अप्रैल, 1944
मेरी प्यारी किट्टी,

मेरा सिर घूम रहा है। समझ में नहीं आ रहा , कहाँ से शुरू करू। गुरुवार (जब मैने
तुम्हें पिछली बार लिखा था) सब कुछ ठीक-ठाक था। शुक्रवार (गुड फ्राइडे) हम मोनापोली खेल खेलते रहे। शनिवार भी हम यही खेल खेले। दिन पता ही नहीं चला, कैसे बीत गए । शनिवार कोई दो बजे का वक्त रहा होगा, तेज़ गोलाबारी शुरू हो गई। मशीनगनें चल रही थीं। मर्द लोगोँ का यही कहना था । बाकी लोगोँ के लिए सब कुछ शांत था ।

रविवार दोपहर के वक्त मेरे आमन्त्रण पर पीटर साढ़े चार बज मुझसे मिलन के लिए
आया। सवा पाँच बजे हम ऊपर सामने वाली अटारी पर चले गए। वहाँ हम छ : बजे तक रहे। छ: बजे से सवा रात बजे तक रेडियों पर बहुत ही खूबसूरत मोत्ज़ार्ट संगीत बज रहा था। मुझे रात्रि राग बहुत ही भले लगे। मैं रसोई में तो संगीत खुन ही नहीं गाती, क्योँकि दिव्य
संगीत मेरी आत्मा की गहराइयों में उतरता चला जाता है। रविवार के दिन पीटर स्नान नहीं कर पाया था। नहाने का टब नीचे ऑफ़िस मेँ गंदे कपडों से भरा हुआ रखा था। हम दोनों ऊपर अटारी पर एक साथ गए। हम दोनों आराम से बैठ सकेँ, इसलिए मुझे जो भी कुशन सामने नज़र आया,
मैं ऊपर लेती गई। हम एक पेटी पर बैठ गए। अब हुआ यह कि एक तो वह पेटी बहुत छोटी थी और दूसरे कुशन भी छोटा-सा ही था, हम दोनों एक-दूसरे से बहुत सट कर बैठे हुए थे। सहारा लेने
के लिए हमारे पीछे दो और पेटियाँ थीँ ही। मोश्ची हमेँ कंपनी देने के लिए हमारे साथ थी ही।

अचानक पौने नौ बजे मिस्टर वान दान ने सीटी बजाई और पूछा कि कहीँ हम मिस्टर डसेल का कुशन तो नहीं ले आए हैं। हम कूदे और कुशन लेकर सीधे नीचे आ गए। बिल्ली और मिस्टर
वान दान हमारे साथ थे। यह कुशन ही सारे झगड़े की जड़ था। डसेल इसलिए खफ़ा थे कि मैं वो तकिया उठा लाई थी जिसे वे कुशन की तरह इस्तेमाल करते थे। उन्हेँ डर था कि उनके तकिए पर पिस्सु
चिपक जाएँगे। उन्होंने सारे घर को सिर पर उठा रखा था क्योँकि हम उनका कुशन उठा लाए थे। बदला लेने की नीयत से पीटर और मैंने उनके बिस्तर मेँ दो कड़े ब्रुश घुसेड़ दिए लेकिन जब मिस्टर डसेल
ने तय किया कि जाकर अपने कमरे मेँ बैठेँगे तो हमें ये ब्रुश निकाल लेने पड़े। इस छोटे से प्रहसन पर हम हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए।

लेकिन हमारा हँसी-मज़ाक जल्दी ही खत्म हो गया। साढ़े-नौ बजे पीटर ने हौले से दरवाजा खटखटाया और पापा से कहा कि वे ज़रा ऊपर आएँ, उसे अंग्रेज़ी के एक कठिन वाक्य मेँ दिक्कत आ रही है।

मुझे तो दाल मेँ कुछ काला नज़र आ रहा है। 'मैँने मार्गोट से कहा, 'तय है, पीटर ने किसी और बहाने से यह बात कही है।' जिस तरीके से मर्द लोग बात कर रहे हैं, मैं शर्त लगा कर कह सकती हूँ कि सेंधमारी हो रही थी। पिता जी , मिस्टर वान दान औ रपीटर लपक कर नीचे पहुँच गए । मार्गोट , माँ , मिसेज़ वान दान और मैँ ऊपर इंतज़ार करते रहे । चार डरी-सहमी औरतेँ बातेँ ही तो कर सकती हैँ । जब तक हमने नीचे ज़ोर का एक धमाका नहीँ सुना ,हम बातोँ मेँ लगी रहीँ । उसके बाद का मामला है । मेरा सोचना सही था ।

उसी वक्त गोदाम में सब कुछ शांत हो गया। घड़ी ने पौने दस बजाए। हमारे चेहरों का रंग उड़ चुका था, इसके बावजूद कि हम डरे हुए थे, हम शांत बने रहे। आदमी लोग कहाँ थे? ये धमाके की आवाज कैसी थी ? क्या वे लोग सेंधमारोँ के साथ लड़ रहे थे? हम डर के मारे सोच भी नहीं पा रहे थे । हम सिर्फ़ इंतजार ही कर सकते थे।

दस बजे, सीढ़ियों पर कदमों की आवाजें आई। पापा का चेहरा पीला पड़ चुका था, वे
नर्वस थे। पहले वे भीतर आए। उनके पीछे मिस्टर वान दान, 'बत्तियाँ बंद कर दो, दबे पाँव
ऊपर वाली मंजिल पर चले जाओ, पुलिस के आने की आशंका है।'

अब डरने का वक्त भी नहीं बचा था। बत्तियाँ बुझा दी गईँ थीं। मैने फटाफट एक जैकेट उठाई और हम ऊपर जाकर बैठ गए। हमें कुछ भी बतानेचाला कोई भी नहीं था। मर्द लोग बापस नीचे जा चुके थे। वे चारों दस बज कर दस मिनट तक वापिस ही नहीं आए। दो लोग पीटर की खुली खिड़की में से निगाह रखे हुए थे। सीढियों के बीच वाले दरवाजे पर ताला जड़ दिया गया था। ब्रुककेस बंद कर दिया गया था। हमने रात को जलाई जाने वाली बत्ती
पर एक स्वेटर डाल दिया। तब उन्होंने हमें सब कुछ बताया कि क्या हुआ था।

पीटर अभी सीढ़ियों पर ही था जब उसने ज़ोर के दो धमाके सुने। वह नीचे गया तो
देखता क्या है कि गोदाम के दरवाजे में से बाईं तरफ़ का आधा फट्टा गायब है। वह लपक कर ऊपर आया और 'होम गार्डस' को चौकन्ना किया । वे चारोँ लपके-लपके नीचे गए । जब वे गोदाम मेँ पहुँचे तो सेंधमार अपने धंधे मेँ लगे हुए थे । बिना सोचे-समझे मिस्टर वान दान चिल्लाए,
'पुलिस…' बाहर भागने की आवाजें आईँ। सेँधमार भाग चुके थे । फट्टे को दोबारा
उसकी जगह पर लगाया गया ताकि पुलिस को इस गैप का पता न चले। लेकिन अभी एक
पल भी नहीं बीता था कि फट्टा फिर वापस नीचे गिरा दिया गया । पुरुष लोग...सेँधमारों की ढिठाई पर हैरान थे । मिस्टर वान दान और पीटर गुस्से के मारे थरथराने लगे । मिस्टर वान दान ने दरवाज़े
पर कुल्हाड़ी का एक ज़ोरदार प्रहार किया । उसके बाद सब कुछ शांत हो गया । एक बार फिर फट्टे को उसकी जगह पर जमाया गया और एक बार फिर उनका यह प्रयास निष्फल कर दिया गया । बाहर की तरफ़ से एक आदमी और एक औरत टॉर्च की रोशनी फेंकते दिखाई दिए। 'क्या मुसीबत है... ' उन आदमियों में से एक भुनभुनाया । लेकिन अब संकट यह था कि उनकी भूमिकाएँ बदल चुकी थीं । अब वे पुलिस के बजाए सेंधमारों वाली हालत में आ गए थे । चारों लपक कर ऊपर आए । डसेल और मिस्टर वान दान ने डसेल साहब की किताबेँ उठाईँ ,पीटर ने दरवाज़ा खोला , रसोई तथा प्राइवेट ऑफ़िस की खिड़कियाँ खोलीँ ।फ़ोन को नीचे फ़र्श पर पटका और आखिरकार चारोँ बुककेस के पीछे पहुँचने मेँ सफल हो ही गए ।

तुम्हारी ऐन


मंगलवार, 13 जून, 1944
मेरी प्यारी किट्टी,

मेरा एक और जन्मदिन गुज़र गया है। इस हिसाब से मैं
पंद्रह बरस की ही गई हूँ। मुझे काफ़ी सारे उपहार मिले हैं- स्प्रिँगर की पाँच खंडों वाली कलात्मक इतिहास पुस्तक, चड्ढियोँ का एक सेट, दो बेल्टेँ, एक रूमाल, दही के दो कटोरे, जैम की शीशी,
शहद वाले दो छोटे बिस्किट, मम्मी-पापा की तरफ़ से वनस्पति विज्ञान की एक किताब, मार्गोट की तरफ़ से सोने का एक ब्रेसलेट, वान दान परिवार की तरफ़ से स्टिकर एलबम, डसेल की तरफ़ से बायोमाल्ट और मीठे मटर, मिएप की तरफ़ से मिठाई, बेप की तरफ़ से मिठाई और लिखने के लिए कॉपियाँ और सबसे बड़ी बात मिस्टर कुगलर की तरफ़ से मारिया तेरेसा नाम की किताब तथा क्रीम से भरे
चीज़ के तीन स्लाइस । पीटर ने पीओनी फूलों का खूबसूरत गुलदस्ता दिया। बेचारे को ये उपहार जुटाने मेँ ही अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ी। लेकिन वह कुछ और जुटा ही नहीं पाया।

बेहद खराब मौसम-लगातार बारिश, हवाएँ, और उफ़ान पर समुद्र के बावजूद हमले शानदार तरीके से जारी हैं।

कल चर्चिल, स्मट्स, आइज़नहावर, तथा आर्मोल्ड उन फ्रांसीसी गाँवोँ मेँ गए जिन पर ब्रिटिश सैनिकों ने पहले कब्जा कर लिया था
और बाद मेँ मुक्त कर दिया। चर्चिल एक टॉरपीडो नाव मेँ थे। इससे तटों पर गोलाबारी की जाती है। बहुत से लोगों की तरह चर्चिल को भी पता नहीं है-डर किस चिड़िया का नाम है। जन्मजात बहादुर ।

यहाँ हमारी एनेक्सी की किलेबंदी से डच लोगों के मूड की थाह पाना बहुत मुश्किल है । इस बात मेँ कोई शक नहीँ कि लोगबाग बैठे ठाले भी खुश रह लेते हैँ । ब्रिटिश सैनिकोँ ने आखिर अपनी कमर कस ही ली है और अपने मकसद को पूरा करने के लिए निकल पड़े हैँ । जो लोग ये दावे करते फिर रहे हैँ कि वे ब्रिटिश द्वारा कब्ज़ा किए जाने के पक्ष मेँ नहीँ हैँ , नहीँ जानते कि वे कितनी गलती पर हैँ । उनके तर्क का कारण इतना भर है -ब्रिटिश को लड़ते रहना चाहिए ,संघर्ष करना चाहिए ,और हॉलैँड को आज़ाद कराने के लिए अपने शूरवीर सैनिकों की शहादत के लिए आगे आना चाहिए। हॉलैंड के साथ-साथ कब्जे वाले दूसरे देशों को भी आजाद कराना चाहिए, लेकिन उसके बाद ब्रिटिश को हॉलैंड में रुकना नहीं चाहिए। इसके बजाय उन्हेँ चाहिए कि वे सभी कब्ज़े वाले देशों से हाथ जोड़-जोड़कर माफी माँगें, डच ईस्ट इंडीज को उसके सही हकदारों के हाथोँ में सौंपे और थके, टूटे, हारे और लुटे-पिटे अपने देश ब्रिटेन में लौट जाएँ। मूर्खोँ की कहीं कोई कमी नहीं है। इसके बावजूद, जैसा कि मैने कहा, कुछेक समझदार डच लोगों की भी कमी नहीं है। अगर ब्रिटिश ने जर्मनी के साथ शांति संधि पर हस्ताक्षर कर लिए होते तो हॉलैंड और उसके पड़ोसी देशों का क्या हाल हुआ होता। उसके पास ऐसा करने के बहुत मौके मौजूद थे। हॉलैँड जर्मनी बन चुका होता और तब-यह होना ही समाप्ति का संकेत होता। सब कुछ खत्म हो जाने का संकेत ।

ऐसे सभी डच लोग, जो अभी भी ब्रिटिश को हिकारत से देखते हैं, ब्रिटेन की खिल्ली
उड़ाते हैं, उसके बुढ़ाते लॉर्डोँ की सरकार को ताने मारते हैं, उन्हें कायर कहते हैं, इसके बावजूद जर्मनों से नफ़रत करते हैं, एक अच्छा-खासा सिखाने के लायक हैँ । उनकी जमकर मरम्त की जानी चाहिए तभी हमारे जंग लगे दिमाग खुलेँगे । उनमेँ जोश आएगा ।

मेरे दिमाग में हर समय इच्छाएँ, विचार, आरोप तथा डाँट-फटकार ही चक्कर खाते रहते हैं। मैं सचमुच उतनी घमंडी नहीं हूँ जितना लोग मुझे समझते हैं। मैँ किसी और की तुलना में अपनी कई कमजोरियों और खामियों को बेहतर तरीके से जानती हूँ। लेकिन एक फ़र्क है-मैँ जानती हूँ कि मैँ खुद को बदलना चाहती हूँ, बदलूँगी और काफ़ी हद तक बदल चुकी हूँ।

तब ऐसा क्यों है, मैं अपने आप से यह सवाल पूछती हूँ कि लोग मुझे अभी भी इतना
नाक घुसेड़ू और अपने आपकी तीसमारखाँ समझने वाली क्यों मानते हैं? क्या मैँ वाकई
अक्खड़ हूँ ? क्या मैँ ही अकेली अक्खड़ हूँ या वे सब ही हैं? यह सब वाहियात लगता है, मुझे पता है। लेकिन मैं ऊपर लिखा ये आखिरी वाक्य काटने वाली नहीं। ये वाक्य इतना
मूर्खतापूर्ण नहीं है जितना लगता है। मुझ पर हमेशा आरोपों की बौछार करते रहने वाले दो लोग है मिसेज वान दान और डसेल, उनके बारे में सबको पता है कि वे कितने जड़बुद्धि हैँ । मूर्ख जिसके आगे कोई विशेषण लगाने की ज़रूरत नहीँ । मूर्ख लोग आमतौर पर इस बात को सहन नहीँ कर पाते कि कोई उनसे बेहतर काम करके दिखाए । और इसका सबसे बढ़िया उदाहरण ये दो ज़ड़मति, मिसेज़ वान दान और मूर्खाधिराज डसेल हैँ। मिसेज़ वान दान मुझे
इसलिए मूर्ख समझती हैँ क्योँकि मैं उनके जितनी बीमारियों की शिकार नहीं हूँ। वे मुझे अक्खड़ समझती है क्योँकि वे मुझसे भी ज्यादा अक्खड़ हैं। वे समझती है कि मेरी पोशाकेँ छोटी पड़ गई हैं, क्योंकि उनकी पोशाकें और भी ज्यादा छोटी पड़ गई हैं। और वे समझती कि मैं अपने अपाको कुछ ज्यादा ही तीसमारखाँ समझती हूँ क्योँकि वे उन विषयों पर मुझसे भी दो गुना ज्यादा बोलती हैं जिनके बारे मेँ वे खाक भी नहीं जानतीं। यह बात डसेल पर भी फिट होती है। लेकिन मेरी प्रिय
कहावत है-"जहाँ आग होगी, धुआँ भी वहीं होगा'। और मुझे यह मानने मेँ रत्ती-भर भी संकोच नहीं है कि मैं सब कुछ जानती हूँ।

मेरे व्यक्तित्व के साथ सबसे मुश्किल बात यह है कि मैं
किसी भी और व्यक्ति की तुलना मेँ अपने आपको सबसे
धिक्कारती हूँ , यदि माँ अपनी सलाहें देना शुरू कर देती हैं तो उनके उपदेशों की पोटली इतनी भारी हो जाती है कि मुझे डर लगने लगता है- कैसे होगी इससे मुक्ति! जब तक ऐन का वही पुराना रूप सामने नहीं आ जाता-'मुझे कोई नहीं समझता।'

यह वाक्य मेरा हिस्सा है। बेशक लगे कि ऐसा नहीं होगा,
फिर भी इसमें थोड़े से सच का अंश है। कई बार तो मैं अपने
आपको प्रताडित करते हुए इतनी गहरे उतर जाती हूँ कि सांत्वना के दो बोल सुनने के लिए तरस जाती हूँ कि कोई आए और मुझे इससे उबारे। काश, कोई तो होता जो मेरी भावनाओँ को गंभीरता से समझ पाता। अफ़सोस, ऐसा व्यक्ति मुझे अब तक नहीं मिला है, इसलिए तलाश जारी रहेगी।

मुझे पता है, तुम पीटर के बारे मेँ सोचकर हैरान हो रही ही। नहीं क्या, किट्टी? मैं मानती हूँ कि यह सच है कि पीटर मुझे प्यार करता है गर्लफ्रेंड की तरह नहीं बल्कि एक दोस्त की तरह । उसका स्नेह दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है; लेकिन कई बार
कोई रहस्यमयी ताकत हम दोनों को पीछे की तरफ़ खींचती है। मैं नहीं जानती कि वो कौन-सी शक्ति है।

कई बार मैं सोचती हूँ कि मैं उसके पीछे जिस तरह
प्रेमदीवानी बनी रहती हूँ, उसे बढ़ा-चढ़ाकर बता रही हूँ, लेकिन यह सच नहीं है। इसका कारण यह है कि अगर मैं उसके कमरे मेँ एक-दो दिन के लिए न जा पाऊं तो मेरी बुरी हालत हो जाती है। मैं उसके लिए तड़पऩे लगती हूँ। पीटर अच्छा और भला लड़का है ; लेकिन उसने मुझे कई तरह से निराश किया है । धर्म के प्रति उसकी नफ़रत ,खाने के बारे मेँ उसका बातेँ करना और इस तरह की और कई बातेँ मैँ बिलकुल भी पसंद नहीँ करती । इसके बावजूद मुझे पक्का यकीन है कि हमने जो वायदा किया है कि कभी झगड़ेगे नहीं, हम उस
पर हमेशा टिके रहेंगे। पीटर शांतिप्रिय, सहनशील और बेहद सहज आत्मीय व्यक्ति है। वह मुझे कई ऐसी बातें भी कह लेने देता है जिन्हेँ कहने की वह अपनी मम्मी को भी इजाज़त न देता। वह दृढ निश्चयी होकर इस मुहिम पर जुटा हुआ है कि वह अपने पर लगे हुए सभी इल्ज़ामों से अपने आपको पाक-साफ़ करें और अपने काम-काज़ में सलीका लाए। इसके बावजूद वह अपने भीतरी 'स्व' को मुझसे छुपाता क्योँ है और मुझे कभी भी इस बात की अनुमति नहीं देता कि मैँ उसमें झाँकूँ। निश्चय ही, वह मेरी तुलना में ज्यादा घुन्ना है, लेकिन
मैँ अनुभव से जानती हूँ (हालँकि मुझ पर लगातार यह आरोप लगाया जाता है कि जो कुछ भी जानना चाहिए वह मैँ थ्योरी में जानती हूँ, व्यवहार में नहीं) कि कई बार, ऐसे घुन्ने लोग भी, जिनसे संवाद कर पाना बहूत मुश्किल होता है, अपनी बात किसी से कह पाने की उत्कट चाह लिए होते हैं।

पीटर और मैँने, दोनों ने अपने चिंतनशील बस्स, एनेक्सी में ही बिताए हैं। हम अकसर
भविष्य, वर्तमान और अतीत की बातें करते हैं, लेकिन जैसा कि मैं तुम्हें बता चुकी हूँ, मैँ
असली चीज की कमी महसूस करती हूँ और जानती हूँ कि वह मौजूद है।

क्या इसका कारण यह है कि मैँ अरसे से बाहर नहीं निकली हूँ और प्रकृति के लिए
पागल हुई जा रही हूँ। मैं उस वक्त को याद करती हूँ जब नीला आसमान , पक्षियोँ की चहचहाने की आवाज़ , चाँदनी और खिलती कलियाँ ,इन चीज़ोँ ने मुझे कभी भी अपने जादू से बाँधा न होता। मेरे यहाँ आने के बाद चीज़ेँ बदल गई हैं। उदाहरण के लिए छुट्टियों के दौरान की बात है। बेहद गरमी थी। मैं रात के साढ़े ग्यारह बजे तक जबरदस्ती आँखें खोले बैठी रही ताकि मैं अपने अकेले के बूते पर अच्छी तरह चाँद को देख सकूँ । अफ़सोस, मेरी
सारी मेहनत बेकार गई। चौंध इतनी ज्यादा थी कि खिड़की खेलने का जोखिम नहीं लिया जा सकता था। कई महीने बाद एक और मौका ऐसा आया था। उस रात मैं ऊपर वाली मंजिल पर थी। खिड़की खुली हुई थी। जब तक खिड़की बंद करने का वक्त नहीं हो गया है मैँ वहीं बैठी रही। यह गहरी, साँवली बरसात की रात थी। तेज हवाएँ चल रही थीं। बादलों के बीच लुकाछिपी चल रही थी। इस सारे नज़ारे ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था। पिछले डेढ़ बरस में पहली बार हो रहा था कि मैँ आमने-सामने रात से साक्षात्कार कर रही थी। उम शाम के बाद प्रकृति से साक्षात्कार करने की मेरी चाह लगातार बढ़ती गई थी । तब मुझे चोर उचक्कोँ , मोटे काले चूहे या पुलिस के छापे का भी डर नहीँ रहा था । मैं अकेले ही नीचे चली गई थी और रसोई तथा प्राइवेट ऑफ़िस की खिड़की से प्रकृति के नज़ारे देखती रही
थी । कई लोग सोचते हैँ कि प्रकृति सुंदर होती है, कई लोग समय-समय पर तारों भरे
आसमान के तले सोते हैं,और कई लोग अस्पतालों और जेलों में उस दिन की राह देखते रहते हैं कि वे कब आजाद होंगे और वे फिर से प्रकृति के इस अनूठे उपहार का आनंद ले पाएँगे। प्रकृति गरीब-अमीर के बीच कोई भेदभाव नहीं करती।

यह मेरी कल्पना मात्र नहीं है-आसमान, बादलों, चाँद और
तारों की तरफ़ देखना मुझे शांति और आशा की भावना से सराबोर कर देता है। यह वेलेरियन या ब्रोमाइड की तुलना मेँ आजमाया हुआ
बेहतर नुस्खा है। शांति पाने की रामबाण दबा। प्रकृति मुझे विनम्रता का उपहार देती है और इससे मैं बड़े से बड़ा धक्का भी हिम्मत के साथ झेल जाती हूँ। लेकिन किस्मत का लिखा यही है-कुछेक दुर्लभ अवसरों को छोड़कर मैं मैल से चीकट हुई खिड़कियोँ मेँ खुँसे गंदे परदों मेँ से प्रकृति को बहुत ही कम निहार पाती हूँ। इस तरह से देखने से आनंद लेने की सारी भावना ही मर जाती है। प्रकृति ही तो एक ऐसा वरदान है जिसका कोई सानी नहीं।

कई प्रश्नों मेँ से एक प्रश्न जो मुझे अकसर परेशान करता
रहता है और अभी भी समझा जाता है यह कह देना वहुत ही आसान है कि ये गलत है, लेकिन मेरे लिए इतना ही काफ़ी नहीं है। मैं इस
विराट अन्याय के कारण जानना चाहती हूँ।

संभवत: पुरुषों ने औरतों पर शुरू से ही इस आधार पर शासन करना शुरू किया कि वे उनकी तुलना मेँ शारीरिक रूप से ज्यादा सक्षम हैं; पुरुष ही कमाकर लाता है; बच्चे पालता पोसता है; और जो मन मेँ आए, करता है, लेकिन हाल ही मेँ स्थिति बदली है।
औरतें अब तक इन सबको सहती चली आ रही थीं, जो कि बेवकूफ़ी ही थी। चूँकि इस प्रथा को जितना अधिक जारी रखा गया, यह उतनी ही गहराई से अपनी जड़ेँ जमाती चली गई । सौभाग्य से , शिक्षा ,काम तथा प्रगति ने औरतोँ की आँखेँ खोली हैँ । कई देशोँ मेँ तो उन्हेँ बराबरी का हक दिया जाने लगा है । कई लोगोँ ने कई औरतोँ ने और कुछेक पुरुषोँ ने भी अब इस बात को महसूस किया है कि इतने लंबे अरसे तक इस तरह की वाहियात स्थिति को झेलते जाना गलत ही था । आधुनिक महिलाएँ पूरी तरह स्वतंत्र होने का हक चाहती हैँ ।

लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं है। महिलाओँ का भी पूरा सम्मान किया जाना चाहिए।
आमतौर पर देखा जाए तो पूरी दुनिया में पुरुष वर्ग को पूरा सम्मान मिलता है तो महिलाओँ ने ही क्या कुसूर किया है कि वे इससे वंचित रहेँ और उन्हेँ अपने हिस्से का सम्मान न मिले। सैनिकों और युद्धों के वीरों का सम्मान किया जाता है, उन्हेँ अलंकृत किया जाता है, उन्हेँ अमर बना डालने तक का शौर्य प्रदान किया जाता है, शहीदों को पूजा भी जाता है, लेकिन
कितने लोग ऐसे हैं जो औरतों को भी सैनिक का दर्जा देते हैं?

'मौत के खिलाफ़ मनुष्य' नाम की किताब में मैंने पढ़ा था कि आमतौर पर युद्ध में लड़ने वाले वीर को जितनी तकलीफ़, पीड़ा, बीमारी और यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है, उससे कहीं अधिक तकलीफ़ेँ औरतें बच्चे को जन्म देते समय झेलती हैं और इन सारी तकलीफ़ोँ से गुज़रने के बाद उसे पुरस्कार क्या मिलता है? जब बच्चा जनने के बाद उसका शरीर अपना आकर्षण खो देता है तो उसे एक तरफ़ धकिया दिया जाता है, उसके बच्चे उसे छोड़
देते हैं और उसका सौँदर्य उससे विदा ले लेता है। औरत ही तो है जो मानव जाति की
निरंतरता को बनाए रखने के लिए इतनी तकलीफ़ोँ से गुज़रती है और संघर्ष करती है, बहुत अधिक मज़बूत और बहादुर सिपाहियों से भी ज्यादा मेहनत करके खटती है। वह जितना संघर्ष करती है, उतना तो बड़ी-बड़ी डीँगेँ हाँकनेवाले ये सारे सिपाही मिलकर भी नही करते ।

मेरा ये कहने का कतई मतलब नहीं है कि औरतों को बच्चे जनना बंद कर देना चाहिए , इसके विपरीत प्रकृति चाहती है कि वे ऐसा करें और इस वजह से उन्हेँ यह काम करते रहना चाहिए। मैं जिस चीज की भर्त्सना करती हूँ वह है हमारे मूल्यों की प्रथा और ऐसे व्यक्तियों की मैँ भर्त्सना करती हूँ जो यह बात मानने को तैयार ही नहीं होते कि समाज में औरतों, खूबसूरत और सौँदर्यमयी औरतों का योगदान कितना महान और मुश्किल है।

मैं इस पुस्तक के लेखक श्री पोल दे क्रुइफ जी से पूरी तरह सहमत हूँ जब वे कहते है कि पुरुषों को यह बात सीखनी ही चाहिए कि संसार के जिन हिस्सों को हम सभ्य कहते
हैं-वहाँ जन्म अनिवार्य और टाला न जा सकने वाला काम नहीं रह गया है। आदमियों के
लिए बात करना वहुत आसान होता है-उन्हेँ औरतों द्वारा झेली जाने वाली तकलीफ़ो से कभी भी गुजरना नहीं पड़ेगा।

मेरा विश्वास है कि अगली सदी आने तक यह मान्यता बदल चुकी होगी कि बच्चे पैदा करना ही औरतोँ का काम है । औरतेँ ज़्यादा सम्मान और सराहना की हकदार बनेँगी ।वे सब औरतेँ जो एक उफ़ भी किए बिना ,यह लंबे-चौड़े बखानोँ के बिना ये तकलीफ़ेँ सहती हैँ ।

तुम्हारी
ऐन.एम.फ्रैँक

-अनुवाद : सूरज प्रकाश

डायरी के पन्ने (ऐन फ्रैँक) भाग 5

शुक्रवार, 19 मार्च, 1943
मेरी प्यारी किट्टी,

अभी एक घंटा भी नहीं बीता था कि हमारी खुशी निराशा मेँ बदल गई । टर्की अभी युद्ध मेँ शामिल नहीँ हुआ है । हुआ यह था कि एक केँद्रीय मंत्री ने यह कहा था कि टर्की जल्दी ही तटस्थता छोड़ देगा। डैम चौक पर अखबार बेचने वाला चिल्ला रहा था; 'टर्की इंग्लैड के पक्ष मेँ'। अखबार उसके हाथ से झपटे जा रहे थे, और इस तरह से हमने वह उत्साहवर्धक अफ़वाह
सुनी थी।

हज़ार गिल्डर के नोट अवैध मुद्रा घोषित किए जा रहे हैं। यह ब्लैक मार्केट का धंधा करने वालों और उन जैसे लोगों के लिए बहुत बड़ा झटका होगा, लेकिन उससे बडा संकट उन लोगों का है
जो या तो भूमिगत हैं या जो अपने धन का हिसाब-किताब नहीं दे सकते। हज़ार गिल्डर का नोट बदलवाने के लिए आप इस स्थिति मेँ होँ कि ये नोट आपके पास आया कैसे और उसका सुबूत भी देना
होगा। इन्हेँ कर अदा करने के लिए उपयोग मेँ लाया जा सकता है ; लेकिन अगले हफ़्ते तक ही। पाँच सौ गिल्डर के नोट भी तभी बेकार हो जाएँगे। गिएज एंड कंपनी के पास अभी हज़ार गिल्डर के कुछ नोट बाकी थे जिनका कोई हिसाब-किताब नहीं था। इन्हेँ कंपनी ने आगामी वषों के लिए अनुमानित कर अदायगी मेँ निपटा दिया है। इसलिए फ़िलहाल तो गर्दन पानी के ऊपर ही है।

मिस्टर डसेल को कहीं से बाबा आदम के ज़माने की पैरों से चलने वाली दाँतों की ड्रिल मशीन मिल गई है। इसका मतलब, संभवत: जल्दी ही मेरे दाँतों का पूरा चेक-अप ही पाएगा।

जब घर के कायदे-कानून मानने की बात आती है तो मिस्टर डसेल भयंकर रूप से आलस दिखाते हैं। न केबल वे चार्लोट से पत्राचार कर रहे हैं, और भी कई दूसरे लोगों के साथ भी चिट्ठी-पत्री बनाए हुए हैं। मार्गोट, जो कि उनकी डच अध्यापिका हैँ ,उनके ये पत्र ठीक करती हैँ । पापा ने उन्हेँ मना किया है कि वे ये सब कारोबार बंद करेँ और मार्गोट ने उनके पत्र ठीक करने बंद कर दिए हैँ । लेकिन मुझे लगता है ,वे अपनी चिट्ठी-पत्री फिर से शुरू कर देँगे ।

जनाब हिटलर घायल सैनिकोँ से बातचीत कर रहैँ । हमने उन्हेँ रेडियो पर सुना । सचमुच यह सब कुछ करुणाजनक था । सवालोँ-जवाबोँ का सिलसिला इस तरह से चला रहा था :
'मेरा नाम हैनरिक शापेल है।'
'आप कहाँ जख्मी हूए थे?'
'स्नालिनग्राद के पास ।'
'किस किस्म का घाव है यह?'
'दोनों पाँव बरफ़ की वज़ह से गल गए हैं और बाएँ बाजू में हड्डी टूट गई है।'

ये बातें जस की तस दे रही हूँ जो मैंने रेडियो पर कठपुतलियों के खेल की तरह सुनीं। घायल सैनिक जैसे अपने ज़ख्मो को दिखाते हुए गर्व महसूस कर रहे थे। जितने ज्यादा घाव, उतना ज्यादा गर्व । उनमें से एक तो हिटलर से हाथ मिलाने के खयाल से ही इतना उत्साहित
हुआ जा रहा था (मेरे खयाल से तो अभी भी वह उसी उत्साह में होगा) कि वह एक शब्द भी नहीं बोल पाया।

मुझसे डसेल साहब का साबुन ज़मीन पर गिर गया था। मेरी किस्मत खराब थी कि मेरा पैर उस पर पड़ गया। अब पूरा साबुन ही गायब है। मैंने पापा से कहा है कि मिस्टर डसेल
को इसकी भरपाई कर दें। उनको हर महीने युद्ध के समय के घटिया साबुन की एक ही बट्टी मिलती है।

तुम्हारी ऐन

डायरी के पन्ने (ऐन फ्रैँक) भाग 4

शनिवार, 28 नवंबर, 1942
मेरी प्यारी किट्टी,

हम इन दिनों बिजली का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते रहे हैं और अपने राशन से ज्यादा खर्च कर चुके हैं। नतीजा यह होगा कि और अधिक किफ़ायत, और हो सकता है, बिजली भी कट जाए। एक पखवाड़े के लिए कोई बिजली नहीं, कितना मजेदार खयाल है, नहीं क्या? लेकिन कौन जानता है, यह अरसा इससे कम भी हो
सकता है। बहुत अँधेरा हो जाता है चार, साढ़े चार बजते ही। हम तब पढ़ नहीं सकते। इसलिए वह वक्त हम ऊल-जुलूल हरकतें करके
गुजारते हैं। हम पहेलियाँ बुझाते हैं, अँधेरे मेँ व्यायाम करते हैं, अंग्रेजी या फ्रेंच बोलते हैं और किताबोँ की समीक्षा करते हैं। हम कुछ भी
करें, थोड़ी देर बाद बोर लगने लगता है। कल मैँने वक्त गुजारने का एक नया तरीका खोज निकाला। दूरबीन लगाकर पड़ोसियोँ के रोशनी
वाले कमरों मेँ झाँकना। दिन के वक्त हमारे परदे हटाए नहीं जा सकते, एक इंच भर भी नहीं, लेकिन जब अँधेरा हो तो परदे हटाने मेँ कोई हर्ज नहीं होता।

मुझे पता नहीं था कि हमारे पड़ोस मेँ इतने दिलचस्प लोग रहते हैं। खैर, हमारे पड़ोसी हैं। मैंने जो पड़ोसी देखे-उनमें से एक परिवार डिनर कर रहा था, एक परिवार फिल्म बना रहा था तो सामने वाले घर मेँ एक दंत चिकित्सक एक डरी हुई बुढ़िया से जूझ रहा था।

मिस्टर डसेल जिनके बारे मेँ कहा गया था कि उनकी बच्चोँ
के साथ बहुत पटती है और वे उन्हेँ खूब प्यार करते हैं, दरअसल बाबा आदम के ज़माने के अनुशासन मास्टर हैं और लंबे-लंबे भाषण देने लगते हैं जिन्हेँ सुनकर ही नीँद आने लगे । चूँकि मुझ अकेली को ही यह सुख(?) मिला हुआ है कि मैँ उनके साथ ,महाराज डसेल के साथ यह लंबोतरा ,सँकरा कमरा शेअर करती हूँ ,और चूँकि मुझे ही , हम तीन बच्चोँ मेँ आमतौर पय खरदिमाग और तुनकमिज़ाज समझा जाता है , मेरे पास यही एक उपाय बचता है कि उनकी वही पुरानी डाँट-फटकार और भाषणोँ की लंबी-लंबी उबाऊ श्रृंखला की तरफ़ कान न धरूँ ।न सुनने का नाटक करती रहूँ । ये बात तो खैर मैँ फिर भी सहन कर लेती लेकिन मिस्ट डसेल अच्छे-खासे चुगलखोर हैँ ।



वे जाकर इन सारी बातों की रिपोर्ट मम्मी को दे आते हैं। अगर मिस्टर डसेल ने मुझे कोई उपदेश पिलाया होता है तो उसे दोबारा से मुझे मम्मी से सुनना पड़ता है और मम्मी तो कोई लिहाज़ भी नहीं करती मेरा, और अगर मेरी किस्मत वाकई अच्छी होती है तो मिसेज़ वान मुझे पाँच मिनट बाद बुलवा भेजती हैं।

सचमुच, मीन-मेख निकालने वाले परिवार में आप केँद्र में हों और सारा दिन आपको,
हर तरफ़ से दुत्कारा फटकारा जाए-ये सब झेलना आसान काम नहीं होता।

रात को जब मैँ बिस्तर पर होती हूँ तो अपने पापों और बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई अपनी खामियों के बारे में सोचती हूँ तो वे इतनी ज्यादा होती हैं कि अपने मूड के हिसाब से या तो मैँ उन पर हँस सकती हूँ या रो ही सकती हूँ। तब मैँ इस अजीब से खयाल के साथ सो जाती हूँ कि मैँ जो कुछ हूँ, उससे अलग होना चाहती हूँ या मैँ उससे अलग तरीके से व्यवहार करना चाहती हूँ जो
मैँ हूँ या जो मैँ होना चाहती हूँ।

मेरी प्यारी किट्टी,
अब मैं तुम्हें कितना उलझा
रही हूँ। लेकिन मैँ चीजें
एक बार लिखकर उन्हे
काटना पसंद नहीं करती
और इस कमी वाले वक्त में कागज़ को मोड़-तोड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल देना बिलकुल मना है। इसलिए मैँ तुम्हेँ सिर्फ़ यही सलाह दे सकती हूँ कि तुम ऊपर वाले हिस्से को फिर से पढ़ने की कोशिश मत करना; क्योँकि इसमें तुम्हें बात का सिर-पैर भी नहीं मिलेगा।

तुम्हारी ऐन





डायरी के पन्ने (ऐन फ्रैँक) भाग 3

शुक्रवार, 10 जुलाई, 1942
मेरी प्यारी किट्टी,

मैँने घर के लंबे-चौड़े बखान के साथ हो सकता है तुम्हें बोर कर दिया ही लेकिन मैं अभी भी यही सोचती हूँ कि तुम जानो, हम कहाँ आ पहुँचे हैं। मैं यहाँ कैसे आ पहुँची हूँ, इसके बारे मेँ तुम्हें मेरे आगे के पत्रों से पता चलेगा।

लेकिन पहले मैं अपना किस्सा जारी रखूँगी। मैँने अभी तक
अपनी बात पूरी नहीं की है। 263 प्रिँसेनग्रास्ट मेँ हमारे पहुँचने पर मिएप तुरत हमेँ लंबे गलियारे से सीढ़ियों से ऊपर दूसरी मंजिल पर और फिर एनेक्सी मेँ ले आई । उसने हमेँ अकेला छोड़ा और हमारे पीछे दरवाज़ा बंद कर दिया । मार्गोट अपनी साइकिल पर पहले ही आ चुकी थी हमरी राह देख रही थी ।

हमारी बैठक और दूसरे कमरे सामान से ठूँसे पड़े थे । कहीँ तिल धरने की जगह नहीँ थी । पिछले महीनोँ मेँ जो कार्ड-बोर्ड के बक्से ऑफ़िस मेँ भेजे गए थे ,चारोँ तरफ़ फ़र्श पर , बिस्तरोँ पर फैले पड़े थे । छोटा कमरा फ़र्श से छत तक कपड़ोँ से अटा पड़ा था । उस रात अगर हम ढ़ंग से सोने के बारे मेँ सोचते तो ये सारा सामान तरतीब से लगाने की ज़रूरत थी। हमें सफ़ाई का काम तुरंत शूरू कर देना था। माँ और मार्गोट की तो हाथ हिलाने की भी हिम्मत नहीं थी। वे बिना चादरों चाली गद्दियों पर ही पसर गईँ। थकी, बेहाल और पस्त । लेकिन पापा और मैँने सफ़ाई का मोर्चा सँभाला और तुरंत जुट गए ।

हम सारा दिन पैकिंग खोलते रहे, अलमारियाँ भरते रहे, कीलें ठोकते रहे और तमाम
सामान ठिकाने से लगाते रहे। आखिर थक कर चूर हो गए और साफ़ बिस्तरों पर ढह गए । हमने पूरे दिन में एक बार भी गरम खाना नहीं खाया था। लेकिन परवाह किसे थी। माँ और मार्गोट की थकान के मारे बुरी हालत थी और पापा और मुझे फुर्सत नहीं थी।

मंगलवार की सुबह हमने पिछली रात के छोड़े हुए काम को पूरा करना शुरू किया । बेप और मिएप हमारे राशन कूपनोँ से शॉपिँग करने गई और पापा ने ब्लैक आउट वाले परदे लगाए । मैँने रसोई का फ़र्श रगड़-रगड़ कर साफ़ किया । सवेरे से रात तक हम लगातार काम मेँ जुटे रहे ।

बुधवार तक तो मुझे यह सोचने की फ़ुर्सत ही नहीँ मिली कि मेरी ज़िंदगी मेँ कितना बड़ा परिवर्तन आ चुका है । अब गुप्त एनेक्सी मेँ आने के बाद पहली बार मुझे थोड़ी फ़ुर्सत मिली कि तुम्हेँ बताऊँ कि मेरी ज़िँदगी मेँ क्या हो चुका है और क्या होने जा रहा है ।

तुम्हारी ऐन

डायरी के पन्ने (ऐन फ्रैँक) भाग 2

गुरुवार, 9 जुलाई, 1942
प्यारी किट्टी,

तो आखिर हम चल पड़े। मम्मी, पापा और मैं तेज़ बरसात में भीगते हूए आए। हम तीनों के कंधों पर बड़े-बड़े थैले और शंपिग बैग थे जो अल्लम-गल्लम चीज़ोँ से ऊपर तक ठूँस-ठूँस कर भरे हूए थे। सुबह-सुबह काम पर जाने वाले लोग हमें बड़ी बेचारगी भरी निगाहों से देख रहे थे। आप उन्हेँ देखते ही बता सकते थे कि वे आपके लिए अफ़सोस कर रहे थे कि वे हमें किसी तरह का वाहन उपलब्ध नहीं करा सकते थे। हमारे सीने पर चमकता पीला सितारा सारी दास्तान खुद ही कह देता था।

जब हम गली में पहुँच गए तभी पापा और मम्मी ने धीरे-धीरे बताना शुरू किया कि उनकी योजना क्या थी। पिछले कई महीनों के दौरान हम थोड़ा-थोड़ा करके जितना भी हो सका , फर्नीचर और कपड़े-लत्ते फ्लैट से बाहर ले जाते रहे थे। यह तय कर लिया गया था कि हम लोग 16 जुलाई को अज्ञातवास में चले जाएँगे। अचानक मार्गोट के लिए बुलावा आ जाने के कारण योजना को दस दिन आगे खिसकाना पड़ा था । इसका मतलब यही था कि अब हमेँ कम तैयार किए गए कमरोँ मेँ ही गुज़ारा करना होगा ।

छिपने की जगह पापा के ऑफ़िस की इमारत में ही थी। इसे समझ पाना बाहर वालों
के लिए थोड़ा मुशिकल होगा इसलिए मैं थोड़ा बहुत समझा देती हूँ। पापा के ऑफ़िस में काम करने वाले लोग वहुत ज्यादा नहीं थे। बस, मिस्टर कुगलर, मिस्टर क्लीमेन, मिएप और तेइस बरस की टाइपिस्ट जिसका नाम बेप वोस्कुइल था। उन सबको हमारे आने के बारे में खबर कर दी गई थी। मिस्टर वोस्कुइल, वेप के पिता, दो और सहायकों के साथ गोदाम में काम करते थे, उन्हें कुछ भी नहीं बताया गया भी

इमारत के बारे में थोड़ा-सा वता दूँ। तल मंजिल पर बना
बड़ा-सा गोदाम काम करने को जगह और भंडार घर के रूप में इस्तेमाल होता है। इसके अलग-अलग हिस्से बने हुए हैं। ये हिस्से गोदाम, पिसाई का कमरा वगैरह हैं जहाँ इलायची, लौँग और काली मिर्च वगैरह पीसे जाते हैं।


गोदाम के दरवाज़े से ही सटा हूआ एक बाहर का दरवाजा है जो ऑफ़िस का प्रवेशद्वार
है। ऑफ़िस के दरवाजे के एकदम अंदर की तरफ़ एक दूसरा दरवाज़ा है और उसके पीछे सीढ़ियाँ हैं। सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ेँ तो एक और दरवाज़ा आता है, जिस पर आर-पार दिखाई न
देने वाले काँच की खिड़की लगी है। इस पर काले अक्षरों में 'कार्यालय' लिखा हूआ है। यही आगे वाला बड़ा यानी फ्रंट ऑफ़िस है-ये बहुत बडा हवादार और खूब रौशनी वाला कमरा है। दिन के दौरान यहाँ बेप, मिएप और मिस्टर क्लीमेन काम करते हैं। एक छोटा-सा गलियारा है जिसमें तिजोरी, कपडों की अलमारी और स्टेशनरी की बड़ी-सी अलमारी है। इस गलियारे के पार एक छोटा-सा दमघोँटू, अँधियारा कमरा है-यह बैक ऑफ़िस है, इसमें मिस्टर कुगलर और मिस्टर वानदान बैठा करते थे। अब इसमें सिर्फ मिस्टर कुगलर बैठते हैं। मिस्टर कुगलर
के ऑफ़िस में पैसेज से भी पहुँचा जा सकता है, लेकिन सिर्फ़ काँच वाले दरवाजे के जरिये जिसे अंदर से तो आसानी से खोला जा सकता है, लेकिन बाहर से इतनी आसानी से नहीं।
मिस्टर कुगलर के ऑफ़िस से निकलने के बाद तुम लंबे ,तंग गलियारे से कोयले वाले गोदाम की और बढ़ोगी और चार सीढ़ियाँ चढ़ोगी तो तुम अपने आपको प्राइवेट ऑफ़िस में पाओगी। यह पूरी इमारत का शो पीस है। शानदार महोगनी फ़र्नीचर, लिनोलियम का फर्श, जिस पर कालीन बिछा है, एक रेडियो है, आकर्षक लैँप हैं। सब कुछ उत्तम दरजे का । इसके साथ
वाला कमरा बहुत बडा रसोईघर है। उसमें पानी गरम करने का हीटर है, गैस के दो चूल्हे हैं, साथ में पाखाना है। ये पहली मंजिल का नक्शा है। नीचे की सीढ़ियों वाले गलियारे से
एक रास्ता दूसरी मंजिल की तरफ़ जाता हैं। सीढ़ियाँ खतम होते ही थोड़ी खुली जगह है और उसके दोनों तरफ़ दरवाज़े हैं। दाईँ तरफ़ का दरवाजा मसाले रखने के स्टोर, अटारी और घर
के सामने की तरफ़ वाली मियानी की तरफ़ जाता है। घर के सामने की तरफ़ से एक परंपरागत डच डिज़ाइन को, सीधी और इतनी घुमावदार सीढ़ियाँ है कि एड़ियों में मोच आ जाए । यह रास्ता गली की तरफ़ खुलता है ।

सीढ़ियोँ के ऊपर बनी जगह से दाईँ तरफ़ का दरवाज़ा घर के पिछवाड़े की तरफ़ हमारी गुप्त एनेक्सी की तरफ़ जाता है । कोई कल्पना भी नहीँ कर सकता था कि इस सपाट मटमैले दरवाज़े के पीछे इतने कमरे भी हो सकते हैँ । दरवाज़े के आगे सीढ़ी का बस , एक ही पायदान है । इसे पार करते ही आप भीतर होते हैँ । आपके सामने ही कई सीढ़ियाँ ऊपर की तरफ़ चली जाती हैँ । बाईँ तरफ़ एक तंग-सा गलियारा है जो एक बड़े कमरे मेँ जाकर खुलता है । यही कमरा फ्रैँक परिवार के लिए ड्राइंगरूम और बेडरूम का काम करता है । अगला दरवाज़ा एक छोटे कमरे का है । यह परिवार की दो जवान लड़कियोँ के बैडरूम और स्टडीरूम के काम आता है । सीढ़ियोँ की दाईँ तरफ़ गुसलखाना और बिना खिड़कियोँ वाला एक कमरा है जिसमेँ एक वॉश बेसिन लगा हुआ है । किनारे की तरफ़ वाले दरवाज़े से पाखाने की तरफ़ और दूसरे दरवाजे से मेरे और मार्गोट के कमरे की तरफ़ जाया जा सकता है। यदि आप और सीढ़ियाँ चढ़कर बिलकुल ऊपर तक चले जाएँ तो
आप नहर के किनारे बने इस पुराने मकान मेँ ऊपर एक बहुत बड़ा, खुला-खुला और हवादार कमरा देखकर हैरान रह जाएँगे। इसमें एक गैस का चूल्हा है और एक सिँक है। ( भगवान का शुक्र है कि यह
मिस्टर कुलगर की प्रयोगशाला के काम आता था।) यह मिस्टर
और मिसेज़ वान दान का बेडरूम और रसोईघर होगा। इसे कॉमन कमरे, डाइनिँगरूम और हम सबके लिए स्टडी के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकेगा। एक छोटा-सा कमरा पीटर वान दान के लिए बेडरूम का काम करेगा। और फिर जैसी इमारत के सामने की तरफ़ है, वैसी ही अटारी और मियानी यहाँ भी हैं, तो ये रहा हमारा नया गरीबखाना। लो, मैंने तुम्हें पूरी इमारत की सैर करवा दी।

तुम्हारी ऐन

डायरी के पन्ने (ऐन फ्रैँक) भाग 1

बुधवार ,8 जुलाई ,1942
प्यारी किट्टी ,

ऐसा लग रहा है मानो रविवार के बाद से बरसों
बीत गए हों। इतना कुछ हो गया है जैसे पूरी दुनिया ही उलट-पुलट गई है। लेकिन जैसा कि तुम देख सकती हो, किट्टी, मैँ जिँदा हूँ , लेकिन यह मत पूछो कि कहाँ और कैसे। मैँ
जो कुछ भी कह रही हूँ उसमें शायद ही कोई बात तुम्हारे पल्ले पड़े, इसलिए मैं तुम्हेँ शुरू से बताती हूँ कि रविवार की दोपहर को क्या हुआ था।

तीन बजे थे। हैलो जा चुका था लेकिन वह दोबारा फिर से आने वाला था, तभी दरवाजे
की घंटी बजी। चूँकि मैं बाल्कनी में धूप में अलसाई सी बैठी पढ़ रही थी इसलिए मुझे घंटी की आवाज़ सुनाई नहीं दी। कुछ देर बाद रसोई के दरवाजे पर मार्गोट नज़र आई। वह बहुत गुस्से मेँ थी-पापा को ए.एस.एस. से बुलाए जाने का नोटिस मिला है, वह फुसफुसाई। माँ मिस्टर वान दान को देखने गई हुई हैं। मिस्टर वान दान पापा के बिजनेस पार्टनर हैं और
उनके अच्छे दोस्त हैं।

मैं आवाक् रह गई थी।
बुलावा ?
हर कोई जानता था कि बुलावे का क्या मतलब होता है। यातना शिविरों के नजारे और
वहाँ की कोठरियों के दृश्य मेरी आँखों के आगे तैर गए। हम अपने पापा को इस तरह की नियति के भरोसे कैसे छोड़ सकते थे। हम उन्हेँ हर्गिज नहीं जाने देंगे। मार्गोट ने उस वक्त कहा था जब वह ड्राइंग रूम में माँ की राह देख रही थी। माँ मिस्टर वान दान से पूछने गई हैं कि हम कल ही छुपने की जगह पर जा सकते हैं। वान दान परिवार भी हमारे साथ जा रहा है। हम लोग कुल मिलाकर सात लोग होंगे। मौन । हम आगे बात ही नहीं कर पाए। यह खयाल कि पापा यहूदी अस्पताल में किसी को देखने गए हुए हैं, माँ के लिए इंतजार की लंबी घड़ियाँ, गरमी, सस्पेंस, इन सारी चीजों ने हमारे शब्द ही हमसे छीन लिए थे। तभी दरवाजे की घंटी बजी-यह हैलो ही होगा, मैंने कहा था।

दरवाजा मत खोलो, मार्गोट ने हैरान ढोते मुझे रोका, लेकिन इसकी ज़रूरत नहीं थी क्योँकि हमने नीचे से माँ और मिस्टर वान दान को हैलो से बात करते हूए सुन लिया था। तब दोनों ही भीतर आए और अपने पीछे दरवाजा बंद कर दिया। जब भी दरवाजे की घंटी बजती तो मुझे या मार्गोट को उचककर नीचे देखना पड़ता कि क्या पापा आ गए हैं। हमने
किसी और को भीतर नहीं आने दिया। मुझे और मार्गोट को बाहर भेज दिया गया था क्योंकि वान दान माँ से अकेले में बात करना चाहते थे। जब मैँ और मार्गोट बेडरूम में बैठे बात कर रहे थे तो उसने मुझे बताया कि यह बुलावा पापा के लिए नहीं बल्कि खुद उसके लिए था । इस दूसरे सदमे से मैँ तो चीखने लगी । मार्गोट सोलह बरस की थी । तय है कि वे लोग इस उम्र की लड़कियोँ को उनके खुद के भरोसे यहाँ से भेजना चाहते हैँ । लेकिन भगवान का शुक्र है ,वह नहीँ जाएगी । माँ ने मुझसे यही कहा था । पापा जब मुझसे छिपने की जगह पर जाने की बात कर रहे थे तो उन्होँने भी शायद यही कहा होगा ।

अज्ञातवास...हम कहाँ जाकर छुपेँगे? शहर मेँ ? किसी घर मेँ? किसी परछत्ती पर? कब...कहाँ...कैसे...ये ऐसे सवाल थे जो मैँ पूछ नहीँ सकती थी लेकिन फिर भी ये सवाल मेरे दिमाग मेँ कुलबुला रहे थे ।

मार्गोट और मैँने अपनी बहुत ज़रूरी चीजेँ एक थैले मेँ भरनी शुरू कीँ ।

मैँने सबसे पहले अपने थैले मेँ यह डायरी ठूँसी । इसके बाद मैँने कर्लर रुमाल ,स्कूली किताबेँ ,एक कंघी और कुछ पुरानी चिट्ठियाँ थैले मेँ डालीँ । मैँ अज्ञातवास मेँ जाने के खयाल से इतनी अधिक आतंकित थी कि मैँने थैले मेँ अजीबोगरीब चीज़ेँ भर डालीँ ,फिर भी मुझे अफ़सोस नहीँ है । स्मृतियाँ मेरे लिए पोशाकोँ की तुलना मेँ ज्यादा मायने रखती हैँ ।तब हमने मिस्टर क्लीमेन को फ़ोन किया कि क्या वे शाम को हमारे घर आ पाएँगे ।

मिस्टर वान दान चले गए ताकि मिएप को लिवा ला सकेँ । मिएप आईँ और वादा किया कि वे रात को एक बार फिर आएँगी ।वे अपने साथ जूतोँ ,ड्रेसोँ ,जैकेटोँ , अंडरवियरोँ तथा स्टॉकिंग्स से भरा एक थैला लेकर गईँ । इसके बाद हमारे फ़्लैट मेँ सन्नाटा छा गया । हममेँ से किसी की भी खाना खाने की इच्छा ही नहीँ हुई । मौसम अभी भी गरम था और सारी चीज़ेँ जैसे हमारे लिए अजनबी होती चली जा रही थीँ ।

हमने अपना ऊपर वाला एक बड़ा कमरा तीसेक बरस के
एक विधुर मिस्टर गोल्डश्म्ड्टि को किराए पर दे रखा था। तय था कि उसे उस शाम कोई काम धंधा नहीं था, इसके बावजूद-हमारे कई इशारों के बावजूद वह रात दस बजे तक वहीं पर मँडराता रहा।
मिएप और जॉन गिएज रात ग्यारह बजे आए। मिएप 1933 से पापा की कंपनी मेँ काम कर रही थीं और इसलिए पापा के करीबी दोस्तों मेँ थीं। उसके पति जॉन भी पापा के अच्छे दोस्त थे। एक बार फिर जूते, स्टॉकिंग्स, अंडरवियर और किताबे मिएप के गहरे
बैग और जॉन की जेबों मेँ गायब हो रही थीं। साढ़े ग्यारह बजे वे खुद भी बिदा लेकर चले गए। मैं बुरी तरह से थक गई थी, फिर भी एक बात मैं अच्छी तरह जानती थी कि यह रात मेरे अपने
बिस्तर मेँ मेरी आखिरी रात है। मैं जैसे घोड़े बेचकर सोई। मेरी नीँद अगली सुबह साढ़े पाँच बजे मार्गोट के जगाने पर ही खुली। किस्मत
से यह सुबह रविवार की तरह गरम नहीं थी । दिन भर गरम बरसात की फुहारें पड़ती रहीं। हम चारों ने अपने बदन पर इतने ज्यादा
कपड़े ले लिए थे मानो हम रात फ्रिज मेँ गुजारने जा रहे होँ। वजह सिर्फ इतनी-सी थी कि हम अपने साथ ज़्यादा से ज्यादा कपड़े ले जाना चाहते थे। हम जिस स्थिति मेँ थे उसमें कोई यहूदी व्यक्ति
कपड़ोँ से भरा सूटकेस ले जाने के बारे मेँ सोच भी नहीं सकता था। मैँने दो बनियाने, तीन पैंटें, एक ड्रेस और उसके ऊपर एक स्कर्ट, एक जैकेट, एक बरसाती, दो जोड़ी स्टॉकिंग्स, भारी जूते, एक कैप, एक स्कार्फ़, और इन सबके अलावा और भी बहुत कुछ
ओढ़-पहन रखा था। घर से निकलने से पहले ही मेरा दम घुटने लगा था लेकिन किसी को भी परवाह नहीँ थी कि मुझसे पूछे -ऐन ,कैसा लग रहा है तुम्हेँ?

मार्गोट ने अपने थैले में स्कूल की किताबें दूँस ली थीं और
वह अपनी साइकिल लेने चली गई और फिर वह मिएप की
निगरानी में अज्ञात जगह के लिए रवाना हो गई। कुछ भी रहा हो,मेरे लिए तो वह अनजान जगह ही थी ; क्योँकि मुझे अभी भी पता नहीँ था कि हम कहाँ जाने वाले हैँ । साढ़े सात बजे हमने भी अपने पीछे दरवाज़ा बंद किया । मूर्त्जे ही एकमात्र ऐसी जीवित प्राणी थी जिसे मुझे गुड-बाई कहना था। हमने गोल्डश्म्ड्टि के लिए जो नोट छोड़ा उसके अनुसार
बिल्ली को पड़ोसियोँ के यहाँ छोड़ा जाना था। वे ही अब उसकी देखभाल करने वाले थे।
खाली बिस्तरे, मेज़ पर बिखरा नाश्ते का सामान, रसोई में बिल्ली के लिए सेर भर मीट, ये सारी चीजें यही दर्शाती थीं कि हम बहुत ही हड़बड़ी में छोड़-छाड़कर गए हैं। लेकिन इंप्रैशन छोड़कर जाने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं थी। हम तो किसी भी तरह वहाँ से निकल जाना
चाहते थे और कहीं सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाना चाहते थे। और कोई बात मायने नहीं रखती थी

बाकी कल,

तुम्हारी ऐन

अतीत मेँ दबे पाँव (ओम थानवी )

भी भी मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं, दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। ये सिंधु घाटीसभ्यता के परवर्ती यानी परिपक्व दौर के शहर हैं। खुदाई में और शहर भी मिले हैं। लेकिन मुअनजो-दड़ो ताम्र काल के शहरों मेँ सबसे बड़ा है। वह सबसे उत्कृष्ट भी है। व्यापक खुदाई यहीं पर संभव हुई। बड़ी तादाद में इमारतें, सड़केँ , धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भांडे , मुहरें, साज़ो-सामान और खिलौने
आदि मिले। सभ्यता का अध्ययन संभव
हुआ। उधर सैकड़ोँ मील दूर हड़प्पा के ज्यादातर साक्ष्य रेललाइन बिछने के दौरान 'विकास की भेंट चढ़ गए ।'

मुअनजो-दड़ो के बारे में धारणा है कि अपने दौर में वह घाटी की सभ्यता का केँद्र
रहा होगा। यानी एक तरह की राजधानी। माना जाता है यह शहर दो सौ हैक्टर क्षेत्र में फैला था। आबादी कोई पंचासी हजार थी। जाहिर है, पाँच हजार साल पहले यह 
आज के 'महानगर' की परिभाषा को भी लाँघता होगा।

दिलचस्प बात यह है कि सिंधु घाटी मैदान की संस्कृति थी, पर पूरा मुअनजो-दड़ो छोटे-मोटे टीलों पर आबाद था। ये टीले प्राकृतिक नहीं थे। कच्ची और पक्की दोनों तरह की ईंटों से धरती की 
सतह को ऊँचा उठाया गया था , ताकि सिंधु का पानी बाहर पसर आए तो उससे बचा जा सके ।
मुअनजो -दड़ो की एक गली
मुअनजो-दड़ो की खूबी यह है
कि इस आदिम शहर की
सड़कोँ और गलियोँ मेँ आप
आज भी घूम-फिर सकते हैँ ।
यहाँ की सभ्यता और संस्कृति
का सामान भले अजायबघरोँ
की शोभा बढ़ा रहा हो ,शहर
जहाँ था अब भी वहीँ है । आप
इसकी किसी भी दीवार पर
पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैँ
। वह एक खंडहर क्योँ न हो ,
किसी घर की देहरी पर पाँव
रखकर आप सहसा सहम
सकते हैँ , रसोई की खिड़की
पर खड़े होकर उसकी गंध
महसूस कर सकते हैँ ।

03 9
मुअनजो-दड़ो की
एक मुख्य सड़क
जो 33 फीट
चौड़ी है

या शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान देकर उस
बैलगाड़ी की रुन-झुन सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्व
की तसवीरों मेँ मिट्टी के रंग में देखा है। सच है कि यहाँ किसी आँगन की टूटी-फूटी
सीढ़ियाँ अब आपको कहीं नहीं ले जातीं; वे आकाश की तरफ़
अधूरी रह जाती हैं। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े
होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की
छत पर हैं; वहाँ से आप इतिहास को नहीं, उसके पार
झाँक रहे हैं।

सबसे ऊँचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है। मगर यह
मुअनजो-दड़ो की सभ्यता के बिखरने के बाद एक जीर्ण-
शीर्ण टीले पर बना। कोई पचीस फुट ऊँचे चबूतरे पर
छब्बीस सदी पहले बनी ईंटों
के दम पर स्तूप को आकार
दिया गया। चबूतरे पर
भिक्षुओँ के कमरे भी हैं। 1922
में जब राखालदास बनर्जी
यहाँ आए, तब वे इसी स्तूप
की खोजबीन करना चाहते
थे। इसके गिर्द खुदाई शुरू
करने के बाद उन्हेँ इलहाम
हुआ कि यहाँ ईसा पूर्व के
निशान हैं। भारतीय पुरातत्त्व
सर्वक्षण के महानिदेशक जॉन
मार्शल के निर्दश पर खुदाई का
व्यापक अभियान शुरू हुआ।
धीमे-धीमे यह खोज विशेषज्ञों
को सिंधु घाटी सभ्यता की
देहरी पर ले आई। इस खोज
ने भारत को मिस्र और
मेसोपोटामिया (इराक) की
प्राचीन सभ्यताओं के समकक्ष
ला खड़ा किया। दुनिया की
प्राचीन सभ्यता होने के
भारत के दावे को पुरातत्त्व का
वैज्ञानिक आधार मिल गया।

पर्यटक बँगले से एक सर्पिल
पगडंडी पार कर हम सबसे
पहले इसी स्तूप पर पहुँचे।
पहली ही झलक ने हमेँ अपलक
कर दिया। इसे नागर भारत
का सबसे पुराना लैंडस्केप
कहा गया है। यह शायद
सबसे रोमाँचक भी है। न
आकाशा बदला है ,न धरती ।
पर कितनी सभ्यताएँ ,
इतिहास और कहानियाँ बदल
गईँ । इस ठहरे हुए दृश्य मेँ
हज़ारोँ साल से लेकर पलभर
पहले तक की धड़कन बसी
हुई है । इसे देखकर सुना जा
सकता है । भले ही किसी
जगह के बारे मेँ हमने कितना
पढ़-सुन रखा हो , तसवीरेँ
या वृत्तचित्र देखे होँ , देखना
अपनी आँख से देखना है।
बाकी सब आँख का झपकना
है। जैसे यात्रा अपने पाँव
चलना है, बाकी सब तो
कदम-ताल है।

मौसम जाड़े का था पर दुपहर
की धूप बहूत कड़ी थी। सारे
आलम को जैसे एक फीके
रंग मेँ रंगने की कोशिश करती
हुई । यह इलाका राजस्थान
से बहूत मिलता-जुलता है।
रेत के टीले नहीं हैं। खेतों का
हरापन यहाँ है। मगर बाकी
वही खुला आकाश, सूना
परिवेश; धूल, बबूल और
ज्यादा ठंड, ज्यादा गरमी।
मगर यहाँ की धूप का मिजाज़
जुदा है। राजस्थान की धूप
पारदर्शी है। सिंध की धूप
चौँधियाती है। तसवीर
उतारते वक्त आप कैमरे में
ज़रूरी पुर्ज़े न घुमाएँ तो ऐसा
जान पड़ेगा जैसे दूश्योँ के रंग
उड़े हुए हों।

पर इससे एक फ़ायदा हुआ।
हमें हर दृश्य पर नज़रें
दुबारा फिरानी पड़ती । इस
तरह बार-बार निहारेँ तो
दृश्य जेहन में ऐसे ठहरते हैं
मानो तसवीर देखकर उनकी
याद ताज़ा करने की कभी
ज़रूरत न पड़े।

स्तूप वाला चबूतरा मुअनजो- दड़ो के सबसे खास हिस्से के एक सिरे पर स्थित है। इस हिस्से को पुरातत्व के विद्वान 'गढ़' कहते हैं। चारदीवारी के भीतर ऐतिहासिक शहरों के
सत्ता-केँद्र अवस्थित होते थे, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता। बाकी शहर गढ़ से
कुछ दूर बसे होते थे। क्या यह रास्ता भी दुनिया को मुअनजो
-दड़ो ने दिखाया?

मुअनजो-दड़ो मेँ बौद्ध स्तूप
सभी अहम और अब दुनिया-भर मेँ प्रसिद्ध इमारतों के
खंडहर चबूतरे के पीछे यानी पश्चिम मेँ हैं। इनमें 'प्रशासनिक' इमारतें, सभा भवन, ज्ञानशाला और कोठार हैं। वह अनुष्ठानिक महाकुंड भी जो सिंधु घाटी सभ्यता के अद्वितीय वास्तुकौशल को
स्थापित करने के लिए अकेला ही काफ़ी भाना जाता है। असल मेँ यहाँ यही एक निर्माण है जो अपने मूल स्वरूप के बहुत नज़दीक बचा रह सका है। बाकी इमारतें इतनी उजड़ी हुई हैं कि कल्पना
और बरामद चीज़ोँ के जोड़ से उनके उपयोग का अंदाजा भर लगाया जा सकता है।

नगर नियोजन की मुअनजो-दड़ो अनूठी मिसाल है। इस कथन का मतलब आप बड़े चबूतरे से नीचे की तरफ़ देखते हुए सहज ही भाँप सकते हैं। इमारतें भले खंडहरों मेँ बदल चुकी हों मगर 'शहर' की सड़कों और गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिए ये खंडहर काफ़ी हैं। यहाँ की कमोबेश सारी सड़केँ सीधी हैं या फिर आड़ी। आज वास्तुकार इसे 'ग्रिड प्लान' कहते हैं। आज की
सेक्टर-मार्का कॉलोनियों में हमेँ आड़ा-सीधा 'नियोजन' बहुत मिलता है। लेकिन वह रहन-सहन को नीरस बनाता है। शहरों में नियोजन के नाम पर भी हमेँ अराजकता ज्यादा हाथ लगती है। ब्रासीलिया या
चंडीगढ और इस्लामाबाद 'ग्रिड' शैली के शहर हैं जो आधुनिक नगर नियोजन के प्रतिमान ठहराए जाते हैं, लेकिन उनकी बसावट शहर के खुद विकसने का कितना अवकाश छोड़ती है इस पर
बहुत शंका प्रकट की जाती है ।

मुअनजो-दड़ो की साक्षर सभ्यता एक सुसंस्कृत समाज की स्थापना थी , लेकिन उसमेँ नगर नियोजन और वास्तुकला की आखिर कितनी भूमिका थी ?

स्तूप वाले चबूतरे के पीछे 'गढ़' और ठीक सामने 'उच्च' वर्ग की बस्ती है । उसके पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंधु बहती है । पूरब की इस बस्ती से दक्षिण की तरफ़ नज़र दौड़ाते हुए पूरा पीछे घूम जाएँ तो आपको मुअनजो-दड़ो के खंडहर हर जगह दिखाई देँगे । दक्षिण मेँ जो टूटे -फूटे घरोँ का जमघट है , वह कामगारोँ की बस्ती है। कहा जा सकता है इतर वर्ग की। संपन्न समाज में वर्ग भी होंगे। लेकिन क्या निम्न वर्ग यहाँ नहीं था? कहते हैं, निम्न वर्ग के घर इतनी मज़बूत सामग्री के नहीं रहे होंगे कि पाँच हजार साल टिक सके। उनकी बस्तियाँ और दूर रही होंगीं। यह भी है कि सौ साल में अब तक इस इलाके के एक-तिहाई हिस्से की खुदाई ही हो पाई है। अब वह भी बंद हो चुकी है।

हम पहले स्तूप के टीले से महाकुंड के विहार की दिशा में उतरे। दाईँ तरफ़ एक लंबी
गली दीखती है। इसके आगे महाकुंड है। पता नहीं सायास है या संयोग कि धरोहर के
प्रबंधकों ने उस गली का नाम दैव मार्ग (डिविनिटि स्ट्रीट) रखा है। माना जाता है कि उस सभ्यता में सामूहिक स्नान किसी अनुष्ठान का अंग होता था। कुंड करीब चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। गहराई सात फुट । कुंड में उत्तर और दक्षिण से सीढियाँ उतरती हैं। इसके तीन तरफ़ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं। उत्तर में दो पाँत में आठ स्नानघर हैं। इनमें
किसी का द्वार दूसरे के सामने नहीं खुलता। सिद्ध वास्तुकला का यह भी एक नमूना है।

05 8
मुअनजो-दड़ो का
प्रसिद्ध जल कुंड

इस कुंड में खास बात पक्की ईँटों का जमाव है। कुंड का पानी रिस न सके और बाहर
का 'अशुद्ध' पानी कुंड में न आए, इसके लिए कुंड के तल में और दीवारों पर ईँटों के
बीच चूने और चिरोड़ी के गारे का इस्तेमाल हुआ है। पार्श्व की दीवारों के साथ दूसरी दीवार खड़ी की गई है जिसमेँ सफ़ेद डामर का प्रयोग है । कुंड के पानी के बंदोबस्त के लिए एक तरफ़ कुआँ है । दोहरे घेरे वाला यह अकेला कुआँ है । इसे भी कुंड के पवित्र या अनुष्ठानिक होने का प्रमाण माना गया है । कुंड से पानी को बाहर बहाने के लिए नालियाँ हैँ । इनकी खासियत यह है कि ये भी पक्की ईंटोँ से बनी हैँ और ईंटोँ से ढ़की भी हैँ ।

06 8
जल निकासी का
उन्नत प्रबंध जो
सिंधु घाटी की
अनूठी विशेषता है ।

पक्की और आकार में समरूप धूसर ईँटेँ तो सिंधु घाटी सभ्यता की विशिष्ट पहचान मानी ही गई हैं, ढकी हुई नालियों का उल्लेख भी
पुरातात्त्विक विद्वान और इतिहासकार ज़ोर देकर करते हैं। पानी-निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहल के इतिहास में नहीं मिलता।

महाकुंड के बाद हमने 'गढ़' की 'परिक्रमा' की। कुंड के
दूसरी तरफ़ विशाल कोठार है। कर के रूप में हासिल अनाज शायद यहाँ जमा किया जाता था। इसके निर्माण रूप खासकर चौकियों और हवादारी को देखकर ऐसा कयास लगाया गया है । यहाँ नौ-नौ चौकियोँ की तीन कतारेँ हैँ । उत्तर मेँ एक गली है जहाँ बैलगाड़ियोँ का -जिनके प्रयोग के साक्ष्य मिले हैँ -ढ़ुलाई के लिए आवागमन होता होगा । ठीक इसी तरह का कोठार हड़प्पा मेँ भी पाया गया है ।

अब यह जगज़ाहिर है कि सिंधु घाटी के दौर मेँ व्यापार ही नहीँ ,उन्नत खेती भी होती थी । बरसोँ यह माना जाता रहा कि सिंधु घाटी के लोग अन्न उपजाते नहीं थे, उसका आयात करते थे। नयी खीज ने इस खयाल को निर्मूल साबित किया है। बल्कि अब कुछ विद्वान मानते हैं कि वह मूलत: खेतिहर और
पशुपालक सभ्यता ही थी। लोहा शुरू मेँ नहीं था पर पत्थर और ताँबे की बहुतायत थी। पत्थर
सिंध मेँ ही था, ताँबे की खानें राजस्थान मेँ थीं। इनके उपकरण खेती-बाड़ी मेँ प्रयोग किए जाते थे। जबकि मिस्र और सुमेर मेँ चकमक और लकड़ी के उपकरण इस्तेमाल होते थे। इतिहासकार इरफान हबीब के मुताबिक यहाँ के लोग रबी की फ़सल लेते थे। कपास, गेहूँ , जौ, सरसों और चने की उपज के पुख्ता सबूत खुदाई मेँ मिले हैं। वह सभ्यता का तर-युग था जो धीमे-धीमे सूखे मेँ ढल गया।

विद्वानों का मानना है कि यहाँ ज्वार, बाजरा और रागी की उपज भी होती थी। लोग खजूर, खरबूज़े और अंगूर उगाते थे। झाडियों से बेर जमा करते थे। कपास की खेती भी होती थी। कपास को छोड़कर बाकी सबके बीज मिले हैं और उन्हेँ परखा गया है। कपास के बीज तो नहीं, पर सूती कपड़ा मिला है। ये दुनिया मेँ सूत के दो सबसे पुराने नमूनों मेँ एक है।
दूसरा सूती कपड़ा तीन हजार ईसा पूर्व का है जो जॉर्डन मेँ मिला। मुअनजो-दड़ो मेँ सूती की कताई-बुनाई के साथ रंगाई भी होती थी। रंगाई का एक छोटा कारखाना खुदाई मेँ माधोस्वरूप वत्स को मिला था। छालटी (लिनन) और ऊन कहते हैं यहाँ सुमेर से आयात होते थे। शायद
सूत उनको निर्यात होता हो। जैसा कि बाद मेँ सिंध से मध्य एशिया और यूरोप को सदियों
हुआ। प्रसंगवश , मेसोपोटामिया के शिलालेखोँ मेँ मुअनजो-दड़ो के लिए 'मेलुहा' शब्द का संभावित प्रयोग मिलता है ।

महाकुंड के उत्तर -पूर्व मेँ एक बहुत लंबी-सी इमारत के अवशेष हैँ । इसके बीचोँबीच खुला बड़ा दालान है । तीन तरफ़ बरामदे हैँ । इनके साथ कभी छोटे-छोटे कमरे रहे होँगे । पुरातत्त्व के जानकार कहते हैँ कि धार्मिक अनुष्ठानोँ मेँ ज्ञानशालाएँ सटी हुई होती थीँ , उस नज़रिए से इसे 'कॉलेज ऑफ प्रीस्ट्स' माना जा सकता है । दक्षिण मेँ एक और भग्न इमारत है । इसमेँ बीस खंभोँ वाला एक बड़ा हॉल है । अनुमान है कि यह राज्य सचिवालय , सभा -भवन या कोई सामुदायिक केँद्र रहा होगा ।

गढ़ की चारदीवारी लाँघ कर हम बस्तियोँ की तरफ़ बढ़े । ये 'गढ़' के मुकाबले छोटे टीलोँ पर बनी हैँ , इसलिए इन्हेँ 'नीचा नगर' कहकर भी पुकारा जाता है । खुदाई की प्रक्रिया मेँ टीलोँ का आकार घट गया है , कहीँ-कहीँ वे फिर ज़मीन से जा मिले हैँ और बस्ती के कुएँ ,लगता है जैसे मीनारोँ की शक्ल मेँ धरती छोड़कर बाहर निकल आए हैँ ।

पूरब की बस्ती 'रईसोँ की बस्ती ' है । हालाँकि आज के युग मेँ पूरब की बस्तियाँ गरीबोँ की बस्तियाँ मानी जाती हैँ । मुअनजो -दड़ो इसका उलट था । यानी बड़े घर ,चौड़ी सड़केँ , ज्यादा कुएँ। मुअनजो-दड़ो के सभी खंडहरों को खुदाई कराने वाले पुरातत्त्ववेत्ताओं का संक्षिप्त नाम दे दिया गया है। जैसे 'डीके' हलका-दीक्षित काशीनाथ की खुदाई । उनके नाम पर यहाँ दो हलके
हैं। 'डीके' क्षेत्र दोनों बस्तियों में सबसे महत्वपूर्ण हैं। शहर की मुख्य सड़क (फ़र्स्ट स्ट्रीट) यहीं पर है। यह बहुत लंबी सड़क है , मानो कभी पूरे शहर को नापती हो। अब यह आधा मील बची है। इसकी चौड़ाई तैँतीस फ़ुट है। मुअनजो-दड़ो से तीन तरह के वाहनों के साक्ष्य मिले हैं। इनमें सबसे चौड़ी बैलगाड़ी रही होगी। इस सड़क पर दो बैलगाडियाँ एक साथ आसानी से आ-जा सकती हैं। यह सड़क वहाँ पहुँचती है, जहाँ कभी 'बाजार' था।

इस सड़क के दोनों ओर घर हैं। लेकिन सड़क की ओर सारे
घरों की सिर्फ पीठ दिखाई देती है। यानी कोई घर सड़क पर नहीं खुलता; उनके दरवाज़े अंदर गलियों में हैं। दिलचस्प संयोग है कि
चंडीगढ मेँ ठीक यही शैली पचास साल पहले कार्बूजिए ने
इस्तेमाल की। वहाँ भी कोई घर मुख्य सड़क पर नहीं खुलता। आपको किसी के घर जाने के लिए मुख्य सड़क से पहले सेक्टर के भीतर दाखिल होना पड़ता है, फिर घर की गली मेँ, फिर घर में। क्या कार्बूजिए ने यह सीख मुअनजो-दड़ो से ली? कहते हैं, कविता मेँ से कविता निकलती है। कलाओं की तरह वास्तुकला मेँ भी कोई प्रेरणा चेतन-अवचेतन ऐसे ही सफ़र करती होगी!

ढकी हुईं नालियाँ मुख्य सड़क के दोनों तरफ़ समांतर दिखाई
देती हैं। बस्ती के भीतर भी इनका यही रूप है। हर घर मेँ एक स्नानघर है। घरों के भीतर से पानी या मैल की नालियाँ बाहर हौदी तक आती हैं और फिर नालियों के जाल से जुड़ जाती हैं। कहीँ-कहीँ से खुली हैं पर ज्यादातर बंद हैं। स्वास्थ्य के प्रति मुअनजो-दड़ो के बाशिंदोँ के सरोकारो का यह बेहतर उदाहरण है । बस्ती के भीतर छोटी सड़केँ हैँ और उनसे छोटी गलियाँ भी । छोटी सड़केँ नौ से बारह फ़ुट तक चौड़ी हैँ । इमारतोँ से पहले जो चीज़ दूर से ध्यान खीँचती हैँ ,वह है कुओँ का प्रबधं । ये कुएँ भी पकी हुई एक ही आकार की ईँटो से बने हैँ । इतिहासकार कहते हैँ सिंधु घाटी सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोद कर भू-जल तक पहुँची।
उनके मुताबिक केवल मुअनजो-दड़ो में सात सौ के करीब कुएँ थे।

07 6
मुअनजो -दड़ो
का एक कुआँ

नदी, कुएँ, कुंड, स्नानागार और बेजोड़ पानी-निकासी। क्या सिंधु घाटी सभ्यता को
हम जल-संस्कृति कह सकते हैं?

बड़ी बस्ती में पुरातत्त्वशास्त्री काशीनाथ दीक्षित के नाम पर एक हलका 'डीके-जी' कहलाता है। इसके घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। मोटी दीवार का अर्थ यह लगाया जाता है कि उस पर दूसरी मंजिल भी रही होगी। कुछ दीवारों मेँ छेद हैं जो संकेत देते हैं कि दूसरी मंजिल उठाने के लिए शायद यह शहतीरों की जगह हो। सभी घर ईंट के हैं। एक ही आकार की ईंटें-1:2:4 के अनुपात की । सभी भट्टी मेँ पकी हुईँ । हड़प्पा से हटकर , जहाँ पक्की और कच्ची ईँटोँ का मिला-जुला निर्माण उजागर हुआ है । मुअनजो -दड़ो मेँ पत्थर का प्रयोग मामूली हुआ । कहीँ-कहीँ नालियाँ ही अनगढ़ पत्थरोँ से ढकी दिखाई दीँ ।

इन घरों मेँ दिलचस्प बात यह है कि सामने की दोबार मेँ केवल प्रवेश द्वार बना है, कोई खिड़की नहीं है। खिड़कियाँ शायद ऊपर की दीवार मेँ रहती हों, यानी दूसरी मंजिल पर । बड़े घरों के भीतर आँगन के चारों तरफ़ बने कमरों मेँ खिड़कियों ज़रूर हैं। बड़े आँगन वाले घरों के बारे मेँ समझा जाता है कि वहॉ कुछ उद्यम होता होगा। कुम्हारी का काम या कोई धातु-कर्म । हालाँकि सभी घर
खंडहर हैं और दिखाई देने वाली चीजों से हम सिर्फ़ अंदाजा लगा सकते हैं।

घर छोटे भी हैं और बड़े भी। लेकिन सब घर एक कतार मेँ
हैं। ज्यादातर घरों का आकार तकरीबन तीस-गुणा-तीस फुट का होगा। कुछ इससे दुगने और तिगुने आकार के भी हैं। इनकी वास्तु शैली कमोबेश एक-सी प्रतीत होती है। व्यवस्थित और नियोजित
शहर में शायद इसका भी कोई कायदा नगरवासियों पर लागू हो। एक घर को 'मुखिया' का घर कहा जाता है। इसमें दो आँगन और करीब बीस कमरे हैं।

डीके-बी, सी हलका आगे पूरब मेँ है। दाढ़ी वाले 'याजक-नरेश' की मूर्ति इसी तरफ़ के एक घर से मिली थी। डीके-जी की "मुख्य सड़क" पर दक्षिण की ओर बढ़े तो डेढ़ फर्लाँग की दूरी पर
'एचआर' हलका है। सड़क उसे दो भागों मेँ बॉट देती है। ये हलका हेरल्ड हरग्रीव्ज के नाम पर है जिन्होंने 1924-25 मेँ राखालदास बनर्जी के बाद खुदाई करवाई थी। यहीं पर एक बड़े घर मेँ कुछ
कंकाल मिले थे, जिन्हेँ लेकर कई तरह की कहानियाँ बनती रहीँ प्रसिद्ध 'नर्तकी' शिल्प भी यहीँ एक छोटे घर की खुदाई मेँ निकला था । इसके बारे मेँ पुरातत्त्वविद मार्टिमर वीलर ने कहा था कि संसार मेँ इसके जोड़ की दूसरी चीज़ शायद ही होगी । यह मूर्ति अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय मेँ है ।

यहीँ पर एक बड़ा घर है जिसे उपासना-केँद्र समझा जाता है । इसमेँ आमने-सामने की दो चौड़ी सीढ़ियाँ ऊपर की (ध्वस्त ) मंज़िल की तरफ़ जाती हैँ ।

पश्चिम मेँ-गढ़ी के ठीक पीछे-माधोस्वरूप वत्स के नाम पर वीएस हिस्सा है। यहाँ वह 'रंगरेज़ का कारखाना' भी लोग चाव से देखते हैं, जहाँ ज़मीन मेँ ईँटों के गोल गड्ढे उभरे
हुए हैं। अनुमान है कि इनमें रंगाई के बड़े बर्तन रखे जाते थे। दो कतारों मेँ सोलह छोटे
एक-मंजिला मकान हैं। एक कतार मुख्य सड़क पर है, दूसरी पीछे की छोटी सड़क की
तरफ़। सब में दो-दो कमरे हैं। स्नानघर यहाँ भी सब घरों में हैं। बाहर बस्ती मेँ कुएँ सामूहिक प्रयोग के लिए हैं। ये कर्मचारियों या कामगारों के घर रहे होंगे।

मुअनजो-दड़ो मेँ कुँओं को छोड़कर लगता है जैसे सब कुछ चौकोर या आयताकार हो। नगर की योजना, बस्तियाँ, घर, कुंड, बड़ी इमारतें, ठप्पेदार मुहरें, चौपड़ का खेल, गोटियाँ,
तौलने के बाट आदि सब ।

छोटे घरों मेँ छोटे कमरे समझ मेँ आते हैं। पर बड़े घरों मेँ छोटे कमरे देखकर अचरज
होता है। इसका एक अर्थ तो यह लगाया गया है कि शहर की आबादी काफी रही होगी।
दूसरी तरफ़ यह विचार सामने आया है कि बड़े घरों मेँ निचली( भूतल)मंजिल मेँ
नौकर-चाकर रहते होंगे। ऐसा अमेरिकी नृतत्त्वशास्त्री ग्रेगरी पोसेल का मानना है। बड़े घरों के आँगन मेँ चौड़ी सीढ़ियाँ हैं। कुछ घरों मेँ ऊपर की मंजिल के निशान हैं, पर सीढ़ियाँ नहीं हैं। शायद यहाँ लकड़ी की सीढ़ियाँ रही हों, जो कालांतर मेँ नष्ट ही गई। संभव है ऊपर की मंज़िल मेँ ज्यादा खिड़कियों, झरोखे और साज़-सज्जा रही हो । लकड़ी का इस्तेमाल भी बहुत संभव है पूरे घर मेँ होता हो । कुछ घरोँ मेँ बाहर की तरफ सीढ़ियोँ के संकेत हैँ । यहाँ शायद ऊपर और नीचे अलग-अलग परिवार रहते होँगे । छोटे घरोँ की बस्ती मेँ छोटी संकरी सीढ़ियाँ हैँ ।उनके पायदान भी ऊँचे हैँ ।ऐसा जगह की तंगी की वजह से होता होगा ।

गौर किया कि मुअनजो-दड़ो के किसी घर मेँ खिड़कियोँ या दरवाज़ोँ पर छज्जोँ के चिह्न नहीँ हैँ । गरम इलाकोँ के घरोँ मेँ छाया के लिए यह आम प्रावधान होता है । क्या उस वक्त यहाँ इतनी कड़ी धूप नहीँ पड़ती होगी ? मुझे मुअनजो-दड़ो की जानी -मुहरोँ के पशु याद हो आए । शेर , हाथी या गैँडा इस मरु-भूमि मेँ हो नहीँ सकते । क्या उस वक्त यहाँ जंगल भी थे? यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि यहाँ अच्छी खेती होती थी । पुरातत्त्वी शीरीन रत्नागर का मानना है कि सिँधु-वासी कुँओँ से सिँचाई कर लेते थे । दूसरे , मुअनजो-दड़ो की किसी खुदाई मेँ नहर होने के प्रमाण नहीँ मिले हैँ । यानी बारिश उस काल मेँ काफ़ी होती होगी । क्या बारिश घटने और कुँओँ के अत्यधिक इस्तेमाल से भू-तल जल भी पहुँच से दूर चला गया ? क्या पानी के अभाव मेँ यह इलाका उजड़ा और उसके साथ सिँधु घाटी की समृद्ध सभ्यता भी ?

मुअनजो-दड़ो मेँ उस रोज़ हवा बहुत तेज़ बह रही थी। किसी बस्ती के टूटे-फूटे घर मेँ दस्वाजे या खिड़क्री के सामने से हम गुज़रते तो सांय-सांय की ध्वनि मेँ हवा की लय साफ़ पकड़ मेँ आती थी। वैसे ही जैसे सड़क पर किसी वाहन से गुज़रते हुए
किनारे की पटरी के अंतरालों मेँ रह-रहकर हवा के लयबद्ध थपेड़े सुनाई पड़ते हैं। सूने घरों मेँ हवा की लय और ज्यादा गूँजती है। इतनी कि कोनों का अँधियारा भी सुनाई दे। यहाँ एक घर से दूसरे
घर मेँ जाने के लिए आपको किसी घर से वापस बाहर नहीं आना पड़ता। आखिर सब खंडहर हैं। सब कुछ खुला है। अब कोई घर जुदा नहीं है। एक घर दूसरे मेँ खुलता है, दूसरा तीसरे में। जैसे पूरी
बस्ती एक बड़ा घर हो। लेकिन घर एक नक्शा ही नहीं होता। हर घर का एक संस्कारमय आकार होता है। भले ही वह पाँच हजार
साल पुराना घर क्योँ न हो। हममें कमोबेश हर कोई पाँव आहिस्ता उठाते हुए एक घर से दूसरे घर मेँ बेहद धीमी गति से दाखिल होता था। मानो मन मेँ अतीत को निहारने की जिज्ञासा ही न हो, किसी अजनबी घर मेँ अनधिकार चहल-कदमी का अपराध-बोध भी हो।
जैस किसी पराए घर मेँ पिछवाड़े से चोरी-छुपे घुस आए सब जानते हैं यहाँ अब कोई बसने नहीं आएगा। लेकिन यह मुअनजो-दड़ो के
पुरातात्त्विक अभियान की ही खूबी थी कि मिट्टी मेँ इंच-दर-इंच कंघी कर इस कदर शहर, उसकी गलियों और घरों को ढूँढ़ा और सहेजा गया है कि यह अहसास हर वक्त आपके साथ रहता है, कल कोई यहाँ बसता था। जरूर यह आपकी सभ्यता परंपरा है । मगर घर आपका नहीँ है ।

अनचाहे मुझे मुअनजो-दड़ो की गलियोँ या घरोँ मेँ राजस्थान का खयाल न आए, ऐसा नहीँ हो सका । महज़ इसलिए नहीँ कि (पश्चिमी) राजस्थान और सिंध-गुजरात की दृश्यावली एक -सी है । कई चीज़ेँ हैँ जो मुझे यहाँ से वहाँ जोड़ जाती हैँ । जैसे हज़ारोँ साल पुराने यहाँ के खेत । बाजरे और ज्वार की खेती । मुअनजो-दड़ो के घरोँ मेँ टहलते हुए मुझे कुलधरा की याद आई । यह जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरोँ वाला एक खूबसूरत गाँव है । उस खूबसूरती मेँ हरदम एक गमी व्याप्त है। गाँव मेँ घर हैं, पर लोग नहीं हैं। कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर स्वाभिमानी गाँव का हर बाशिदा रातोरात अपना घर छोड़ चला गया। दरवाज़े-असबाब पीछे लोग उठा ले गए। घर खंडहर ही गए पर ढहे नहीं। घरों की दीवारें,
प्रवेश और खिड़कियाँ ऐसी हैं जैसे कल की बात हो। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे थाम लिया। जैसे सुबह लोग घरों से निकले हों, शायद शाम ढले लौट आने वाले हों।

राजस्थान ही नहीं, गुजरात, पंजाब और हरियाणा मेँ भी कुएँ, कुंड, गली-कूचे, कच्ची-पक्की ईंटों के कई घर भी आज वैसे मिलते हैं जैसे हज़ारों साल पहले हुए।

जॉन मार्शल ने मुअनजो-दड़ो पर तीन खंडों का एक विशद प्रबंध छपवाया था। उसमें
खुदाई मेँ मिली ठोस पहियों वाली मिट्टी की गाड़ी के चित्र के साथ सिँध मेँ पिछली सदी
मेँ बरती जा रही ठीक उसी तरह की बैलगाड़ी का भी एक चित्र प्रकाशित है। तसवीर से
उन्होंने एक सतत् परंपरा का इज़हार किया, हालाँकि कमानी या आरे वाले पहिए का आविष्कार बहुत पहले हो चुका था जब मैँ छोटा था, हमारे गाँव मेँ भी लकड़ी वाले ठोस पहिए बैलगाड़ी मेँ जुड़ते थे । दुल्हन पहली दफा इसी बैलगाड़ी मेँ ससुराल जाती थी । बाद मेँ हमारे यहाँ भी बैलगाड़ी मेँ आरे वाले पहिए जुड़ने लगे । अब तो उसमेँ जीप के उतारू पहिए लगते हैँ । हवाई जहाज के उतारू पहिए बाजार मेँ आने के बाद ऊँटगाड़े (गाड़ी नहीँ ) का भी आविष्कार हो गया है । रेगिस्तान के जहाज़ से हवा के जहाज़ का यह ऐतिहासिक गठजोड़ है । हालाँकि कहना मुश्किल है कि दुल्हन की सवारी के रूप मेँ बैलगाड़ी या ऊँटगाड़े का अब वहाँ कभी इस्तेमार होता होगा !

हमारे मेज़बान ने ध्यान दिलाया कि मुअनजो-दड़ो का अजायबघर देखना अभी बाकी है । खंडहरोँ से निकल हम उस साबुत इमारत मेँ आ गए । लेकिन प्रदर्शित सामान आपको खंड़हरोँ से निकल आने का एहसास होने नहीँ देता । अजायबघर छोटा ही है । जैसे किसी कस्बाई स्कूल की इमारत हो । सामान भी ज़्यादा नहीँ है । अहभ चीज़ेँ कराची ,लाहौर , दिल्ली और लंदन मेँ हैँ । योँ अकेले मुअनजो-दड़ो की खुदाई मेँ निकली पंजीकृत चीज़ोँ की संख्या पचास हज़ार से ज़्यादा है । मगर जो मुट्ठी भर चीज़ेँ यहाँ प्रदर्शित हैँ ,पहुँची हुई सिंधु सभ्यता की झलक दिखाने को काफ़ी हैँ ।
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काला पड़ गया गेहूँ , ताँबे और काँसे के बर्तन ,मुहरेँ ,वाद्य ,चाक पर बने विशाल मृद्-भांड , उन पर
काले- भूरे चित्र, चौपड़ की गोटियाँ, दीये,
माप-तौल पत्थर, ताँबे
का आईना , मिट्टी की
बैलगाड़ी और दूसरे
खिलौने , दो पाटन वाली चक्की , कंघी , मिट्टी के कंगन , रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औज़ार । अजायबघर में
तैनात अली नवाज़ बताता है , कुछ सोने के गहने भी यहाँ हूआ करते थे जो चोरी हो गए।

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एक खास बात यहाँ कोई भी महसूस करेगा । अजायबघर में प्रदर्शित चीजों में औजार तो हैं, पर हथियार कोई नहीं है। मुअनजो-दड़ो क्या , हड़प्पा से लेकर हरियाणा तक समूची सिंधु सभ्यता में
हथियार उस तरह कहीं नहीं मिले हैं जैसे किसी राजतंत्र मेँ होते हैं ।

इस बात को लेकर विद्वान सिंधु सभ्यता मेँ शासन या सामाजिक प्रबंध के तौर-तरीके को समझने की कोशिश
कर रहे हैं। वहाँ अनुशासन ज़रूर था, पर ताकत के बल पर नहीं। वे न रही हो । मगर कोई अनुशासन ज़रूर था जो नगर योजना , वास्तुशिल्प , मुहर-ठप्पोँ, पानी या साफ़-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओँ आदि मेँ एकरूपता तक को कायम रखे हुए था । दूसरी बात ,जो सांस्कृतिक धरातल पर सिंधु घाटी सभ्यता को दूसरी सभ्यताओँ से अलग ला खड़ा करती है ,वह है प्रभुत्व या दिखावे के तेवर का नदारद होना ।

दूसरी जगहोँ पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल , उपासना-स्थल ,मूर्तियाँ और पिरामिड आदि मिलते हैँ । हड़प्पा संस्कृति मेँ न भव्य राजप्रसाद मिले हैँ ,न मंदिर ,न राजाओँ, महंतों की समाधियाँ । यहाँ के मूर्तिशिल्प छोटे हैं और औजार भी। मुअनजो-दड़ो के 'नरेश' के सिर पर जो 'मुकुट' है, शायद उससे छोटे सिरपेच की कल्पना भी नहीं की जा सकती। और तो और, उन लोगों की नावें बनावट में मिस्र की नावों जैसी होते हुए भी आकार में छोटी रहीं। आज़ के मुहावरे में कह सकते हैं वह 'लो-प्रोफाइल' सभ्यता थी;
लघुता में भी महत्ता अनुभव करने वाली संस्कृति।

मुअनजो-दड़ो सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा शहर ही नहीं था, उसे साधनों और
व्यवस्थाओं को देखते हुए सबसे समृद्ध भी माना गया है। फिर भी इसको सपन्नता की बात कम हुई है तो शायद इसलिए कि उसमें भव्यता का आडंबर नहीं है। दूसरी वजह यह भी है कि मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा पिछली सदी में ही उद्घाटित्त ही सके। उनको अनबूझ लिपि अभी भी सारे रहस्य अपने मेँ छिपाए हुए है।

नृत्य मुद्रा मेँ
लड़की
2500 ई. पूर्व

सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्त्व ज्यादा था। वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, धातु और पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियोँ की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास, आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक-सिद्ध से ज़्यादा कला-सिद्ध ज़ाहिर करता है । एक पुरातत्त्वेत्ता के मुताबिक सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य -बोध है , " जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था ।" शायद इसीलिए आकार की भव्यता की जगह उसमेँ कला की भव्यता दिखाई देती है ।

अजायबघर मेँ रखी चीज़ोँ मेँ कुछ सुइयाँ भी हैँ । खुदाई मेँ ताँबे और काँसे की तो बहुत सारी सुइयाँ मिली थीँ । काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सुइयाँ मिलीँ जिनमेँ एक दो-इंच लंबी थी । समझा गया है कि यह बारीक कशीदेकारी मेँ काम आती होगी । याद करेँ ,नर्तकी के अलावा मुअनजो-दड़ो के नाम से प्रसिद्ध जो दाढ़ी वाले 'नरेश' की मूर्ति है , उसके बदन पर आकर्षक गुलकारी बाला दुशाला भी है। आज छापे वाला कपड़ा 'अज़रक' सिंध की खास पहचान बन गया है, पर कपड़ोँ पर छपाई का
आविष्कार बहुत बाद का है। खुदाई में सुइयों के अलावा हाथीदाँत और ताँबे के सुए भी मिले हैं। जानकार मानते हैं कि इनसे शायद दरियाँ बुनी जाती थीं। हालाँकि दरी का कोई नमूना या साक्ष्य हासिल नहीँ हुआ है ।

वह शायद कभी हासिल न हो , क्योँकि मुअनजो-दड़ो मेँ अब खुदाई बंद कर दी गई है । सिंधु के पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है । मौजूदा खंडहरोँ को बचाकर रखना ही अब अपने आप मेँ बड़ी चुनौती है ।

History of Taj mahal

The Taj Mahal (/ˌtɑːdʒ məˈhɑːl, ˌtɑːʒ-/;[3] meaning "Crown of the Palace"[4]) is an ivory-white marble mausoleum on the south ban...