सोमवार, 23 जून 2014

मधुशाला (काव्य) भाग 1

स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला, स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला, पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है, स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।। मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला, मेरे तन के लोहू में है पिचहतर प्रतिशत हाला, पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर, मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।। बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला, बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला, पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।। पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़कर के मधुशाला।। मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।। प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला, एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला, जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका, आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।। प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला, मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता, एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।। भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला, कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ,दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।। मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला, भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला, उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ, अपने ही में हूँ मैं साकी, पीने वाला, मधुशाला।।५।। मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला, ‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला, अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ - ‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला’।।६।। चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला! ‘दूर अभी है’, पर, कहता है हर पथ बतलाने वाला, हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे, किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।। मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला, हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला, ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का, और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।। मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला, अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला, बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे, रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।। सुन, कलकल, छलछल, मधुघट से गिरती प्यालों में हाला, सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला, बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है, चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही,ले, मधुशाला।।१०।। जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला, वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला, डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनितपखावज करती है, मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।। मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला, अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला, पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले, इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।। हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला, अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला, बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले, पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।। लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला, फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला, दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं, पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।। जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला, जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला, ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है, जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।। बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला, देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला, ‘होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले’ ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।। धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला, मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला, पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदोंको जो काट चुका, कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।। लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला, हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला, हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा, व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।। बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला, रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला’ ‘और लिये जा, और पीये जा’, इसी मंत्र का जाप करे’ मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।। बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला, बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला, लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें, रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।। बड़े बड़े पिरवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला, हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला, राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए, जमे रहेंगे पीने वाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।। सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला, सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु,हलाहल औ’ हाला, धूमधाम औ’ चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें, झगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।। भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका,मदचंचल प्याला, छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला, पटे कहाँ से, मधु औ’ जग की जोड़ी ठीक नहीं, जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, परनित्य नवेली मधुशाला।।२३।। ♦♦♦

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