सोमवार, 23 जून 2014

मधुशाला (काव्य) भाग 2

बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला, पी लेने पर तो उसके मुंह पर पड़ जाएगा ताला, दास द्रोहियों दोनों में है जीतसुरा की, प्याले की, विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।। हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला, वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला, स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने, पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।। एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला, एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला, दुनिया वालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो, दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।। नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला, कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला, जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही, जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।। बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला, बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला, बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने, बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहेयह मधुशाला।।२८।। सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला, मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला, मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर,पर मधुशाला की, कहा करो ‘जय राम’ न मिलकर, कहा करो ‘जय मधुशाला’।।२९।। सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला, बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला, झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर, बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।। तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला, सीधा करके भर दी जाए उसमें सागर जल हाला, मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए, फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।। अधरों पर हो कोई भी रस जिहवा पर लगती हाला, भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला, हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती, आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।। पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला, भरी हुई है जिसके अंदर पिरमल-मधु-सुरिभत हाला, माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं, झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।।३३।। प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला, छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला, छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।। मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला, हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ, छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।। साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला, तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरालेती हाला, अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते, प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।। उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला, बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला, जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।। अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला, पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।। किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला, किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।। साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला, जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला, योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए, देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।। वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला, रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला, विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में, पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।। चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला, जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला, मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते, चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।। घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला, अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला, लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं, हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।। हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला, चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला, कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं, पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।। धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला, वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला, अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता, स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।। दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला, ठुकराया ठाकुर द्वारे ने देख हथेली पर प्याला, कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को? शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।। पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला, सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला, मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता, मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।। सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला, सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला, शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।। बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला, गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला, शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।।४९।।मुसलमान औ’ हिन्दू है दो, एक, मगर,उनका प्याला, एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला, दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते, बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।।५०।। ♦♦♦♦♦

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