बुधवार, 13 दिसंबर 2017

अतीत मेँ दबे पाँव (ओम थानवी )

भी भी मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं, दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। ये सिंधु घाटीसभ्यता के परवर्ती यानी परिपक्व दौर के शहर हैं। खुदाई में और शहर भी मिले हैं। लेकिन मुअनजो-दड़ो ताम्र काल के शहरों मेँ सबसे बड़ा है। वह सबसे उत्कृष्ट भी है। व्यापक खुदाई यहीं पर संभव हुई। बड़ी तादाद में इमारतें, सड़केँ , धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भांडे , मुहरें, साज़ो-सामान और खिलौने
आदि मिले। सभ्यता का अध्ययन संभव
हुआ। उधर सैकड़ोँ मील दूर हड़प्पा के ज्यादातर साक्ष्य रेललाइन बिछने के दौरान 'विकास की भेंट चढ़ गए ।'

मुअनजो-दड़ो के बारे में धारणा है कि अपने दौर में वह घाटी की सभ्यता का केँद्र
रहा होगा। यानी एक तरह की राजधानी। माना जाता है यह शहर दो सौ हैक्टर क्षेत्र में फैला था। आबादी कोई पंचासी हजार थी। जाहिर है, पाँच हजार साल पहले यह 
आज के 'महानगर' की परिभाषा को भी लाँघता होगा।

दिलचस्प बात यह है कि सिंधु घाटी मैदान की संस्कृति थी, पर पूरा मुअनजो-दड़ो छोटे-मोटे टीलों पर आबाद था। ये टीले प्राकृतिक नहीं थे। कच्ची और पक्की दोनों तरह की ईंटों से धरती की 
सतह को ऊँचा उठाया गया था , ताकि सिंधु का पानी बाहर पसर आए तो उससे बचा जा सके ।
मुअनजो -दड़ो की एक गली
मुअनजो-दड़ो की खूबी यह है
कि इस आदिम शहर की
सड़कोँ और गलियोँ मेँ आप
आज भी घूम-फिर सकते हैँ ।
यहाँ की सभ्यता और संस्कृति
का सामान भले अजायबघरोँ
की शोभा बढ़ा रहा हो ,शहर
जहाँ था अब भी वहीँ है । आप
इसकी किसी भी दीवार पर
पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैँ
। वह एक खंडहर क्योँ न हो ,
किसी घर की देहरी पर पाँव
रखकर आप सहसा सहम
सकते हैँ , रसोई की खिड़की
पर खड़े होकर उसकी गंध
महसूस कर सकते हैँ ।

03 9
मुअनजो-दड़ो की
एक मुख्य सड़क
जो 33 फीट
चौड़ी है

या शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान देकर उस
बैलगाड़ी की रुन-झुन सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्व
की तसवीरों मेँ मिट्टी के रंग में देखा है। सच है कि यहाँ किसी आँगन की टूटी-फूटी
सीढ़ियाँ अब आपको कहीं नहीं ले जातीं; वे आकाश की तरफ़
अधूरी रह जाती हैं। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े
होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की
छत पर हैं; वहाँ से आप इतिहास को नहीं, उसके पार
झाँक रहे हैं।

सबसे ऊँचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है। मगर यह
मुअनजो-दड़ो की सभ्यता के बिखरने के बाद एक जीर्ण-
शीर्ण टीले पर बना। कोई पचीस फुट ऊँचे चबूतरे पर
छब्बीस सदी पहले बनी ईंटों
के दम पर स्तूप को आकार
दिया गया। चबूतरे पर
भिक्षुओँ के कमरे भी हैं। 1922
में जब राखालदास बनर्जी
यहाँ आए, तब वे इसी स्तूप
की खोजबीन करना चाहते
थे। इसके गिर्द खुदाई शुरू
करने के बाद उन्हेँ इलहाम
हुआ कि यहाँ ईसा पूर्व के
निशान हैं। भारतीय पुरातत्त्व
सर्वक्षण के महानिदेशक जॉन
मार्शल के निर्दश पर खुदाई का
व्यापक अभियान शुरू हुआ।
धीमे-धीमे यह खोज विशेषज्ञों
को सिंधु घाटी सभ्यता की
देहरी पर ले आई। इस खोज
ने भारत को मिस्र और
मेसोपोटामिया (इराक) की
प्राचीन सभ्यताओं के समकक्ष
ला खड़ा किया। दुनिया की
प्राचीन सभ्यता होने के
भारत के दावे को पुरातत्त्व का
वैज्ञानिक आधार मिल गया।

पर्यटक बँगले से एक सर्पिल
पगडंडी पार कर हम सबसे
पहले इसी स्तूप पर पहुँचे।
पहली ही झलक ने हमेँ अपलक
कर दिया। इसे नागर भारत
का सबसे पुराना लैंडस्केप
कहा गया है। यह शायद
सबसे रोमाँचक भी है। न
आकाशा बदला है ,न धरती ।
पर कितनी सभ्यताएँ ,
इतिहास और कहानियाँ बदल
गईँ । इस ठहरे हुए दृश्य मेँ
हज़ारोँ साल से लेकर पलभर
पहले तक की धड़कन बसी
हुई है । इसे देखकर सुना जा
सकता है । भले ही किसी
जगह के बारे मेँ हमने कितना
पढ़-सुन रखा हो , तसवीरेँ
या वृत्तचित्र देखे होँ , देखना
अपनी आँख से देखना है।
बाकी सब आँख का झपकना
है। जैसे यात्रा अपने पाँव
चलना है, बाकी सब तो
कदम-ताल है।

मौसम जाड़े का था पर दुपहर
की धूप बहूत कड़ी थी। सारे
आलम को जैसे एक फीके
रंग मेँ रंगने की कोशिश करती
हुई । यह इलाका राजस्थान
से बहूत मिलता-जुलता है।
रेत के टीले नहीं हैं। खेतों का
हरापन यहाँ है। मगर बाकी
वही खुला आकाश, सूना
परिवेश; धूल, बबूल और
ज्यादा ठंड, ज्यादा गरमी।
मगर यहाँ की धूप का मिजाज़
जुदा है। राजस्थान की धूप
पारदर्शी है। सिंध की धूप
चौँधियाती है। तसवीर
उतारते वक्त आप कैमरे में
ज़रूरी पुर्ज़े न घुमाएँ तो ऐसा
जान पड़ेगा जैसे दूश्योँ के रंग
उड़े हुए हों।

पर इससे एक फ़ायदा हुआ।
हमें हर दृश्य पर नज़रें
दुबारा फिरानी पड़ती । इस
तरह बार-बार निहारेँ तो
दृश्य जेहन में ऐसे ठहरते हैं
मानो तसवीर देखकर उनकी
याद ताज़ा करने की कभी
ज़रूरत न पड़े।

स्तूप वाला चबूतरा मुअनजो- दड़ो के सबसे खास हिस्से के एक सिरे पर स्थित है। इस हिस्से को पुरातत्व के विद्वान 'गढ़' कहते हैं। चारदीवारी के भीतर ऐतिहासिक शहरों के
सत्ता-केँद्र अवस्थित होते थे, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता। बाकी शहर गढ़ से
कुछ दूर बसे होते थे। क्या यह रास्ता भी दुनिया को मुअनजो
-दड़ो ने दिखाया?

मुअनजो-दड़ो मेँ बौद्ध स्तूप
सभी अहम और अब दुनिया-भर मेँ प्रसिद्ध इमारतों के
खंडहर चबूतरे के पीछे यानी पश्चिम मेँ हैं। इनमें 'प्रशासनिक' इमारतें, सभा भवन, ज्ञानशाला और कोठार हैं। वह अनुष्ठानिक महाकुंड भी जो सिंधु घाटी सभ्यता के अद्वितीय वास्तुकौशल को
स्थापित करने के लिए अकेला ही काफ़ी भाना जाता है। असल मेँ यहाँ यही एक निर्माण है जो अपने मूल स्वरूप के बहुत नज़दीक बचा रह सका है। बाकी इमारतें इतनी उजड़ी हुई हैं कि कल्पना
और बरामद चीज़ोँ के जोड़ से उनके उपयोग का अंदाजा भर लगाया जा सकता है।

नगर नियोजन की मुअनजो-दड़ो अनूठी मिसाल है। इस कथन का मतलब आप बड़े चबूतरे से नीचे की तरफ़ देखते हुए सहज ही भाँप सकते हैं। इमारतें भले खंडहरों मेँ बदल चुकी हों मगर 'शहर' की सड़कों और गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिए ये खंडहर काफ़ी हैं। यहाँ की कमोबेश सारी सड़केँ सीधी हैं या फिर आड़ी। आज वास्तुकार इसे 'ग्रिड प्लान' कहते हैं। आज की
सेक्टर-मार्का कॉलोनियों में हमेँ आड़ा-सीधा 'नियोजन' बहुत मिलता है। लेकिन वह रहन-सहन को नीरस बनाता है। शहरों में नियोजन के नाम पर भी हमेँ अराजकता ज्यादा हाथ लगती है। ब्रासीलिया या
चंडीगढ और इस्लामाबाद 'ग्रिड' शैली के शहर हैं जो आधुनिक नगर नियोजन के प्रतिमान ठहराए जाते हैं, लेकिन उनकी बसावट शहर के खुद विकसने का कितना अवकाश छोड़ती है इस पर
बहुत शंका प्रकट की जाती है ।

मुअनजो-दड़ो की साक्षर सभ्यता एक सुसंस्कृत समाज की स्थापना थी , लेकिन उसमेँ नगर नियोजन और वास्तुकला की आखिर कितनी भूमिका थी ?

स्तूप वाले चबूतरे के पीछे 'गढ़' और ठीक सामने 'उच्च' वर्ग की बस्ती है । उसके पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंधु बहती है । पूरब की इस बस्ती से दक्षिण की तरफ़ नज़र दौड़ाते हुए पूरा पीछे घूम जाएँ तो आपको मुअनजो-दड़ो के खंडहर हर जगह दिखाई देँगे । दक्षिण मेँ जो टूटे -फूटे घरोँ का जमघट है , वह कामगारोँ की बस्ती है। कहा जा सकता है इतर वर्ग की। संपन्न समाज में वर्ग भी होंगे। लेकिन क्या निम्न वर्ग यहाँ नहीं था? कहते हैं, निम्न वर्ग के घर इतनी मज़बूत सामग्री के नहीं रहे होंगे कि पाँच हजार साल टिक सके। उनकी बस्तियाँ और दूर रही होंगीं। यह भी है कि सौ साल में अब तक इस इलाके के एक-तिहाई हिस्से की खुदाई ही हो पाई है। अब वह भी बंद हो चुकी है।

हम पहले स्तूप के टीले से महाकुंड के विहार की दिशा में उतरे। दाईँ तरफ़ एक लंबी
गली दीखती है। इसके आगे महाकुंड है। पता नहीं सायास है या संयोग कि धरोहर के
प्रबंधकों ने उस गली का नाम दैव मार्ग (डिविनिटि स्ट्रीट) रखा है। माना जाता है कि उस सभ्यता में सामूहिक स्नान किसी अनुष्ठान का अंग होता था। कुंड करीब चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। गहराई सात फुट । कुंड में उत्तर और दक्षिण से सीढियाँ उतरती हैं। इसके तीन तरफ़ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं। उत्तर में दो पाँत में आठ स्नानघर हैं। इनमें
किसी का द्वार दूसरे के सामने नहीं खुलता। सिद्ध वास्तुकला का यह भी एक नमूना है।

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मुअनजो-दड़ो का
प्रसिद्ध जल कुंड

इस कुंड में खास बात पक्की ईँटों का जमाव है। कुंड का पानी रिस न सके और बाहर
का 'अशुद्ध' पानी कुंड में न आए, इसके लिए कुंड के तल में और दीवारों पर ईँटों के
बीच चूने और चिरोड़ी के गारे का इस्तेमाल हुआ है। पार्श्व की दीवारों के साथ दूसरी दीवार खड़ी की गई है जिसमेँ सफ़ेद डामर का प्रयोग है । कुंड के पानी के बंदोबस्त के लिए एक तरफ़ कुआँ है । दोहरे घेरे वाला यह अकेला कुआँ है । इसे भी कुंड के पवित्र या अनुष्ठानिक होने का प्रमाण माना गया है । कुंड से पानी को बाहर बहाने के लिए नालियाँ हैँ । इनकी खासियत यह है कि ये भी पक्की ईंटोँ से बनी हैँ और ईंटोँ से ढ़की भी हैँ ।

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जल निकासी का
उन्नत प्रबंध जो
सिंधु घाटी की
अनूठी विशेषता है ।

पक्की और आकार में समरूप धूसर ईँटेँ तो सिंधु घाटी सभ्यता की विशिष्ट पहचान मानी ही गई हैं, ढकी हुई नालियों का उल्लेख भी
पुरातात्त्विक विद्वान और इतिहासकार ज़ोर देकर करते हैं। पानी-निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहल के इतिहास में नहीं मिलता।

महाकुंड के बाद हमने 'गढ़' की 'परिक्रमा' की। कुंड के
दूसरी तरफ़ विशाल कोठार है। कर के रूप में हासिल अनाज शायद यहाँ जमा किया जाता था। इसके निर्माण रूप खासकर चौकियों और हवादारी को देखकर ऐसा कयास लगाया गया है । यहाँ नौ-नौ चौकियोँ की तीन कतारेँ हैँ । उत्तर मेँ एक गली है जहाँ बैलगाड़ियोँ का -जिनके प्रयोग के साक्ष्य मिले हैँ -ढ़ुलाई के लिए आवागमन होता होगा । ठीक इसी तरह का कोठार हड़प्पा मेँ भी पाया गया है ।

अब यह जगज़ाहिर है कि सिंधु घाटी के दौर मेँ व्यापार ही नहीँ ,उन्नत खेती भी होती थी । बरसोँ यह माना जाता रहा कि सिंधु घाटी के लोग अन्न उपजाते नहीं थे, उसका आयात करते थे। नयी खीज ने इस खयाल को निर्मूल साबित किया है। बल्कि अब कुछ विद्वान मानते हैं कि वह मूलत: खेतिहर और
पशुपालक सभ्यता ही थी। लोहा शुरू मेँ नहीं था पर पत्थर और ताँबे की बहुतायत थी। पत्थर
सिंध मेँ ही था, ताँबे की खानें राजस्थान मेँ थीं। इनके उपकरण खेती-बाड़ी मेँ प्रयोग किए जाते थे। जबकि मिस्र और सुमेर मेँ चकमक और लकड़ी के उपकरण इस्तेमाल होते थे। इतिहासकार इरफान हबीब के मुताबिक यहाँ के लोग रबी की फ़सल लेते थे। कपास, गेहूँ , जौ, सरसों और चने की उपज के पुख्ता सबूत खुदाई मेँ मिले हैं। वह सभ्यता का तर-युग था जो धीमे-धीमे सूखे मेँ ढल गया।

विद्वानों का मानना है कि यहाँ ज्वार, बाजरा और रागी की उपज भी होती थी। लोग खजूर, खरबूज़े और अंगूर उगाते थे। झाडियों से बेर जमा करते थे। कपास की खेती भी होती थी। कपास को छोड़कर बाकी सबके बीज मिले हैं और उन्हेँ परखा गया है। कपास के बीज तो नहीं, पर सूती कपड़ा मिला है। ये दुनिया मेँ सूत के दो सबसे पुराने नमूनों मेँ एक है।
दूसरा सूती कपड़ा तीन हजार ईसा पूर्व का है जो जॉर्डन मेँ मिला। मुअनजो-दड़ो मेँ सूती की कताई-बुनाई के साथ रंगाई भी होती थी। रंगाई का एक छोटा कारखाना खुदाई मेँ माधोस्वरूप वत्स को मिला था। छालटी (लिनन) और ऊन कहते हैं यहाँ सुमेर से आयात होते थे। शायद
सूत उनको निर्यात होता हो। जैसा कि बाद मेँ सिंध से मध्य एशिया और यूरोप को सदियों
हुआ। प्रसंगवश , मेसोपोटामिया के शिलालेखोँ मेँ मुअनजो-दड़ो के लिए 'मेलुहा' शब्द का संभावित प्रयोग मिलता है ।

महाकुंड के उत्तर -पूर्व मेँ एक बहुत लंबी-सी इमारत के अवशेष हैँ । इसके बीचोँबीच खुला बड़ा दालान है । तीन तरफ़ बरामदे हैँ । इनके साथ कभी छोटे-छोटे कमरे रहे होँगे । पुरातत्त्व के जानकार कहते हैँ कि धार्मिक अनुष्ठानोँ मेँ ज्ञानशालाएँ सटी हुई होती थीँ , उस नज़रिए से इसे 'कॉलेज ऑफ प्रीस्ट्स' माना जा सकता है । दक्षिण मेँ एक और भग्न इमारत है । इसमेँ बीस खंभोँ वाला एक बड़ा हॉल है । अनुमान है कि यह राज्य सचिवालय , सभा -भवन या कोई सामुदायिक केँद्र रहा होगा ।

गढ़ की चारदीवारी लाँघ कर हम बस्तियोँ की तरफ़ बढ़े । ये 'गढ़' के मुकाबले छोटे टीलोँ पर बनी हैँ , इसलिए इन्हेँ 'नीचा नगर' कहकर भी पुकारा जाता है । खुदाई की प्रक्रिया मेँ टीलोँ का आकार घट गया है , कहीँ-कहीँ वे फिर ज़मीन से जा मिले हैँ और बस्ती के कुएँ ,लगता है जैसे मीनारोँ की शक्ल मेँ धरती छोड़कर बाहर निकल आए हैँ ।

पूरब की बस्ती 'रईसोँ की बस्ती ' है । हालाँकि आज के युग मेँ पूरब की बस्तियाँ गरीबोँ की बस्तियाँ मानी जाती हैँ । मुअनजो -दड़ो इसका उलट था । यानी बड़े घर ,चौड़ी सड़केँ , ज्यादा कुएँ। मुअनजो-दड़ो के सभी खंडहरों को खुदाई कराने वाले पुरातत्त्ववेत्ताओं का संक्षिप्त नाम दे दिया गया है। जैसे 'डीके' हलका-दीक्षित काशीनाथ की खुदाई । उनके नाम पर यहाँ दो हलके
हैं। 'डीके' क्षेत्र दोनों बस्तियों में सबसे महत्वपूर्ण हैं। शहर की मुख्य सड़क (फ़र्स्ट स्ट्रीट) यहीं पर है। यह बहुत लंबी सड़क है , मानो कभी पूरे शहर को नापती हो। अब यह आधा मील बची है। इसकी चौड़ाई तैँतीस फ़ुट है। मुअनजो-दड़ो से तीन तरह के वाहनों के साक्ष्य मिले हैं। इनमें सबसे चौड़ी बैलगाड़ी रही होगी। इस सड़क पर दो बैलगाडियाँ एक साथ आसानी से आ-जा सकती हैं। यह सड़क वहाँ पहुँचती है, जहाँ कभी 'बाजार' था।

इस सड़क के दोनों ओर घर हैं। लेकिन सड़क की ओर सारे
घरों की सिर्फ पीठ दिखाई देती है। यानी कोई घर सड़क पर नहीं खुलता; उनके दरवाज़े अंदर गलियों में हैं। दिलचस्प संयोग है कि
चंडीगढ मेँ ठीक यही शैली पचास साल पहले कार्बूजिए ने
इस्तेमाल की। वहाँ भी कोई घर मुख्य सड़क पर नहीं खुलता। आपको किसी के घर जाने के लिए मुख्य सड़क से पहले सेक्टर के भीतर दाखिल होना पड़ता है, फिर घर की गली मेँ, फिर घर में। क्या कार्बूजिए ने यह सीख मुअनजो-दड़ो से ली? कहते हैं, कविता मेँ से कविता निकलती है। कलाओं की तरह वास्तुकला मेँ भी कोई प्रेरणा चेतन-अवचेतन ऐसे ही सफ़र करती होगी!

ढकी हुईं नालियाँ मुख्य सड़क के दोनों तरफ़ समांतर दिखाई
देती हैं। बस्ती के भीतर भी इनका यही रूप है। हर घर मेँ एक स्नानघर है। घरों के भीतर से पानी या मैल की नालियाँ बाहर हौदी तक आती हैं और फिर नालियों के जाल से जुड़ जाती हैं। कहीँ-कहीँ से खुली हैं पर ज्यादातर बंद हैं। स्वास्थ्य के प्रति मुअनजो-दड़ो के बाशिंदोँ के सरोकारो का यह बेहतर उदाहरण है । बस्ती के भीतर छोटी सड़केँ हैँ और उनसे छोटी गलियाँ भी । छोटी सड़केँ नौ से बारह फ़ुट तक चौड़ी हैँ । इमारतोँ से पहले जो चीज़ दूर से ध्यान खीँचती हैँ ,वह है कुओँ का प्रबधं । ये कुएँ भी पकी हुई एक ही आकार की ईँटो से बने हैँ । इतिहासकार कहते हैँ सिंधु घाटी सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोद कर भू-जल तक पहुँची।
उनके मुताबिक केवल मुअनजो-दड़ो में सात सौ के करीब कुएँ थे।

07 6
मुअनजो -दड़ो
का एक कुआँ

नदी, कुएँ, कुंड, स्नानागार और बेजोड़ पानी-निकासी। क्या सिंधु घाटी सभ्यता को
हम जल-संस्कृति कह सकते हैं?

बड़ी बस्ती में पुरातत्त्वशास्त्री काशीनाथ दीक्षित के नाम पर एक हलका 'डीके-जी' कहलाता है। इसके घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। मोटी दीवार का अर्थ यह लगाया जाता है कि उस पर दूसरी मंजिल भी रही होगी। कुछ दीवारों मेँ छेद हैं जो संकेत देते हैं कि दूसरी मंजिल उठाने के लिए शायद यह शहतीरों की जगह हो। सभी घर ईंट के हैं। एक ही आकार की ईंटें-1:2:4 के अनुपात की । सभी भट्टी मेँ पकी हुईँ । हड़प्पा से हटकर , जहाँ पक्की और कच्ची ईँटोँ का मिला-जुला निर्माण उजागर हुआ है । मुअनजो -दड़ो मेँ पत्थर का प्रयोग मामूली हुआ । कहीँ-कहीँ नालियाँ ही अनगढ़ पत्थरोँ से ढकी दिखाई दीँ ।

इन घरों मेँ दिलचस्प बात यह है कि सामने की दोबार मेँ केवल प्रवेश द्वार बना है, कोई खिड़की नहीं है। खिड़कियाँ शायद ऊपर की दीवार मेँ रहती हों, यानी दूसरी मंजिल पर । बड़े घरों के भीतर आँगन के चारों तरफ़ बने कमरों मेँ खिड़कियों ज़रूर हैं। बड़े आँगन वाले घरों के बारे मेँ समझा जाता है कि वहॉ कुछ उद्यम होता होगा। कुम्हारी का काम या कोई धातु-कर्म । हालाँकि सभी घर
खंडहर हैं और दिखाई देने वाली चीजों से हम सिर्फ़ अंदाजा लगा सकते हैं।

घर छोटे भी हैं और बड़े भी। लेकिन सब घर एक कतार मेँ
हैं। ज्यादातर घरों का आकार तकरीबन तीस-गुणा-तीस फुट का होगा। कुछ इससे दुगने और तिगुने आकार के भी हैं। इनकी वास्तु शैली कमोबेश एक-सी प्रतीत होती है। व्यवस्थित और नियोजित
शहर में शायद इसका भी कोई कायदा नगरवासियों पर लागू हो। एक घर को 'मुखिया' का घर कहा जाता है। इसमें दो आँगन और करीब बीस कमरे हैं।

डीके-बी, सी हलका आगे पूरब मेँ है। दाढ़ी वाले 'याजक-नरेश' की मूर्ति इसी तरफ़ के एक घर से मिली थी। डीके-जी की "मुख्य सड़क" पर दक्षिण की ओर बढ़े तो डेढ़ फर्लाँग की दूरी पर
'एचआर' हलका है। सड़क उसे दो भागों मेँ बॉट देती है। ये हलका हेरल्ड हरग्रीव्ज के नाम पर है जिन्होंने 1924-25 मेँ राखालदास बनर्जी के बाद खुदाई करवाई थी। यहीं पर एक बड़े घर मेँ कुछ
कंकाल मिले थे, जिन्हेँ लेकर कई तरह की कहानियाँ बनती रहीँ प्रसिद्ध 'नर्तकी' शिल्प भी यहीँ एक छोटे घर की खुदाई मेँ निकला था । इसके बारे मेँ पुरातत्त्वविद मार्टिमर वीलर ने कहा था कि संसार मेँ इसके जोड़ की दूसरी चीज़ शायद ही होगी । यह मूर्ति अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय मेँ है ।

यहीँ पर एक बड़ा घर है जिसे उपासना-केँद्र समझा जाता है । इसमेँ आमने-सामने की दो चौड़ी सीढ़ियाँ ऊपर की (ध्वस्त ) मंज़िल की तरफ़ जाती हैँ ।

पश्चिम मेँ-गढ़ी के ठीक पीछे-माधोस्वरूप वत्स के नाम पर वीएस हिस्सा है। यहाँ वह 'रंगरेज़ का कारखाना' भी लोग चाव से देखते हैं, जहाँ ज़मीन मेँ ईँटों के गोल गड्ढे उभरे
हुए हैं। अनुमान है कि इनमें रंगाई के बड़े बर्तन रखे जाते थे। दो कतारों मेँ सोलह छोटे
एक-मंजिला मकान हैं। एक कतार मुख्य सड़क पर है, दूसरी पीछे की छोटी सड़क की
तरफ़। सब में दो-दो कमरे हैं। स्नानघर यहाँ भी सब घरों में हैं। बाहर बस्ती मेँ कुएँ सामूहिक प्रयोग के लिए हैं। ये कर्मचारियों या कामगारों के घर रहे होंगे।

मुअनजो-दड़ो मेँ कुँओं को छोड़कर लगता है जैसे सब कुछ चौकोर या आयताकार हो। नगर की योजना, बस्तियाँ, घर, कुंड, बड़ी इमारतें, ठप्पेदार मुहरें, चौपड़ का खेल, गोटियाँ,
तौलने के बाट आदि सब ।

छोटे घरों मेँ छोटे कमरे समझ मेँ आते हैं। पर बड़े घरों मेँ छोटे कमरे देखकर अचरज
होता है। इसका एक अर्थ तो यह लगाया गया है कि शहर की आबादी काफी रही होगी।
दूसरी तरफ़ यह विचार सामने आया है कि बड़े घरों मेँ निचली( भूतल)मंजिल मेँ
नौकर-चाकर रहते होंगे। ऐसा अमेरिकी नृतत्त्वशास्त्री ग्रेगरी पोसेल का मानना है। बड़े घरों के आँगन मेँ चौड़ी सीढ़ियाँ हैं। कुछ घरों मेँ ऊपर की मंजिल के निशान हैं, पर सीढ़ियाँ नहीं हैं। शायद यहाँ लकड़ी की सीढ़ियाँ रही हों, जो कालांतर मेँ नष्ट ही गई। संभव है ऊपर की मंज़िल मेँ ज्यादा खिड़कियों, झरोखे और साज़-सज्जा रही हो । लकड़ी का इस्तेमाल भी बहुत संभव है पूरे घर मेँ होता हो । कुछ घरोँ मेँ बाहर की तरफ सीढ़ियोँ के संकेत हैँ । यहाँ शायद ऊपर और नीचे अलग-अलग परिवार रहते होँगे । छोटे घरोँ की बस्ती मेँ छोटी संकरी सीढ़ियाँ हैँ ।उनके पायदान भी ऊँचे हैँ ।ऐसा जगह की तंगी की वजह से होता होगा ।

गौर किया कि मुअनजो-दड़ो के किसी घर मेँ खिड़कियोँ या दरवाज़ोँ पर छज्जोँ के चिह्न नहीँ हैँ । गरम इलाकोँ के घरोँ मेँ छाया के लिए यह आम प्रावधान होता है । क्या उस वक्त यहाँ इतनी कड़ी धूप नहीँ पड़ती होगी ? मुझे मुअनजो-दड़ो की जानी -मुहरोँ के पशु याद हो आए । शेर , हाथी या गैँडा इस मरु-भूमि मेँ हो नहीँ सकते । क्या उस वक्त यहाँ जंगल भी थे? यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि यहाँ अच्छी खेती होती थी । पुरातत्त्वी शीरीन रत्नागर का मानना है कि सिँधु-वासी कुँओँ से सिँचाई कर लेते थे । दूसरे , मुअनजो-दड़ो की किसी खुदाई मेँ नहर होने के प्रमाण नहीँ मिले हैँ । यानी बारिश उस काल मेँ काफ़ी होती होगी । क्या बारिश घटने और कुँओँ के अत्यधिक इस्तेमाल से भू-तल जल भी पहुँच से दूर चला गया ? क्या पानी के अभाव मेँ यह इलाका उजड़ा और उसके साथ सिँधु घाटी की समृद्ध सभ्यता भी ?

मुअनजो-दड़ो मेँ उस रोज़ हवा बहुत तेज़ बह रही थी। किसी बस्ती के टूटे-फूटे घर मेँ दस्वाजे या खिड़क्री के सामने से हम गुज़रते तो सांय-सांय की ध्वनि मेँ हवा की लय साफ़ पकड़ मेँ आती थी। वैसे ही जैसे सड़क पर किसी वाहन से गुज़रते हुए
किनारे की पटरी के अंतरालों मेँ रह-रहकर हवा के लयबद्ध थपेड़े सुनाई पड़ते हैं। सूने घरों मेँ हवा की लय और ज्यादा गूँजती है। इतनी कि कोनों का अँधियारा भी सुनाई दे। यहाँ एक घर से दूसरे
घर मेँ जाने के लिए आपको किसी घर से वापस बाहर नहीं आना पड़ता। आखिर सब खंडहर हैं। सब कुछ खुला है। अब कोई घर जुदा नहीं है। एक घर दूसरे मेँ खुलता है, दूसरा तीसरे में। जैसे पूरी
बस्ती एक बड़ा घर हो। लेकिन घर एक नक्शा ही नहीं होता। हर घर का एक संस्कारमय आकार होता है। भले ही वह पाँच हजार
साल पुराना घर क्योँ न हो। हममें कमोबेश हर कोई पाँव आहिस्ता उठाते हुए एक घर से दूसरे घर मेँ बेहद धीमी गति से दाखिल होता था। मानो मन मेँ अतीत को निहारने की जिज्ञासा ही न हो, किसी अजनबी घर मेँ अनधिकार चहल-कदमी का अपराध-बोध भी हो।
जैस किसी पराए घर मेँ पिछवाड़े से चोरी-छुपे घुस आए सब जानते हैं यहाँ अब कोई बसने नहीं आएगा। लेकिन यह मुअनजो-दड़ो के
पुरातात्त्विक अभियान की ही खूबी थी कि मिट्टी मेँ इंच-दर-इंच कंघी कर इस कदर शहर, उसकी गलियों और घरों को ढूँढ़ा और सहेजा गया है कि यह अहसास हर वक्त आपके साथ रहता है, कल कोई यहाँ बसता था। जरूर यह आपकी सभ्यता परंपरा है । मगर घर आपका नहीँ है ।

अनचाहे मुझे मुअनजो-दड़ो की गलियोँ या घरोँ मेँ राजस्थान का खयाल न आए, ऐसा नहीँ हो सका । महज़ इसलिए नहीँ कि (पश्चिमी) राजस्थान और सिंध-गुजरात की दृश्यावली एक -सी है । कई चीज़ेँ हैँ जो मुझे यहाँ से वहाँ जोड़ जाती हैँ । जैसे हज़ारोँ साल पुराने यहाँ के खेत । बाजरे और ज्वार की खेती । मुअनजो-दड़ो के घरोँ मेँ टहलते हुए मुझे कुलधरा की याद आई । यह जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरोँ वाला एक खूबसूरत गाँव है । उस खूबसूरती मेँ हरदम एक गमी व्याप्त है। गाँव मेँ घर हैं, पर लोग नहीं हैं। कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर स्वाभिमानी गाँव का हर बाशिदा रातोरात अपना घर छोड़ चला गया। दरवाज़े-असबाब पीछे लोग उठा ले गए। घर खंडहर ही गए पर ढहे नहीं। घरों की दीवारें,
प्रवेश और खिड़कियाँ ऐसी हैं जैसे कल की बात हो। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे थाम लिया। जैसे सुबह लोग घरों से निकले हों, शायद शाम ढले लौट आने वाले हों।

राजस्थान ही नहीं, गुजरात, पंजाब और हरियाणा मेँ भी कुएँ, कुंड, गली-कूचे, कच्ची-पक्की ईंटों के कई घर भी आज वैसे मिलते हैं जैसे हज़ारों साल पहले हुए।

जॉन मार्शल ने मुअनजो-दड़ो पर तीन खंडों का एक विशद प्रबंध छपवाया था। उसमें
खुदाई मेँ मिली ठोस पहियों वाली मिट्टी की गाड़ी के चित्र के साथ सिँध मेँ पिछली सदी
मेँ बरती जा रही ठीक उसी तरह की बैलगाड़ी का भी एक चित्र प्रकाशित है। तसवीर से
उन्होंने एक सतत् परंपरा का इज़हार किया, हालाँकि कमानी या आरे वाले पहिए का आविष्कार बहुत पहले हो चुका था जब मैँ छोटा था, हमारे गाँव मेँ भी लकड़ी वाले ठोस पहिए बैलगाड़ी मेँ जुड़ते थे । दुल्हन पहली दफा इसी बैलगाड़ी मेँ ससुराल जाती थी । बाद मेँ हमारे यहाँ भी बैलगाड़ी मेँ आरे वाले पहिए जुड़ने लगे । अब तो उसमेँ जीप के उतारू पहिए लगते हैँ । हवाई जहाज के उतारू पहिए बाजार मेँ आने के बाद ऊँटगाड़े (गाड़ी नहीँ ) का भी आविष्कार हो गया है । रेगिस्तान के जहाज़ से हवा के जहाज़ का यह ऐतिहासिक गठजोड़ है । हालाँकि कहना मुश्किल है कि दुल्हन की सवारी के रूप मेँ बैलगाड़ी या ऊँटगाड़े का अब वहाँ कभी इस्तेमार होता होगा !

हमारे मेज़बान ने ध्यान दिलाया कि मुअनजो-दड़ो का अजायबघर देखना अभी बाकी है । खंडहरोँ से निकल हम उस साबुत इमारत मेँ आ गए । लेकिन प्रदर्शित सामान आपको खंड़हरोँ से निकल आने का एहसास होने नहीँ देता । अजायबघर छोटा ही है । जैसे किसी कस्बाई स्कूल की इमारत हो । सामान भी ज़्यादा नहीँ है । अहभ चीज़ेँ कराची ,लाहौर , दिल्ली और लंदन मेँ हैँ । योँ अकेले मुअनजो-दड़ो की खुदाई मेँ निकली पंजीकृत चीज़ोँ की संख्या पचास हज़ार से ज़्यादा है । मगर जो मुट्ठी भर चीज़ेँ यहाँ प्रदर्शित हैँ ,पहुँची हुई सिंधु सभ्यता की झलक दिखाने को काफ़ी हैँ ।
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काला पड़ गया गेहूँ , ताँबे और काँसे के बर्तन ,मुहरेँ ,वाद्य ,चाक पर बने विशाल मृद्-भांड , उन पर
काले- भूरे चित्र, चौपड़ की गोटियाँ, दीये,
माप-तौल पत्थर, ताँबे
का आईना , मिट्टी की
बैलगाड़ी और दूसरे
खिलौने , दो पाटन वाली चक्की , कंघी , मिट्टी के कंगन , रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औज़ार । अजायबघर में
तैनात अली नवाज़ बताता है , कुछ सोने के गहने भी यहाँ हूआ करते थे जो चोरी हो गए।

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एक खास बात यहाँ कोई भी महसूस करेगा । अजायबघर में प्रदर्शित चीजों में औजार तो हैं, पर हथियार कोई नहीं है। मुअनजो-दड़ो क्या , हड़प्पा से लेकर हरियाणा तक समूची सिंधु सभ्यता में
हथियार उस तरह कहीं नहीं मिले हैं जैसे किसी राजतंत्र मेँ होते हैं ।

इस बात को लेकर विद्वान सिंधु सभ्यता मेँ शासन या सामाजिक प्रबंध के तौर-तरीके को समझने की कोशिश
कर रहे हैं। वहाँ अनुशासन ज़रूर था, पर ताकत के बल पर नहीं। वे न रही हो । मगर कोई अनुशासन ज़रूर था जो नगर योजना , वास्तुशिल्प , मुहर-ठप्पोँ, पानी या साफ़-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओँ आदि मेँ एकरूपता तक को कायम रखे हुए था । दूसरी बात ,जो सांस्कृतिक धरातल पर सिंधु घाटी सभ्यता को दूसरी सभ्यताओँ से अलग ला खड़ा करती है ,वह है प्रभुत्व या दिखावे के तेवर का नदारद होना ।

दूसरी जगहोँ पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल , उपासना-स्थल ,मूर्तियाँ और पिरामिड आदि मिलते हैँ । हड़प्पा संस्कृति मेँ न भव्य राजप्रसाद मिले हैँ ,न मंदिर ,न राजाओँ, महंतों की समाधियाँ । यहाँ के मूर्तिशिल्प छोटे हैं और औजार भी। मुअनजो-दड़ो के 'नरेश' के सिर पर जो 'मुकुट' है, शायद उससे छोटे सिरपेच की कल्पना भी नहीं की जा सकती। और तो और, उन लोगों की नावें बनावट में मिस्र की नावों जैसी होते हुए भी आकार में छोटी रहीं। आज़ के मुहावरे में कह सकते हैं वह 'लो-प्रोफाइल' सभ्यता थी;
लघुता में भी महत्ता अनुभव करने वाली संस्कृति।

मुअनजो-दड़ो सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा शहर ही नहीं था, उसे साधनों और
व्यवस्थाओं को देखते हुए सबसे समृद्ध भी माना गया है। फिर भी इसको सपन्नता की बात कम हुई है तो शायद इसलिए कि उसमें भव्यता का आडंबर नहीं है। दूसरी वजह यह भी है कि मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा पिछली सदी में ही उद्घाटित्त ही सके। उनको अनबूझ लिपि अभी भी सारे रहस्य अपने मेँ छिपाए हुए है।

नृत्य मुद्रा मेँ
लड़की
2500 ई. पूर्व

सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्त्व ज्यादा था। वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, धातु और पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियोँ की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास, आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक-सिद्ध से ज़्यादा कला-सिद्ध ज़ाहिर करता है । एक पुरातत्त्वेत्ता के मुताबिक सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य -बोध है , " जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था ।" शायद इसीलिए आकार की भव्यता की जगह उसमेँ कला की भव्यता दिखाई देती है ।

अजायबघर मेँ रखी चीज़ोँ मेँ कुछ सुइयाँ भी हैँ । खुदाई मेँ ताँबे और काँसे की तो बहुत सारी सुइयाँ मिली थीँ । काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सुइयाँ मिलीँ जिनमेँ एक दो-इंच लंबी थी । समझा गया है कि यह बारीक कशीदेकारी मेँ काम आती होगी । याद करेँ ,नर्तकी के अलावा मुअनजो-दड़ो के नाम से प्रसिद्ध जो दाढ़ी वाले 'नरेश' की मूर्ति है , उसके बदन पर आकर्षक गुलकारी बाला दुशाला भी है। आज छापे वाला कपड़ा 'अज़रक' सिंध की खास पहचान बन गया है, पर कपड़ोँ पर छपाई का
आविष्कार बहुत बाद का है। खुदाई में सुइयों के अलावा हाथीदाँत और ताँबे के सुए भी मिले हैं। जानकार मानते हैं कि इनसे शायद दरियाँ बुनी जाती थीं। हालाँकि दरी का कोई नमूना या साक्ष्य हासिल नहीँ हुआ है ।

वह शायद कभी हासिल न हो , क्योँकि मुअनजो-दड़ो मेँ अब खुदाई बंद कर दी गई है । सिंधु के पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है । मौजूदा खंडहरोँ को बचाकर रखना ही अब अपने आप मेँ बड़ी चुनौती है ।

जूझ (आनंद यादव)

पाठशाला जाने के लिए मन तड़पता था। लेकिन दादा के सामने खड़े होकर यह कहने की हिम्मत नहीं होती कि, "मैँ पढ़ने जाऊँगा।" डर लगता था कि हड्डी-पसली एक कर देगा। इसलिए मैँ इस ताक में रहता कि कोई दादा को समझा दे। मुझे इसका विश्वास था कि जन्म-भर खेत में काम करते रहने पर भी हाथ कुछ नहीं
लगेगा। जो बाबा के समय था, वह दादा के सम
नहीं रहा। यह खेती हमें गड्ढे में धकेल रही है। पढ़ जाऊँगा तो नौकरी लग जाएगी, चार पैसे हाथ में रहेंगे, विठोबा आण्णा की तरह कुछ धंधा कारोबार किया जा सकेगा।' अंदर-ही-अंदर इस तरह के विचार चलते रहते।


दीवाली बीत जाने पर महीना-भर ईख पेरने का कोल्हू चलाना होता। कोल्हू ज़रा जल्दी शुरू किया तो दादा की समझ से ईख की अच्छी-खासी कीमत मिल जाती। यह उसकी समझ कुछ हद तक सही थी। जब चारों और कोल्हू चलने लगते तो बाजार में गुड़ की बहुतायत ही जाती और भाव नीचे उतर आते। उस समय नंबर एक और नंबर दो का गुड़ बहुत आता और हमारे जैसे खेतों पर ही बनाए गए नंबर तीन के गुड़ को कौन पूछता। बाकी के
किसान दूसरे ढंग से विचार करते थे। उनका मत था कि यदि ईख को और कुछ दिन खेत में खड़ी रहने दिया गया तो गुड़ जरा ज्यादा निकलता है। देर तक खड़ी रहने वाली ईख के रस में पानी की मात्रा कम होती है और रस गाढ़ा हो जाता है जिसके कारण ज़्यादा गुड़ निकलता है । लेकिन दादा की समझ से गुड़ ज़्यादा निकलने की अपेक्षा ज़्यादा मिलना चाहिए ।
इसलिए सारे गाँव भर मेँ कोल्हू सबसे पहले शुरू होता था ।

इसी कारण वह इस वर्ष भी शुरू हुआ और हम उससे जल्दी निपट गए। आगे के
मेँ लग गए।

सभी जन धूप मेँ लेटे हुए थे। माँ धूप मेँ कंडे थाप रही थी-मैं बाल्टी मेँ भर-भरकर उसे दे रहा था। कुछ-न-कुछ बातचीत भी कर रहे थे। हम दोनों ही थे इसलिए यह सोचकर कि बात माँ से कहनी चाहिए और मैंने अपने पढ़ने की बात छेड़ दी।
माँ ने कहा," अब तू ही बता, मैँ का करूँ?" पढ़ने-लिखने की बात की तो वह बरहैला
सूअर की तरह गुर्राता है। तुझे मालूम है। "…माँ के मन मेँ जंगली सूअर बहुत गहराई मेँ बैठा हुआ था ।

"अब मळा (खेती) के सभी काम बीत गए हैं। मेरे लिए अब कुछ तो करना नहीँ रह गया है। इसलिए कहता हूँ ; तू दत्ता जी राव सरकार से मेरे पढ़ने के बारे मेँ कह । आज रात को उनके यहाँ चलेगे। मैं चलूँगा तेरे साथ । तू उन्हेँ सब कुछ समझाकर बता दे । तो वे दादा को ठीक तरह से समझा सकेँगे ।"

"ठीक है चलेंगे।" माँ ने हाँ तो की लेकिन अंदर से माँ के
स्वर मेँ उदासी थी। मुझे भी मालूम था कि इतना करने पर भी कोई लाभ नहीं होगा। लेकिन वह मेरा मन रखने के लिए जाने को तैयार हो गई। मेरी तड़पन वह समझती थी। सातवीं तक पढ़ाने की उसके
मन मेँ तैयारी थी। लेकिन दादा के आगे उसका बस नहीं चलता था।

रात को मैं और माँ दत्ता जी राव देसाई के यहाँ गए। माँ ने
दीवार के सहारे बैठकर दत्ता जी राव से सब कुछ कह दिया। वे भी इस बात से सहमत हो गए। माँ ने यह भी बताया कि दादा सारे दिन बाजार मेँ रखमाबाई के पास गुजार देता है। खेती के काम मेँ हाथ नहीं लगाता है। माँ ने देसाई को यह विश्वास दिला दिया कि दादा को सारे गाँव भर आजादी के साथ घूमने को मिलता रहे, इसलिए उसने मेरा पढ़ना बंद कर मुझे खेती मेँ जोत दिया है। यह सुनते ही देसाई दादा चिढ़ गए और बोले, " आने दे अब उसे, मेँ
उसे सुनाता हूँ कि नहीं अच्छी तरह, देख ।"

उठते-उठते मैंने भी दत्ता जी राव से कहा, " अब जनवरी का महीना है। अब परीक्षा नज़दीक आ गई है। मैं यदि अभी भी कक्षा मेँ जाकर बैठ गया और पढ़ाई की दुहराई कर ली तो दो महीने मेँ
पाँचवीं की सारी तैयारी हो जाएगी और मैं परीक्षा मेँ पास हो जाऊँगा। इस तरह मेरा साल बच जाएगा। अब खेती मेँ ऐसा कुछ काम नहीं है। मेरा पहले ही एक वर्ष बेकार मेँ चला गया है।

"ठीक है, ठीक है। अब तुम दोनों अपने घर जाओ-जब वह आ जाए तो मेरे पास भेज देना और उसके पीछे से घड़ी भर बाद मेँ तू भी आ जाना रे छोरा।"

"जी!" कहकर हम खड़े हो गए। उठते-उठते हमने यह भी
कहा कि "हमने यहाँ आकर ये सारी बातेँ कहीँ हैँ , यह मत बता देना , नहीँ तो हम दोनोँ की खैर नहीँ है । माँ अकेली साग -भाजी देने आई थी । यह बता देँगे तो अच्छा होगा ।"

"ठीक है, ठीक है। मुझे जो करना है मैँ करूँगा । देख ,उसके सामने ही तुझसे कुछ पूछूँगा तो निडर होकर साफ़-साफ़ उत्तर देना । डरना मत ।"

"नहीं जी।"

मैं माँ के साथ लौट आया। एक घंटा रात बीते दादा घर पर आया। मैं घर मेँ ही था।

आते ही माँ ने दादा से कहा, "साग-भाजी देने देसाई सरकार के यहाँ गई थी तो उन्होँने कहा कि बहुत दिनों से तेरा मालिक दिखाई नहीं दिया है। खेत से आ जाने पर ज़रा इधर भेज देना।"

"कुछ काम-वाम था?" दादा ने अधीरता से पूछा।

"मूझे तो कुछ बताया नहीं उन्होंने।"

"तो मैँ हो आता हूँ। तब तक तू रोटियाँ सेंक ले। गणपा आए तो उसे खेतों पर भेज देना
पहले ही।"

दादा तुरंत उठ खडा हुआ। देसाई के बाड़े का बुलावा दादा के लिए सम्मान की बात थी।
आधा घंटा बीतने पर माँ ने मुझसे कहा कि " अब तू जा, कहना जीमने बुलाया है।"

"अच्छा ।"

मैं पहुँचा तो सरकार मेरी राह देख रहे थे।

"क्योँ आया रे छोरे?"

"दादा को बुलाने आया हूँ, अभी खाना नहीं खाया है।"

"बैठ, बैठ थोड़ी देर । अभी तो आया है वह मेरे पास ।"

"जी," मैं बैठ गया।

धीरे-धीरे दत्ता जी राव पूछने लगे, "कौन-सी मेँ पढ़ता है रे तू?"

"जी, पाँचवीं मेँ था किंतु अब नहीं जाता हूँ।"

"क्योँ रे?"

"दादा ने मना कर दिया है। खेतों मेँ पानी लगाने वाला कोई नहीं है।"

"क्योँ रतनाप्पा?"

"हाँ जी!"

"फिर तू क्या करता है? " सरकार ने दादा से जिरह करना शुरू किया तो सारा इतिहास बाहर निकल आया। सरकार ने दादा पर खूब गुस्सा किया। उन्होँने दादा की खूब हजामत

बनाई। देसाई के मळा (खेत) को छोड़ देने के बाद दादा का ध्यान किसी काम की तरफ़ नहीं रहा। मन लगाकर वह खेत मेँ श्रम नहीं करता है; फ़सल मेँ लागत नहीं लगाता है, लुगाई और बच्चों को काम मेँ जोतकर किस तरह खुद गाँव भर मेँ खुले साँड़ की तरह घूमता है और अब अपनी मस्ती के लिए किस तरह छोरा के जीवन की बलि चढ़ा रहा है। यह सब उन्होंने सुनाया।

दादा के हरेक तर्क को दत्ता जी राव ने काट दिया और मुझसे कहा, "सवेरे से तू पाठशाला जाता रह, कुछ भी हो, पूरी फीस भर दे उस मास्टर की। और मन लगाकर पढ़ाई कर और किसी भी तरह साल नहीं मारा जाए, इसका ध्यान रख । यदि इसने तुझे पढ़ने नहीं भेजा तो सीधा चला आ इधर । सुबह-शाम जो हो सके, वह काम कर यहाँ और पाठशाला जाते रहना। मैं पढाऊँगा तुझे। इसके पास ज़रा ज्यादा बच्चे हो गए हैं इसलिए तुम्हारे साथ कुत्तों की तरह
बर्ताव करता है।"

"मैँने मना कब किया है जी? इसको ज़रा गलत-सलत आदत पड़ गई थी इसलिए पाठशाला से निकालकर ज़रा नज़रों के सामने रख लिया है।"

"कैसी आदतें?"

"चाहे जैसी। यहाँ-वहाँ कुछ भी करता है। कभी कंडे बेचता,
कभी चारा बेचता, सिनेमा देखता, कभी खेलने जाता। खेती और घर के काम मेँ इसका बिलकुल ध्यान नहीं 
है।" दादा ने मेरे ऊपर
अचानक हल्ला बोल दिया।

"क्योँ रे छोकरे?"

"नहीँ जी! कभी एक बार मेले मेँ पटा पर पैसे लगा दिए थे । दादा तो कभी भी सिनेमा के लिए पैसे नहीँ देते हैँ । इसलिए खेत पर गोबर बीन-बीनकर माँ से कंडे थपवा लिए थे और उन्हेँ बेचकर ही कपड़े भी बनवाए थे । उसी समय एक बार सिनेमा भी गया था ।" मैँने भी झूठ-सच मिलाकर ठोँक दिया ।

"अब यह सब बंद कर और सिर्फ़ पढ़ाई मेँ मन लगा। ना पास नहीं हुआ है कभी?"

"नहीं जी। पाठशाला जाना ही बंद करा दिया इसलिए परीक्षा मेँ नहीं बैठा हूँ।"

"अच्छा-अच्छा। अब तू घर जा और सवेरे से पाठशाला जाने लग ।"

"जी।" मैं उठ खडा हुआ। बाहर निकलते-निकलते मैँने सुना, "अरे, बच्चे की जात
है। एकाध वक्त सिनेमा चला गया तो क्या हुआ? एकाध बार खेलने मेँ लग गया तो क्या हुआ? इस बात पर उसका पढ़ना-लिखना बंद कर देना है क्या ?"

"जी।" आप कहते हैँ तो भेज देता हूँ कल से । देखते हैँ एकाध वर्ष मेँ कुछ सुधार हो जाए तो ।" दादा ने मन मारकर कहा । इस समय उसका कोई बस नहीँ चला था ।

खाना खाते-खाते दादा ने मुझसे वचन ले लिया । पाठशाला ग्यारह बजे होती है ।दिन निकलते ही खेत पर हाज़िर होना चाहिए । ग्यारह बजे तक पानी लगाना चाहिए ।खेत पर से सीधे पाठशाला पहुँचना । सवेरे आते समय ही पढ़ने का बस्ता घर से ले आना ।
छुट्टी होते ही घर मेँ बस्ता रखकर सीधे खेत पर आकर घंटा भर ढोर चराना और कभी खेतों मेँ ज्यादा काम हुआ तो पाठशाला मेँ गैर-हाजिरी लगाना... समझे! "मंजूर है का?"

"हाँऽ। खेत मेँ काम होगा तो गैरहाजिर रहना ही चाहिए।" मैं ऐसे बोल रहा था मानो मुझे सारी बातें मंजूर हैं। मन आनंद से उमड़ रहा था ।

"हाँऽ , इतना मंजूर हो तो पाठशाला जाना। नहीं तो यह
पढ़ना-लिखना किस काम का?"

"मैँ सवेरे-शाम खेतों पर आता रहूँगा न ।"

"हाँ ,यदि नहीं आया किसी दिन तो देख गाँव मेँ जहाँ मिलेगा वहीं कुचलता हूँ कि नहीं-तुझे। तेरे ऊपर पढ़ने का भूत सवार हुआ है। मुझे मालूम है, बालिस्टर नहीं होनेवाला है तू? " दादा बार-बार कुर-कुर कर रहा था-मैं चुपचाप गरदन नीची करके खाने लगा था।

रोते-धोते पाठशाला फिर से शुरू हो गई। गरमी-सरदी, हवा-पानी,वर्षा, भूख-प्यास आदि का कुछ भी खयाल न करते हुए खेती के काम की चक्की मेँ, ग्यारह से पाँच बजे तक पिसते रहने से छुटकारा मिल गया। उस चक्की की अपेक्षा पास्टर की छड़ी की मार अच्छी लगती थी। उसे मैँ मजे से सहन कर लेता था।

दोपहरी-भर की कड़क धूप का समय पाठशाला की छाया मेँ
व्यतीत हो रहा था-गरमी के दो महीने आनंद मेँ बीत गए।

फिर से पाँचवीं मेँ जाकर बैठने लगा। फिर से नाम लिखवाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। 'पाँचवीं नापास' की टिप्पणी नाप के आगे लिखी हुई थी । वह पाँचवी के ही हाज़िरी रजिस्टर मेँ लिखा रह गया था । पहले दिन कक्षा मेँ गया तो गली के दो लड़कोँ को छोड़कर कोई भी पहचान का नहीँ था । मेरे साथ के सभी लड़के आगे चले गए थे । मेरी अपेक्षा कम उम्र के और मैँ जिन्हेँ कम अकल का समझता था , उन्हीँ के साथ अब बैठना पड़ेगा ,यह बात कक्षा मेँ पहुँचने पर समझ मेँ आई । मन खट्टा हो गया । बाहरी-अपरिचित जैसा एक बेँच के एक सिरे पर कोने में जा बैठा। मास्टर कौन है, इसका पता नहीं था। पुरानी किताबोँ और पुरानी कापियों का उस कक्षा से कोई संबंध नहीं था- फिर भी लट्ठे के बने थैले में उन्हेँ ले आया था। बस अड्डे पर कोई लड़का अपनी पोटली सँभाले किसी इंतजार में जैसे बैठा होता है, उसी तरह मैं अपनी पढ़ाई की पुरानी धरोहर सँभाले बैठा था।

"क्या नाम है मेहमान? नया दिखाई देता है। या गलती से इस कक्षा में आ बैठे हो?"

कक्षा के सबसे ज्यादा शरारती चह्वाण के लड़के ने सामने आकर खिल्ली उड़ाने के स्वर में पूछा। मेरे ध्यान में आया कि मेरी पोशाक भी अजनबी जैसी है। बालुगड़ी की लाल माटी के
रंग मेँ मटमैली हुई धोती और गमछा पहनकर मैं अकेला ही था।

"देखेँ-देखेँ तुम्हारा गमछा।" 

कहते हुए उसने मरा गमछा खीँच लिया।…गया अब मेरा
गमछा। पूरी कक्षा में इसकी खींचातानी होगी और फट जाएगा। मन में मैं यह सोचकर रूआँसा हो गया। लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं। उस लड़के ने उसे अपने सिर पर लपेट लिया और
मास्टर की नकल करते हुए उसे उतारकर टेबल पर रखकर अपने सिर पर हाथ फेरते हुए हुश्शऽऽ की आवाज़ की। इतने मेँ मास्टर आ गए और वह गुंडा झट से अपनी जगह पर जा बैठा। मेरा गमछा टेबल पर ही रहा । पहले दिन ही इस घटना ने मेरे दिल की धड़कन बढ़ा दी और छाती मेँ धक-धक होने लगी ।

रणनवरे मास्टर कक्षा मेँ आए । टेबल पर मटमैला गमछा देखकर उन्होँने पूछा , "किसका है रे?"

"मेरा है मास्टर ।"

"तू कौन है?"

"मैँ जकाते । पिछले साल फ़ेल होकर इसी कक्षा मेँ बैठा हुँ ।"

"गमछा ले जा पहले ।" उसने छड़ी से मेरा गमछा उठाकर नीचे डाल दिया । मैँ उसे उठाने गया तो कहा , "यहाँ क्योँ रखा है मूर्खोँ की तरह?"

"मैँने नहीँ रखा मास्टर , उस लड़के ने मेरे सिर से छीन लिया और यहाँ रख दिया है ।"

"यह चह्वाण का बच्चा बिना बात के उठक -पटक करता है ।" कहते हुए मास्टर उस लड़के की ओर चले गए ।

मास्टर ने मेरे बारे मेँ और भी पूछताछ की और वामन पंडित की कविता पढ़ाने लगे । 

बीच की छुट्टी मेँ मेरी धोती की काछ उस लड़के ने दो बार
खींचने की कोशिश की। लेकिन मैँ फिर दीवार की तरफ़ पीठ
करके जा बैठा तो पूरी छुट्टी होने से पहले उठा ही नहीं। खिलौने के लिए बनाए गए कौआ के बच्चे को खुले मेँ रख देने पर जैसे कौए चारों ओर से उस पर चोंच मारते हैं, वैसा ही मेरा हाल हो गया। मेरी ही पाठशाला मुझे चोंच मार-मारकर घायल कर रही थी।

घर जाते समय सोच रहा था कि लड़के मैरी खिल्ली उड़ाते
हैं-धोती खींचते हैं-गमछा खींचते हैं, तो इस तरह कैसे निबाह होगा...? नहीं जाऊँगा ऐसी पाठशाला मेँ। इससे तो अपना खेत ही अच्छा है-
चुपचाप काम करते रहो। गली के दो ही लड़के हैं कक्षा मेँ, वे भी मुझसे भी कमजोर हैं।वे क्या मदद करेंगे?...

मन उदास हो गया। चौथी से पाँचवीं तक पाठशाला अपनी
लगती थी। लेकिन अब वह एकदम पराई-पराई जैसी लगने लगी है। अपना वहाँ कोई नहीं है।

सवेरे हो जाने पर मैं उमंग मेँ था-फिर से पाठशाला चला
गया। माँ के पीछे पड़कर एक नयी टोपी और दो नाड़ीवाली चड्डी मैलखाऊ रंग की आठ दिन मेँ मँगवा ली। चड्डी पहनकर पाठशाला मेँ और धोती पहनकर खेत पर जाना शुरू हुआ। धीरे-धीरे लड़कों
से परिचय बढ़ गया।

मंत्री नामक मास्टर कक्षा अध्यापक के रूप मेँ बीच मेँ आए। वे प्राय: छड़ी का उपयोग नहीं करते थे। हाथ से गरदन पकड़कर पीठ पर घूसा लगाते थे। पीठ पर एक ज़ोर का बैठते ही लड़का हूक भरने लगता । लड़कोँ के मन मेँ उनकी दहशत बैठी हुई थी । इसके कारण ऊधम करने वाले लड़कोँ को प्राय : मौका नहीँ मिलता था । पढ़ने वाले लड़कोँ को शाबाशी मिलने लगी । मंत्री मास्टर गणित पढ़ाते थे । एकाथ सवाल गलत हो जाता तो उसे वे अपने पास बुलाकर समझा देते । एकाध लड़के की कोई मूर्खता दिखाई दी तो वे उसे वहीँ ठोँक देते । इसलिए सभी का पसीना छूटने लगता । सभी लड़के घर से पढ़ाई करके आने लगे ।

वसंत पाटील नाम का एक लड़का शरीर से दुबला-पतला, किंतु बड़ा होशियार था। उसके सवाल हमेशा सही निकलते थे। स्वभाव से शांत । हमेशा पढ़ने में लगा रहता। घर से पूरी तैयारी करके आता होगा। दूसरों के सवालों की जाँच करता था। मास्टर ने उसे कक्षा मॉनीटर बना दिया था। हमेशा पहली बेंच पर बैठता बिलकुल मास्टर के पास । कक्षा में उसका
सम्मान था।

मुझे यह लड़का मेरी अपेक्षा छोटा लगता था...मैँ उससे पहले ही पाँचवीं में पहुँच गया
था। गलती से पिछड़ गया हूँ मैँ। इसलिए मास्टर को कक्षा की मॉनीटरी मेरे हाथ में सौंपनी चाहिए, मुझे ऐसा लगने लगा। दूसरी ओर यह भी लगता था कि मुझे दो महीने में पाँचवीं की पूरी तैयारी करके अच्छी तरह पास होना है। कक्षा में दंगा करना और पढ़ाई की उपेक्षा करना
मेरे लिए मुनासिब नहीं। हम तो इस कक्षा में ऊपरी हैं, यह नहीं भूलना चाहिए।

इन सब बातों के कारण मेरा सारा ध्यान पढाई की ओर ही रहा और वसंत पाटिल की
तरह ही पढ़ाई का काम करने लगा। मैंने अपनी किताबोँ पर अखबारी कागज़ के कवर चढ़ा
दिए। अपना बस्ता व्यवस्थित रखने लगा। हमेशा कुछ-न-क्रुछ पढ़ने बैठता था। उसने यदि
कक्षा में कोई शाबाशी का काम किया तो मैँ भी दूसरे दिन वैसा ही कुछ करने लगा। मन
की एकाग्रता क कारण गणित झटपट समझ में आने लगा और सवाल सही होने लगे।

कभी-कभी वसंत पाटील के साथ-साथ ,एक तरफ़ से वह तो दूसरी तरफ़ से मैँ लड़कोँ के सवाल जाँचने लगा । इसके कारण मेरी और वसंत की दोस्ती जम गई । एक-दूसरे की सहायता से कक्षा मेँ हम अनेक काम करने लगे । मास्टर मुझे 'आनंदा' कहकर बुलाने लगे । मुझे पहली बार किसी ने 'आनंदा कहकर पुकारा । माँ कभी 'आनंदा कहती ,परन्तु बहुत कम । मास्टरोँ के इस अपनेपन के व्यावहार के कारण और वसंत की दोस्ती के कारण पाठशाला मेँ विश्वास बढ़ने लगा ।

न.वा.सौँदलगेकर मास्टर मराठी पढ़ाने आते थे । पढ़ाते समय वे स्वयं रम जाते थे । विशेषत : वे कविता बहुत ही अच्छे ढंग से पढ़ाते थे । सुरीला गला , छंद की बढ़िया चाल और उसके साथ ही रसिकता थी उनके पास । पुरानी-नयी मराठी कविताओँ के साथ-साथ उन्हेँ अनेक अंग्रेजी कविताएँ कंठस्थ थीँ । अनेक छंदोँ की लय , गति ,ताल उन्हेँ अच्छी तरह आते थे । पहले वे एकाध कविता गाकर सुनाते थे -फिर बैठे -बैठे अभिनय के साथ कविता का भाव ग्रहण कराते । उसी भाव की किसी अन्य कवि की कविता भी सुनाकर दिखाते । बीच मेँ कवि यशवंत ,बा.भ.बोरकर ,भा.रा. ताँबे , गिरिश , केशव कुमार आदि के साथ अपनी मुलाकात के संस्मरण सुनाते । वे स्वयं भी कविता करते थे । याद आ गई तो वे अपनी भी एकाध सुना देते। यह सब सुनते हुए, अनुभव करते हुए, मुझे अपना भान ही नहीं रहता था। मैं अपनी आँखों और कानों मेँ प्राणों की सारी शक्ति लगा । कर-दम रोककर मास्टर के हाव-भाव, ध्वनि, गति, चाल और रस पीता रहता।

सुबह-शाम खेत पर मानी लगाते हुए या ढोर चराते हुए
अकेले मेँ खुले गले से वे सारी कविताएँ मास्टर के ही हाव-भाव, यति-गति और आरोह-अवरोह के अनुसार ही गाता। उन कविताओं के अर्थों से खेलता हुआ मैं आगे-पीछे आता-जाता था। मास्टर जिस
प्रकार बैठे-बैठे ही अभिनय करते थे, मैं पानी लगाते-लगाते वैसा अभिनय करता था। क्यारियाँ पानी से कब की भर गई हैं, इसका भान भी नहीं रहता था। मास्टर की चाल पर दूसरी कविताएँ भी
पढ़ी जा सकती हैं, इसका पता भी मुझे उसी समय चला।

इन कविताओं के साथ खेलते हुए मुझे दो बड़ी शक्तियाँ प्राप्त हुईं-पहले ढोर चराते हुए, पानी लगाते हुए, दूसरे काम करते हुए, अकेलापन बहुत खटकता था-किसी के साथ बोलते हुए, गपशप
करते हुए, हँसी-मजाक करते हुए काम करना अच्छा लगता
था-हमेशा कोई-न-कोई साथ मेँ होना चाहिए, ऐसा लगता था। लेकिन अब अकेलेपन से कोई ऊब नहीं होती। मैं अपने आप से ही खेलने लगा। उलटा अब तो ऐसा लगने लगा कि जितना अकेला रहूँ, उतना अच्छा। इस कारण कविता ऊँची आवाज़ मेँ गाई जा
सकेगी। किसी भी तरह का अभिनय किया जा सकेगा। कविता गाते-गाते थुई-थुई करके नाचा जा सकता था। मैँ सचमुच ही नाचने लगता था। मैंने अनेक कविताओं को अपनी खुद की चाल मेँ गाना शुरू किया। अनंत काणेकर की कविता, जिसकी पहली पक्ति इस प्रकार है-"चाँद रात पसरिते पाँढरी गाया धरणीवरी" को मैने मास्टर
की चाल से अलग अपनी चाल मेँ बिठाकर गाई। यह चाल एक सिनेमा के गाने के आधार पर थी । वह ,'केशव करणी जाति' नामक छंद मेँ था । उस कविता को मैँ मास्टर की अपेक्षा ज़्यादा अभिनय के साथ गाता था-चेहरे पर कविता के भाव पैदा करने का प्रयत्न करता था । मास्टर को मेरा प्रयत्न इतना अच्छा लगा कि उन्होँने छठी-सातवीँ कक्षा के सभी लड़कोँ के सामने मुझे बुलाकर गवाया । पाठशाला के एक समारोह मेँ भी उसे गवाया...इसके कारण मुझे लगा कि मेरे कुछ नए पंख निकल आए हैँ ।

मास्टर स्वयं कविता करने थे । अनेक मराठी कवियोँ के काव्य -संग्रह उनके घर मेँ थे 1 वे उन कवियोँ के चरित्र और उनके संस्मरण बताया करते थे । इसके कारण ये कवि लोग मुझे 'आदमी' ही लगने लगे थे । खुद सौँदलगेकर मास्टर कवि थे । इसलिए यह विश्वास हुआ कि कवि भी अपने जैसा ही एक हाड़-माँस का; क्रोध-लोभ का मनुष्य ही होता है । मुझे भी लगा कि मैँ भी कविता कर सकता हुँ । मास्टर के दरवाज़े पर छाई हुई मालती की बेल पर मास्टर ने एक कविता लिखी थी । वह कविता और वह लता मैँने दोनोँ ही देखी थी । इसके कारण मुझे लगता था कि अपने आसपास ,अपने गाँव मेँ ,अपने खेतोँ मेँ ,कितने ही ऐसे दृश्य हैँ जिन पर मैँ कविता बना सकता हुँ । यह सब कुछ अनजाने मेँ ही होता रहता था । भैँस चराते-चराते मैँ फ़सलोँ पर , जंगली फूलोँ पर तुकबंदी करने लगा । उन्हेँ ज़ोर से गुनगुनाता भी था और मास्टर को दिखाने लगा । कविता लिखने के लिए खीसा मेँ कागज़ और पेँसिल रखने लगा ।
कभी वह न होते तो लकड़ी के छोटे टुकड़े से भैँस की पीठ पर रेखा खीँचकर लिखता था या पत्थर की शिला पर कंकड़ से लिख लेता। जब
कंठस्थ हो जाती तो पोँछ देता। किसी रविवार के दिन एकाध कविता बन जाती तो सोमवार के दिन मास्टर को दिखाता।

बहुत बार तो सवेरा होने तक का धीरज छूट जाता और मैं रात को ही मास्टर के घर जाकर कविता दिखाता। वे उसे देखते और शाबाशी देते। और फिर कभी-कभी तो कविता के शास्त्र पर एक
पूरी महफ़िल हो जाती। बोलते-खोलते मास्टर बताते-कवि की भाषा कैसी होनी चाहिए, संस्कृत भाषा का उपयोग कविता के लिए किस
तरह होता है, छंद की जाति कैसे पहचानें, उसका लयक्रम कैसे देखें, अलंकारों मेँ सूक्ष्म बातें कैसी होती हैं, अलंकारों का भी एक शास्त्र होता है, कवि को शुद्ध लेखन करना क्योँ जरूरी होता है, शुद्ध
लेखन के नियम क्या हैं, आदि अनेक विषयों पर वे सहज बातें बताते रहते। मुझे उनके प्रति अपनापा अनुभव होता। वे मुझे पुस्तक देते। अलग-अलग प्रकार के कविता-संग्रह देते। उन्होंने कई नयी तरह की कविताएँ सुनाई तो लगा मैं हस ढर्रे पर कविता बनाऊँ।
फिर तो सारे दिन उस दिशा मेँ मेरी कोशिश चलती। इन बातों से मैँ सौदलगेकर मास्टर के बहुत नज़दीक पहुँच गया और जाने-अनजाने
मेरी मराठी भाषा सुधरने लगी। उसे लिखते समय मैं बहुत सचेत रहने लगा। अलंकार, छंद, लय आदि को सूक्ष्मता से देखने लगा।
शब्दों का नशा चढ़ने लगा और ऐसा लगने लगा कि मन मेँ कोई मधुर बाजा बजता रहता है ।

—अनुवाद
केशव प्रथ

सिल्वर वैडिंग (मनोहर श्याम जोशी )


 ब सेक्शन आफ़िसर
वाई.डी. (यशोधर) पंत ने आखिरी फ़ाइल का लाल फीता बाँधकर निगाह मेज़ से उठायी तब दफ़्तर की पुरानी दीवार घड़ी पाँच बजकर पच्चीस मिनट बजा रही थी ।उनकी अपनी कलाई घड़ी में साढ़े पाँच बजे थे। पंत जी अपनी घड़ी रोज़ाना सुबह-शाम रेडियो-समाचारों से मिलाते हैं, इसलिए उन्होंने दफ़्तर की घड़ी को ही सुस्त ठहराया। फ़ाइल आउट ट्रे में डाल कर उन्होंने एक निगाह अपने मातहतों पर डाली जो उनके ही कारण पाँच बजे के बाद भी दफ़्तर में बैठने को मजबूर होते हैं। चलते-चलते जूनियरों से कोई मनोरंजक बात कह कर दिन भर के शुष्क व्यवहार का निराकरण कर जाने की कृष्णानन्द (किशनदा) पांडे से मिली हुई परंपरा का पालन करते हुए उन्होंने कहा, "आप लोगों की देखादेखी सेक्शन की घड़ी भी सुस्त हो गयी है! "
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सीधे 'असिस्टेंट ग्रेड ' में आये नये छोकरे चड्ढा ने, जिसकी चौड़ी मोहरीवाली पतलून और ऊँची एड़ी वाले जूते पंतजी को ' सम हाउ इंप्रॉपर ' मालूम होते हैं, थोड़ी बदतमीज़ी-सी की।
' ऐज यूजुअल ' बोला, " बड़े बाऊ , आपकी अपनी चूनेदानी का क्या हाल है ? वक्त सही देती है ? "
पन्त जी ने चड्ढा की धृष्टता को अनदेखा किया और कहा, 
" मिनिट टू मिनिट करेक्ट चलती है।"
चड्ढा ने कुछ और धृष्ट होकर पंत जी की कलाई थाम ली। इस तरह का धृष्टता का प्रकट विरोध करना यशोधर बाबू ने छोड़ दिया है। मन-ही-मन वह उस ज़माने की याद ज़रूर करते हैं जब दफ़्तर में वह किशनदा को भाई नहीं 
' साहब ' कहते और समझते थे। घड़ी की ओर देखकर वह बोला , "बाबा आदम के ज़माने की है बड़े बाऊ यह तो! आप तो डिजिटल ले लो एक जापानी। सस्ती मिल जाती है।"


"यह घड़ी मुझे शादी में मिली थी। हम पुरानी चाल के, हमारी घड़ी पुरानी चाल की। अरे यही बहुत है कि अब तक 'राइट टाइम' चल रही है-क्यों कैसी रही? "


इस तरह का नहले पर दहला जवाब देते हुए एक हाथ आगे बढ़ा देने की परम्परा थी,रेम्जे स्कूल अल्मोड़ा में जहाँ से कभी यशोधर बाबू ने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। इस तरह के आगे बढ़े हुए हाथ पर सुनने वाला बतौर दाद अपना हाथ मारा करता था और वक्ता-श्रोता दोनों ठठाकर हाथ मिलाया करते थे। ऐसी ही परम्परा किशनदा के क्वार्टर में भी थी जहाँ रोज़ी-रोटी की तलाश में आये यशोधर पंत नामक एक मैट्रिक पास बालक को शरण मिली थी कभी। किशन दा कुँआरे थे और पहाड़ से आये हुए कितने ही लड़के ठीक-ठिकाना होने से पहले उनके यहाँ रह जाते थे। मैस-जैसी थी। मिलकर लाओ, पकाओ, खाओ। यशोधर बाबू जिस समय दिल्ली आये थे उनकी उम्र सरकारी नौकरी के लिए कम थी। कोशिश करने पर भी 'बॉय सर्विस' में वह नहीं लगाये जा सके। तब किशनदा ने उन्हें मैस का रसोईया बनाकर रख लिया। यही नहीं, उन्होंने यशोधर को पचास रुपये उधार भी दिये कि वह अपने लिए कपड़े बनवा सके और गाँव पैसा भेज सके। बाद में इन्हीं किशनदा ने अपने ही नीचे नौकरी दिलवायी और दफ़्तरी जीवन में मार्ग-दर्शन किया।


चड्ढा ने ज़ोर से कहा, "बडे बाऊ आप किन ख्यालों में खो गये? मेनन पूछ रहा है कि आपकी शादी हुई कब थी ?"


यशोधर बाबू ने सकपका कर अपना बढ़ा हुआ हाथ वापस खींचा और मेनन से मुखातिब होकर बोले, "नाव लैट मी सी, आइ वॉज़ मैरिड ऑन सिक्स्थ फ़रवरी नाइंटीन फ़ोर्टी सेवन।"


मेनन ने फ़ौरन हिसाब लगाया और चहककर बोला, "मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ द डे सर! आज तो आपका 'सिल्वर वेडिंग' है। शादी को पूरा पच्चीस साल हो गया।"


यशोधर जी खुश होते हुए झेंपे और झेंपते हुए खुश हुए। यह अदा उन्होंने किशनदा से सीखी थी।


चड्ढा ने घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया और कहा, "सुन भई भगवानदास, बड़े बाऊ से बड़ा नोट ले और सारे सेक्शन के लिए चा-पानी का इन्तज़ाम कर फटाफट।"


यशोधर जी बोले, "अरे ये 'वैडिंग एनिवर्सरी' वग़ैरह सब गोरे साहबों के चोंचले हैं- हमारे यहाँ थोड़ी मानते हैं।"


चड्ढा बोला, "मिक्चर मत पिलाइए गुरुदेव । चाय-मट्ठी-लड्डु बस इतना ही तो सौदा है। इनमें कौन आपकी बड़ी माया निकली जानी है।"


यशोधर बाबू ने जेब से बटुवा और बटुए से दस का नोट निकाला और कहा,"आप लोग चाय पीजिए 'दैट' तो 'आई डू नाट माइंड', लेकिन जो हमारे लोगों में 'कस्टम' नहीं है, उस पर 'इनसिस्ट' करना, 'दैट' मैं 'समहाउ इंप्रॉपर फाइंड' करता हूँ।"


चड्ढा ने दस का नोट चपरासी को दिया और पुनः बड़े बाऊ के आगे हाथ फैला दिया कि एक नोट से सेक्शन का क्या बनना है? रुपया तीस हो तो चुग्गे भर का जुगाड़ करा सकें।


सारा सेक्शन जानता है कि यशोधर बाबू अपने बटुवे में सौ-डेढ़ सौ रुपये हमेशा रखते हैं भले ही उनका दैनिक ख़र्च नगण्य है। और तो और, बस-टिकट का ख़र्च भी नहीं। गोल मार्केट से 'सेक्रेट्रिएट' तक पहले साइकिल में आते-जाते थे, इधर पैदल आने-जाने लगे हैं क्योंकि उनके बच्चे आधुनिक युवा हो चले हैं और उन्हें अपने पिता का साइकिल-सवार होना सख्त नागवार गुज़रता है। बच्चों के अनुसार साइकिल तो चपरासी चलाते हैं। बच्चे चाहते हैं कि पिता जी स्कूटर ले लें। लेकिन पिता जी को 'समहाउ' स्कूटर निहायत बेहूदा सवारी मालूम होती है और कार जब 'अफ़ोर्ड' की ही नहीं जा सकती तब उसकी बात सोचना ही क्यों?


चड्ढा के ज़ोर देने पर बड़े बाऊ ने दस-दस के दो नोट और दे दिये लेकिन सारे सेक्शन के इसरार करने पर भी वह अपनी 'सिल्वर वैडिंग' की इस दावत के लिए रुके नहीं। मातहत लोगों से चलते-चलाते थोड़ा हँसी-मज़ाक कर लेना किशनदा की परम्परा में है। उनके साथ बैठकर चाय-पानी और गप्प-गप्पाष्टक में वक्त बरबाद करना उस परम्परा के विरुद्ध है।


इधर यशोधर बाबू ने दफ़्तर से लौटते हुए रोज़ बिड़ला मन्दिर जाने और उसके उद्यान में बैठकर प्रवचन सुनने अथवा स्वयं ही प्रभु का ध्यान लगाने की नयी रीत अपनायी है।


यह बात उनके पत्नी-बच्चों को बहुत अखरती है। बब्बा आप कोई बुड्ढे थोड़े हैं जो रोज़-रोज़ मन्दिर जाएँ, इतने ज्यादा व्रत करें-ऐसा कहते हैं वे। यशोधर बाबू इस आलोचना को अनसुना कर देते हैं। सिद्धान्त के धनी की, किशनदा के अनुसार, यही निशानी है।


बिड़ला मन्दिर से उठकर यशोधर बाबू पहाड़गंज जाते हैं और घर के लिए साग-सब्जी ख़रीद लाते हैं। अगर किसी से मिलना-मिलाना हो तो वह भी इसी समय कर लेते हैं। तो भले ही दफ़्तर पाँच बजे छूटता हो वह घर आठ बजे से पहले कभी नहीं पहुँचते।
आज बिड़ला मन्दिर जाते हुए यशोधर बाबू की निगाह उस अहाते पर पड़ी जिसमें कभी किशनदा का तीन बेडरूम वाला बड़ा क्वार्टर हुआ करता था और जिस पर इन दिनों एक छः मंजिला इमारत बनायी जा रही है। इधर से गुज़रते हुए, कभी के 'डी.आई.जैड.' एरिया की बदलती शक्ल देखकर यशोधर बाबू को बुरा-सा लगता है। ये लोग सारा गोल मार्केट क्षेत्र तोड़ कर यहाँ एक मंजिला क्वार्टरों की जगह ऊँची इमारतें बना रहे हैं। यशोधर बाबू को पता नहीं कि ये लोग ठीक कर रहे हैं कि ग़लत कर रहे हैं। उन्हें यह ज़रूर पता है कि उनकी यादों के गोल मार्केट के ढहाये जाने का गम मनाने के लिए उनका इस क्षेत्र में डटे रहना निहायत ज़रूरी है। उन्हें एण्ड्रयूज़गंज, लक्ष्मीबाई नगर, पंडारा रोड आदि नयी बस्तियों में पद की गरिमा के अनुरूप डी-2 टाइप क्वार्टर मिलने की अच्छी ख़बर कई बार आयी है, मगर हर बार उन्होंने गोल मार्केट छोड़ने से इन्कार कर दिया है। जब उनका क्वार्टर टूटने का नम्बर आया तब भी उन्होंने इसी क्षेत्र की इन बस्तियों में बचे हुए क्वार्टरों में एक अपने नाम अलाट करा लिया। पत्नी के यह पूछने पर कि जब यह भी टूट जाएगा तब क्या करोगे? उन्होंने कहा- तब की तब देखी जाएगी। कहा और उसी तरह मुस्कराए जिस तरह किशनदा यही फ़िकरा कह कर मुस्कराते थे।


सच तो यह है कि पिछले कई वर्षों से यशोधर बाबू का अपनी पत्नी और बच्चों से हर छोटी-बड़ी बात में मतभेद होने लगा है और इसी वजह से वह घर जल्दी लौटना पसन्द नहीं करते। जब तक बच्चे छोटे थे तब तक वह उनकी पढ़ाई-लिखाई में मदद कर सकते थे। अब बड़ा लड़का एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी पा गया है यद्यपि 'समहाउ' यशोधर बाबू को अपने साधारण पुत्र को असाधारण वेतन देने वाली यह नौकरी कुछ समझ में आती नहीं।


वह कहते हैं कि डेढ़ हज़ार रुपया तो हमेँ अब रिटायरमेँट के पास पहुँच कर मिला है , शुरू मे ही डेढ़ हज़ार रुपया देने वाली इस नौकरी में ज़रूर कुछ पेंच होगा। यशोधर जी का दूसरा बेटा दूसरी बार आई.ए.एस. देने की तैयारी कर रहा है और यशोधर बाबू के लिए यह समझ सकना असम्भव है कि अब यह पिछले साल 'एलाइड सर्विसेज़' की सूची में, माना काफ़ी नीचे आ गया था तब इसने 'ज्वाइन' करने से इन्कार क्यों कर दिया? उनका तीसरा बेटा 'स्कॉलरशिप' लेकर अमरीका चला गया है और उनकी एकमात्र बेटी न केवल तमाम प्रस्तावित वर अस्वीकार करती चली जा रही है बल्कि डॉक्टरी की उच्चतम शिक्षा के लिए स्वयं भी अमरीका चले जाने की धमकी दे रही है। यशोधर बाबू जहाँ बच्चों की इस तरक्की से खुश होते हैं वहाँ 'समहाउ' यह भी अनुभव करते हैं कि वह ख़ुशहाली भी कैसी जो अपनों में परायापन पैदा करे। अपने बच्चों द्वारा ग़रीब रिश्तेदारों की उपेक्षा उन्हें 'समहाउ' जँचती नहीं। 'एनीवे- जेनरेशनों में गैप तो होता ही है सुना'- ऐसा कहकर स्वयं को दिलासा देता है पिता।


यद्यपि यशोधर बाबू की पत्नी अपने मूल संस्कारों से किसी भी तरह आधुनिक नहीं हैं, तथापि बच्चों की तरफ़दारी करने की मातृसुलभ मजबूरी ने उन्हें भी मॉड बना डाला है। कुछ यह भी है कि जिस समय उनकी शादी हुई थी यशोधर बाबू के साथ गाँव से आये ताऊ जी और उनके दो विवाहित बेटे भी रहा करते थे। इस संयुक्त परिवार में पीछे ही पीछे बहुओं में गज़ब के तनाव थे लेकिन ताऊजी के डर से कोई कुछ कह नहीं पाता था। यशोधर बाबू की पत्नी को शिकायत है कि संयुक्त परिवार वाले उस दौर में पति ने हमारा पक्ष कभी नहीं लिया, बस जिठानियों की चलने दी। उनका यह भी कहना है कि मुझे आचार-व्यवहार के ऐसे बन्धनों में रखा गया मानों मैं जवान औरत नहीं, बुढ़िया थी। जितने भी नियम इसकी बुढ़िया ताई के लिए थे, वे सब मुझ पर भी लागू करवाए- ऐसा कहती है घरवाली बच्चों से। बच्चे उससे सहानुभूति व्यक्त करते हैं। फिर वह यशोधर जी से उन्मुख होकर कहती हैं- तुम्हारी ये बाबा आदम के ज़माने की बातें मेरे बच्चे नहीं मानते तो इसमें उनका कोई कसूर नहीं। मैं भी इन बातों को उसी हद तक मानूंगी जिस हद तक सुभीता हो। अब मेरे कहने से वह सब ढोंग-ढकोसला हो नहीं सकता-साफ़ बात ।


धर्म-कर्म, कुल-परम्परा सबको ढोंग-ढकोसला कहकर घर वाली आधुनिकाओं-सा आचरण करती है तो यशोधर बाबू 'शानयल बुढ़िया', 'चटाई का लहँगा' या 'बूढ़ी मुँह मुँहासे, लोग करें तमासे' कह कर उसके विद्रोह को मज़ाक में उड़ा देना चाहते हैं, अनदेखा कर देना चाहते हैं लेकिन यह स्वीकार करने को बाध्य भी होते जाते हैं कि तमाशा स्वयं उनका बन रहा है।


जिस जगह किशनदा का क्वार्टर था उसके सामने खड़े होकर एक गहरा निः श्वास छोड़ते हुए यशोधर जी ने अपने से पूछा कि क्या यह 'बेटर' नहीं रहता कि किशनदा की तरह घर-गृहस्थी का बवाल ही न पाला होता और 'लाइफ़ कम्युनिटी' के लिए 'डेडीकेट' कर दी होती।


फिर उनका ध्यान इस ओर गया कि बाल-जती किशनदा का बुढ़ापा सुखी नहीं रहा। उसके तमाम साथियों ने हौज़ख़ास, ग्रीनपार्क, कैलाश कहीं-न-कहीं ज़मीन ली, मकान बनवाया, लेकिन उसने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। रिटायर होने के छह महीने बाद जब उसे क्वार्टर खाली करना पड़ा तब, हद हो गयी, उसके द्वारा उपकृत इतने सारे लोगों में से एक ने भी उसे अपने यहाँ रखने की पेशकश नहीं की। स्वयं यशोधर बाबू उसके सामने ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं रख पाये क्योंकि उस समय तक उनकी शादी हो चुकी थी और उनके दो कमरों के क्वार्टर में तीन परिवार रहा करते थे। किशनदा कुछ साल राजेन्द्र नगर में किराये का क्वार्टर लेकर रहा और फिर अपने गाँव लौट गया जहाँ साल भर बाद उसकी मृत्यु हो गयी। ज्यादा पेंशन खा नहीं सका बेचारा! विचित्र बात यह है कि उसे कोई भी बीमारी नहीं हुई। बस रिटायर होने के बाद मुरझाता-सूखता ही चला गया। जब उसके एक बिरादर से मृत्यु का कारण पूछा तब उसने यशोधर बाबू को यही जवाब दिया, "जो हुआ होगा।" यानी 'पता नहीं, क्या हुआ ।'
जिन लोगों के बाल-बच्चे नहीं होते, घर-परिवार नहीं होता उनकी रिटायर होने के बाद 'जो हुआ होगा' से भी मौत हो जाती है- यह जानते हैं यशोधर जी! बच्चों का होना भी ज़रूरी है। यह सही है कि यशोधर जी के बच्चे मनमानी कर रहे हैं और ऐसा संकेत दे रहे हैं कि उनके कारण यशोधर जी को बुढ़ापे में कोई विशेष सुख प्राप्त नहीं होगा लेकिन यशोधर जी अपने मर्यादा-पुरुष किशनदा से सुनी हुई यह बात नहीं भूले हैं कि गधा-पच्चीसी में कोई क्या करता है, इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए क्योंकि बाद में हर आदमी समझदार हो जाता है। यद्यपि युवा यशोधर को विश्वास नहीं होता तथापि किशनदा बताते हैं कि किस तरह मैंने जवानी में पचासों किस्म की खुराफ़ात की है। ककड़ी चुराना, गर्दन मोड़ के मुर्गी मार देना, पीछे की खिड़की से कूद कर 'सेकेण्ड शो' सिनेमा देख आना-कौन करम ऐसा है जो तुम्हारे इस किशनदा ने नहीं कर रखा।


जिम्मेदारी सर पर पड़ेगी तब सब अपने आप ठीक हो जाएँगे, यह भी किशनदा से विरासत में मिला हुआ एक फिकरा है जिसे यशोधर बाबू अक्सर अपने बच्चों के प्रसंग में दोहराते हैं। उन्हें कभी-कभी लगता है कि अगर मेरे पिता तब नहीं गुज़र गये होते जब मैं मैट्रिक में था तो शायद मैं भी गधा-पच्चीसी के लम्बे दौर से गुज़रता। जिम्मेदारी सर पर जल्दी पड़ गयी तो जल्दी ही जिम्मेदार आदमी भी बन गया। जब तक बाप है तब तक मौज कर ले। यह बात यशोधर जी कभी-कभी तंजिया कहते हैं। लेकिन कहते हुए उनके चेहरे पर जो मुस्कान खेल जाती है वह बच्चों पर यह प्रकट करती है कि बाप को उनका सनाथ होना, ग़ैर-जिम्मेदार होना, कुल मिलाकर अच्छा लगता है।


यशोधर बाबू कभी-कभी मन ही मन स्वीकार करते हैं कि दुनियादारी में बीवी-बच्चे अधिक सुलझे हुए हो सकते हैं, लेकिन दो के चार करने वाली दुनिया ही उन्हें कहाँ मंजूर है जो उसकी रीति मंजूर करे। दुनियादारी के हिसाब से बच्चों का यह कहना सही हो सकता है कि बब्बा ने डी.डी.ए. फ्लैट के लिए पैसा न भर के भयंकर भूल की है। किन्तु 'समहाउ' यशोधर बाबू को किशनदा की यह उक्ति अब भी जँचती है- मूरख लोग मकान बनाते हैं, सयाने उनमें रहते हैं। जब तक सरकारी नौकरी तब तक सरकारी क्वार्टर। रिटायर होने पर गाँव का पुश्तैनी घर। बस !


गाँव का पुश्तैनी घर टूट-फूट चुका है और उस पर इतने लोगों का हक है कि वहाँ जाकर बसना, मरम्मत की जिम्मेदारी ओढ़ना और बेकार के झगड़े मोल लेना होगा-इस बात को यशोधर जी अच्छी तरह समझते हैं। बच्चे बहस में जब यह तर्क दोहराते हैं तब उनसे कोई जवाब देते नहीं बनता। उन्होंने हमेशा यही कल्पना की थी, और आज भी करते हैं कि उनका कोई लड़का उनके रिटायर होने से पहले सरकारी नौकरी में आ जाएगा और क्वार्टर उनके परिवार के पास बना रह सकेगा। अब भी पत्नी द्वारा भविष्य का प्रश्न उठाये जाने पर यशोधर बाबू इस सम्भावना को रेखांकित कर देते हैं। जब पत्नी कहती है , 'अगर ऐसा नहीं हुआ तो? आदमी को तो हर तरह से सोचना चाहिए।' तब यशोधर बाबू टिप्पणी करते हैं कि सब तरह से सोचने वाले हमारी बिरादरी में नहीं होते हैं। उसमें तो एक तरह से सोचने वाले होते हैं और कहकर लगभग नक़ली-सी हँसी हँसते हैं।


जितना ही इस लोक की ज़िन्दगी यशोधर बाबू को यह नकली हँसी हँसने के लिए बाध्य कर रही है उतना ही वह परलोक के बारे में उत्साही होने का यत्न कर रहे हैं। तो उन्होंने बिड़ला मन्दिर की ओर तेज़ क़दम बढ़ाए, लक्ष्मीनारायण के आगे हाथ जोड़े , असीक का फूल चुटिया में खोंसा और पीछे के उस प्राँगण में जा पहुँचे जहाँ एक महात्मा जी गीता का प्रवचन कर रहे थे।


अफ़सोस , आज प्रवचन सुनने में यशोधर जी का मन ख़ास लगा नहीं। सच तो यह है कि वह भीतर से बहुत ज्यादा धार्मिक अथवा कर्मकाण्डी हैं नहीं। हाँ, इस सम्बन्ध में अपने मर्यादा-पुरुष किशनदा द्वारा स्थापित मानक हमेशा उनके सामने रहे हैं। जैसे-जैसे उम्र ढल रही है, वैसे-वैसे वह भी किशनदा की तरह रोज़ मन्दिर जाने, सन्ध्या-पूजा करने, और गीता प्रेस गोरखपुर की किताबें पढ़ने का यत्न करने लगे हैं। अगर कभी उनका मन शिकायत करता है कि इस सब में लग नहीं पा रहा हूँ तब उससे कहते हैं कि भाई लगना चाहिए। अब तो माया-मोह के साथ-साथ भगवत्-भजन को भी कुछ स्थान देना होगा कि नहीं? नयी पीढ़ी को देकर राजपाट तुम लग जाओ बाट वन-प्रदेश की। जो करते हैं, जैसा करते हैं, करें। हमें तो अब इस 'व-रल्ड' की नहीं , उसकी , इस 'लाइफ' की नहीं उसकी चिन्ता करनी है। वैसे अगर बच्चे सलाह माँगें, अनुभव का आदर करें तो अच्छा लगता है। अभी नहीं माँगते तो न माँगें।


यशोधर बाबू ने फिर अपने को झिड़का कि यह भी क्या हुआ कि मन को समझाने में फिर भटक गये। गीता महिमा सुनो।


सुनने लगे मगर व्याख्या में जनार्दन शब्द जो सुनाई पड़ा तो उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद हो आयी। परसों ही कार्ड आया है कि उनकी तबीयत ख़राब है। यशोधर बाबू सोचने लगे कि जीजा जी का हाल पूछने अहमदाबाद जाना ही होगा। ऐसा सोचते ही उन्हें यह भी ख्याल आया कि यह प्रस्ताव उनकी पत्नी और बच्चों को पसन्द नहीं आएगा। सारा संयुक्त परिवार बिखर गया है। पत्नी और बच्चों की धारणा है कि इस बिखरे परिवार के प्रति यशोधर जी का एकतरफ़ा लगाव आर्थिक दृष्टि से सर्वथा मूर्खतापूर्ण है। यशोधर जी खुशी-गम के हर मौके पर रिश्तेदारों के यहाँ जाना ज़रूरी समझते हैं। वह चाहते हैं कि बच्चे भी पारिवारिकता के प्रति उत्साही हों। बच्चे क्रुद्ध ही होते हैं। अभी उस दिन हद हो गयी। कमाऊ बेटे ने यह कह दिया कि आपको बुआ को भेजने के लिए पैसे मैं तो नहीं दूँगा। यशोधर बाबू को कहना पड़ा कि अभी तुम्हारे बब्बा की इतनी साख है कि सौ रुपया उधार ले सकें।
यशोधर जी का नारा है, ‘हमारा तो सैप ही ऐसा देखा ठहरा'- हमें तो यही परम्परा विरासत में मिली है। इस नारे से उनकी पत्नी बहुत चिढ़ती है। पत्नी का कहना है, और सही कहना है कि यशोधर जी का स्वयं का देखा हुआ कुछ भी नहीं है। माँ के मर जाने के बाद छोटी ही उम्र में वह गाँव छोड़कर अपनी विधवा बुआ के पास अल्मोड़ा आ गये थे। बुआ का कोई ऐसा लम्बा-चौड़ा परिवार तो था नहीं जहाँ कि यहाँ यशोधर जी कुछ देखते और परम्परा के रंग में रँगते। मैट्रिक पास करते ही वह दिल्ली आ गये और यहाँ रहे कुँआरे कृष्णानन्द जी के साथ। कुँआरे की गिरस्ती में देखने को होता क्या है? पत्नी आग्रहपूर्वक कहती है कि कुछ नहीं तुम अपने उन किशनदा के मुँह से सुनी-सुनायी बातों को अपनी आँखों देखी यादें बना डालते हो । किशनदा को जो भी मालूम था वह उनका पुराने गँवई लोगों से सीखा हुआ ठहरा। दिल्ली आकर उन्होंने घर-परिवार तो बसाया नहीं जो जान पाते कि कौन से रिवाज निभा सकते हैं, कौन से नहीं। पत्नी का कहना है कि किशनदा तो थे ही जनम के बूढ़े, तुम्हें क्या सुर लगा जो उनका बुढ़ापा ख़ुद ओढ़ने लगे हो? तुम शुरू में तो ऐसे नहीं थे, शादी के बाद मैंने तुम्हें देख जो क्या नहीं रखा है! हफ्ते में दो-दो सिनेमा देखते थे , गज़ल गाते थे गज़ल! गजल हुई और सहगल के गाने।


यशोधर बाबू स्वीकार करते हैं कि उनमें कुछ परिवर्तन हुआ है लेकिन वह समझते हैं कि उम्र के साथ-साथ बुज़ुर्गियत आना ठीक ही है। पत्नी से वह कहते हैं कि जिस तरह तुमने बुढ़याकाल यह बग़ैर बाँह का ब्लाउज़ पहनना, यह रसोई से बाहर दाल-भात खा लेना, यह ऊँची हील वाली सैण्डल पहनना, और ऐसे ही पचासों काम अपनी बेटी की सलाह पर शुरू कर दिये हैं, मुझे तो वे 'समहाउ इम्प्रॉपर' ही मालूम होते हैं। एनीवे मैं तुम्हें ऐसा करने से रोक नहीं रहा । देयरफोर तुम लोगों को भी मेरे जीने के ढंग पर कोई एतराज होना नहीं चाहिए।


यशोधर बाबू को धार्मिक प्रवचन सुनते हुए भी अपना पारिवारिक चिन्तन में ध्यान डूबा रहना अच्छा नहीं लगा। सुबह-शाम सन्ध्या करने के बाद जब वह थोड़ा ध्यान लगाने की कोशिश करते हैं तब भी मन किसी परम सत्ता नहीं, इसी परिवार में लीन होता है। यशोधर जी चाहते हैं कि ध्यान लगाने की सही विधि सीखें तथा साथ ही वह अपने से भी कहते हैं कि परहैप्स ऐसी चीज़ों के लिए 'रिटायर' होने के बाद का समय ही प्रॉपर ठहरा। वानप्रस्थ के लिए प्रेसक्राइब्ड ठहरी ये चीजें। वानप्रस्थ के लिए यशोधर बाबू का अपने पुश्तैनी गाँव जाने का इरादा है रिटायर हो कर। फॉर फ्राम द मैंडिंग क्राउड-समझे!


इस तरह की तमाम बातें यशोधर बाबू पैदाइशी बुजुर्गवार किशनदा के शब्दों में और उनके ही लहजे में कहा करते हैं और कह कर उनकी तरह की वह झेंपी-सी लगभग नकली-सी हँसी हँस देते हैं। जब तक किशनदा दिल्ली में रहे यशोधर बाबू नित्य नियम से हर दूसरी शाम उनके दरबार में हाज़िरी लगाने पहुँचते रहे।


स्वयं किशनदा हर सुबह सैर से लौटते हुए अपने इस मानस पुत्र के क्वार्टर में झाँकना और 'हैल्दी वैल्दी ऐण्ड वाइज़' बन रहा है न भाऊ ऐसा कहना कभी नहीं भूलते। जब यशोधर बाबू दिल्ली आये थे तब उनकी सुबह थोड़ी देर से उठने की आदत थी। किशनदा ने उन्हें रोज़ सुबह झकझोर कर उठाने और साथ सैर में ले जाना शुरू किया और यह मंत्र दिया कि 'अर्ली टु बेड एंड अरली टु राइज मेक्स ए मैन हैल्दी एंड वाइज!' जब यशोधर बाबू अलग क्वार्टर में रहने लगे और अपनी गृहस्थी में डूब गये तब भी किशनदा ने यह देखते रहना ज़रूरी समझा कि भाऊ यानी बच्चा सवेरे जल्दी उठता है कि नहीं ? यशोधर बाबू को यह अच्छा लगता कि कोई उन्हें भाऊ कहता है। हर सवेरे वह किशनदा से अनुरोध करते कि चाय पी कर जाए। किशनदा कभी-कभी इस अनुरोध की रक्षा कर देते। यशोधर बाबू ने किशनदा को घर और दफ्तर में विभिन्न रूपों में देखा है लेकिन किशनदा की जो छवि उनके मन में बसी हुई है वह सुबह को सैर निकले किशनदा की है , कुर्ते पजामे के ऊपर ऊनी गाउन पहने, सिर पर गोल विलायती टोपी और पाँवों में देशी खड़ाऊँ धारण किये हुए और हाथ में (कुत्तों के भगाने के लिए) एक छड़ी लिये हुए।


जब तक किशनदा दिल्ली में रहे तब तक यशोधर बाबू ने उनके पट्टशिष्य और उत्साही कार्यकर्ता की भूमिका पूरी निष्ठा से निभायी। किशनदा के चले जाने के बाद उन्होंने ही उनकी कई परम्पराओं को जीवित रखने की कोशिश की और इस कोशिश में पत्नी और बच्चों को नाराज़ किया। घर मेँ होली गवाना, 'जन्यो पुन्यूं' के दिन सब कुमाऊँनियों को जनेऊ बदलने के लिए अपने घर आमंत्रित करना, रामलीला की तालीम के लिए क्वार्टर का एक कमरा दे देना-ये और ऐसे ही कई और काम यशोधर बाबू ने किशनदा से विरासत में लिये थे। उनकी पत्नी और बच्चों को इन आयोजनों पर होने वाला ख़र्च और इन आयोजनों में होने वाला शोर, दोनों ही सख्त नापसन्द थे। बदतर यही कि इन आयोजनों के लिए समाज में भी कोई ख़ास उत्साह रह नहीं गया है।


यशोधर जी चाहते हैं कि उन्हें समाज का सम्मानित बुज़ुर्ग माना जाय लेकिन जब समाज ही न हो तो यह पद उन्हें क्योंकर मिले? यशोधर जी कहते हैं कि बच्चे मेरा आदर करें और उसी तरह हर बात में मुझसे सलाह लें जिस तरह मैं किशनदा से लिया करता था। यशोधर बाबू डेमोक्रेट हैं और हरगिज़ यह दुराग्रह नहीं करना चाहते कि बच्चे उनके कहे को पत्थर की लकीर समझें। लेकिन यह भी क्या हुआ कि पूछा न ताछा, जिसके मन में जैसा आया, करता रहा । ग्राण्टेड तुम्हारी नॉलेज ज़्यादा होगी लेकिन 'एक्सपीरिएन्स' का कोई सबस्टीट्‌यूट ठहरा नहीं बेटा । मानो न मानो, झूठे मुँह से सही-एक बार पूछ तो लिया करो, ऐसा कहते हैं यशोधर बाबू और बच्चे यही उत्तर देते हैं, "बब्बा , आप तो हद करते हैं , जो बात आप जानते ही नहीं आप से क्यों पूछेँ ?"
प्रवचन सुनने के बाद यशोधर बाबू सब्ज़ीमण्डी गये। यशोधर बाबू को अच्छा लगता अगर उनके बेटे बड़े होने पर अपनी तरफ़ से यह प्रस्ताव करते कि दूध लाना, राशन लाना, सी.जी.एच.एस. डिस्पेन्सरी से दवा लाना, सदर बाज़ार जाकर दालें लाना, पहाड़गंज से सब्ज़ी लाना, डिपो से कोयला लाना ये सब काम आप छोड़ दें, अब हम कर दिया करेंगे , एकाध बार बेटों से ख़ुद उन्होंने ही कहा तब वे एक दूसरे से कहने लगे कि तू किया कर, तू क्यों नहीं करता? इतना कुहराम मचा और लड़कों ने एक दूसरे को इतना ज्यादा बुरा-भला कहा कि यशोधर बाबू ने इस विषय को उठाना भी बन्द कर दिया। जब से बड़ा बेटा विज्ञापन कम्पनी में बड़ी नौकरी पा गया है तब से बच्चों का इस प्रसंग में एक ही वक्तव्य है- "बब्बा हमारी समझ में नहीं आता कि इन कामों के लिए आप एक नौकर क्यों नहीं रख लेते? ईजा को भी आराम हो जाएगा।" कमाऊ बेटा नमक छिड़कते हुए यह भी कहता कि नौकर की तनख्वाह मैं दे दूँगा।


यशोधर बाबू को यही 'समहाउ इम्प्रॉपर' मालूम होता है कि उनका बेटा अपना वेतन उनके हाथ में नहीं रखे । यह सही है कि वेतन स्वयं बेटे के अपने हाथ में नहीं आता, 'एकाउण्ट ट्रान्सफर' द्वारा बैंक में जाता है। लेकिन क्या बेटा बाप के साथ ज्वाइंट एकाउण्ट नहीं खोल सकता था? झूठे मुँह से ही सही, एक बार ऐसा कहता तो । तिस पर बेटे का अपने वेतन को अपना समझते हुए बार-बार कहना कि यह काम मैं अपने पैसे से कर रहा हूँ, आपके से नहीं जो आप नुक्ताचीनी करें। इस क्रम में बेटे ने पिता का यह क्वार्टर तक अपना बना लिया है। अपना वेतन अपने ढंग से वह इस घर पर ख़र्च कर रहा है। कभी कारपेट बिछवा रहा है, कभी पर्दे लगवा रहा है। कभी सोफा आ रहा है। कभी डनलपवाला डबल बैड और सिंगार मेज़। कभी टी.वी. कभी फ्रिज़ क्या हुआ यह? और ऐसा भी नहीं कहता कि लीजिए पिता जी मैं आपके लिए यह टी.वी. ले आया। कहता यही है कि यह मेरा टी.वी. है समझे, इसे कोई न छुआ करे ! क्वार्टर ही उसका हो गया! यह अच्छी रही! अब इनका एक नौकर भी रखो घर में। इनका नौकर होगा तो इनके लिए ही होगा। हमारे लिए तो क्या होगा- ऐसा समझाते हैं यशोधर बाबू घरवाली को । काम सब अपने हाथ से ही ठीक होते हैं। नौकरों को सौंपा कारबार चौपट हुआ । कहते हैं यशोधर बाबू ,पत्नी सुनती है, मगर नहीं सुनती। पर सुनकर अब चिढ़ती भी नहीं। 


सब्ज़ी का झोला लेकर यशोधर बाबू खुदी हुई सड़कों और टूटे हुए क्वार्टरों के मलबे से पटे हुए नालों को पार करके स्क्वायर के उस कोने में पहुँचे जिसमें तीन क्वार्टर अब भी साबुत खड़े हुए थे। उन तीन में से कुल एक को अब तक एक सिलसिला आबाद किये हुए है। बाहर बदरंग तख्ती में उसका नाम लिखा है- वाई.डी. पन्त।


इस क्वार्टर के पास पहुँच कर आज वाई.डी. पन्त को पहले धोखा हुआ कि किसी ग़लत जगह आ गये हैं। क्वार्टर के बाहर एक कार थी, कुछ स्कूटर-मोटर साइकिल। बहुत से लोग विदा ले-दे रहे थे। बाहर बरामदे में रंगीन काग़ज़ की झालरें और गुब्बारे लटके हुए थे और रंगबिरंगी रोशनियाँ जली हुई थीं।


फिर उन्हें अपना बड़ा बेटा भूषण पहचान में आया जिससे कार में बैठा हुआ कोई साहब हाथ मिला रहा था और कह रहा था, 'गिव माइ वार्म रिगाड्‌र्स टु योर फ़ादर।'


यशोधर बाबू ठिठक गए। उन्होंने अपने से पूछा- क्यों आज मेरे क्वार्टर में क्या हो रहा होगा? उसका जवाब भी उन्होंने अपने को दिया- जो करते होंगे यह लौंडे-मौंडे, इनकी माया यही जानें ।


अब यशोधर बाबू का ध्यान इस ओर गया कि उनकी पत्नी और उनकी बेटी भी कुछ मेमसाबों को विदा करते हुए बरामदे में खड़ी हैं , लड़की जीन और बगैर बाँह का टाप पहने है। यशोधर बाबू उससे कई मर्तबा कह चुके हैं कि तुम्हारी यह पतलून और सैण्डो बनने वाली ड्रेस मुझे तो 'समहाउ इम्प्रॉपर' मालूम होती है। लेकिन वह भी जिद्दी ऐसी है कि इसे ही पहनती है। और पत्नी भी उसी की तरफ़दारी करती है। कहती है- वह सिर पर पल्लू-वल्लू मैंने कर लिया बहुत तुम्हारे कहने पर समझे, मेरी बेटी वही करेगी जो दुनिया कर रही है। पुत्री का पक्ष लेने वाली यह पत्नी इस समय होंठों पर लाली और बालों पर खिज़ाब लगाये हुए थी जबकि ये दोनों ही चीज़ें, आप कुछ भी कहिए, यशोधर बाबू को 'समहाउ इम्प्रॉपर' ही मालूम होती हैं।


आधुनिक क़िस्म के अजनबी लोगों की भीड़ देखकर यशोधर बाबू अँधेरे में ही दुबके रहे। उनके बच्चों को इसीलिए शिकायत है कि बब्बा तो 'एल.डी.सी.' टाइपों से ही मिक्स करते हैं।


जब कार वाले लोग चले गये तब यशोधर बाबू ने अपने क्वार्टर में क़दम रखने का साहस जुटाया। भीतर अब भी पार्टी चल रही थी, उनके पुत्र-पुत्रियों के कई मित्र तथा उनके कुछ रिश्तेदार जमे हुए थे। उनके बड़े बेटे ने झिड़की-सी सुनायी, "बब्बा आप भी हद करते है । सिल्वर वेडिंग के दिन साढ़े आठ बजे घर पहुँचे हैं। अभी तक मेरे बॉस आप की राह देख रहे थे।"


"हम लोगों के यहाँ सिल्वर वेडिंग कब से होने लगी है।" यशोधर बाबू ने शर्मीली हँसी हँस दी।


"जब से तुम्हारा बेटा डेढ़ हज़ार माहवार कमाने लगा, तब से।" यह टिप्पणी थी चन्द्रदत्त तिवारी की जो इसी साल एस.ए.एस. पास हुआ है और दूर के रिश्ते से यशोधर बाबू का भांजा लगता है।
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यशोधर बाबू को अपने बेटों से तमाम तरह की शिकायतें हैं लेकिन कुल मिला कर उन्हें यह अच्छा लगता है कि लोग-बाग उन्हें ईर्ष्या का पात्र समझते हैं। भले ही उन्हें भूषण का ग़ैर-सरकारी नौकरी करना समझ में न आता हो तथापि वह यह बख़ूबी समझते हैं कि इतनी छोटी उम्र में डेढ़ हज़ार माहवार प्लस कन्वेएंस एलाउन्स ऐण्ड तुम्हारा अदर वर्क्स पा जाना कोई मामूली बात नहीं है। इसी तरह भले ही यशोधर बाबू ने बेटों की ख़रीदी हुई हर नयी चीज़ के सन्दर्भ में यही टिप्पणी की हो कि ये क्या हुई ,समहाउ मेरी तो समझ में आता नहीं। इसकी क्या ज़रूरत थी, तथापि उन्हें कहीं इस बात से थोड़ी ख़ुशी भी होती है कि इस चीज़ के आ जाने से उन्हें नये दौर के, निश्चय ही ग़लत, मानकों के अनुसार बड़ा आदमी मान लिया जा रहा है। मिसाल के लिए जब बेटों ने गैस का चूल्हा जुटाया तब यशोधर बाबू ने उसका विरोध किया और आज भी वह यही कहते हैं कि इस पर बनी रोटी मुझे तो समहाउ रोटी जैसी लगती नहीं, तथापि वह जानते हैं , गैस न होने पर इन नगर में चपरासी श्रेणी के मान लिये जाते। इस तरह फ्रिज़ के सन्दर्भ में आज भी यशोधर बाबू यही कहते हैं कि मेरी समझ में आज तक यह नहीं आया कि इसका फ़ायदा क्या है? बासी खाना खाना अच्छी आदत नहीं ठहरी। और यह ठहरा इसी काम का कि सुबह बना के रख दिया और शाम को खाया। इसमें रखा हुआ पानी भी मेरे मन को तो भाता नहीं, गला पकड़ लेता है। कहते हैं, मगर इस बात से सन्तुष्ट होते हैं कि घर आये साधारण हैसियत वाले मेहमान इस फ्रिज़ का पानी पीकर अपने को धन्य अनुभव करते हैं।


अपनी सिल्वर वैडिंग की यह भव्य पार्टी भी यशोधर बाबू को 'समहाउ इम्प्रॉपर' ही लगी तथापि उन्हें इस बात से सन्तोष हुआ कि जिस अनाथ यशोधर के जन्मदिन तक पर कभी लड्‌डू नहीं आए , जिसने अपने विवाह भी कोऑपरेटिव से दो-चार हज़ार कर्ज़ा निकालकर किया बगैर किसी ख़ास धूमधाम के, उसके विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर केक, चार तरह की मिठाई, चार तरह की नमकीन, फल, कोल्डडिंरक्स, चाय सब कुछ मौजूद है।


गिरीश बोला, मुझे आज सुबह बैठे-बैठे याद आयी कि आपकी शादी छह फ़रवरी सन्‌ सैंतालिस को हुई थी और इस हिसाब से आज उसे पच्चीस साल पूरे हो गये हैं। मैंने आपके दफ्तर फ़ोन किया लेकिन शायद आपका फ़ोन ख़राब था। तब मैंने भूषण को फ़ोन किया। भूषण ने कहा, "शाम को आ जाइए, पार्टी करते हैं। मैं अपने बॉस को भी बुला लूँगा इसी बहाने।"


गिरीश यशोधर बाबू की पत्नी का चचेरा भाई है। बड़ी कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर है और इसकी सहायता से ही यशोधर बाबू को अपना यह सम्पन्न साला समहाउ भयंकर ओछाट यानी ओछेपन का धनी मालूम होता है। उन्हें लगता है कि इसी ने भूषण को बिगाड़ दिया है। कभी कहते हैं ऐसा तो पत्नी बरस पड़ती है- जिन्दगी बना दी तुम्हारे सेकेण्ड क्लास बी.ए. बेटे की, कहते हो बिगाड़ दिया।


भूषण ने अपने मित्रों-सहयोगियों का यशोधर बाबू से परिचय कराना शुरू किया। उनकी "मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ़ द डे" का "थैंक्यू" कहकर जवाब देते हुए, जिन लोगों का नाम पहले बता दिया गया हो उनकी ओर "वाई.डी. पन्त, होम मिनिस्ट्री, भूषण्स फादर" कह कर स्वयं हाथ बढ़ा देने में यशोधर बाबू ने हरचन्द यह जताने की कोशिश की कि भले ही वह सरकारी कुमाऊँनी हैं तथापि विलायती रीति-रिवाज़ से भी भलीभाँति परिचित हैं। किशनदा कहा करते थे कि आना सब कुछ चाहिए, सीखना हर एक की बात ठहरी , लेकिन अपनी छोड़ना नहीं हुई। टाई-सूट पहनना आना चाहिए लेकिन धोती कुर्ता अपनी पोशाक है यह नहीं भूलना चाहिए।


अब बच्चों ने एक और विलायती परम्परा के लिए आग्रह किया- यशोधर बाबू अपनी पत्नी के साथ केक काटें। घरवाली पहले थोड़ा शरमायी लेकिन जब बेटी ने हाथ खींचा तब उसे केक के पीछे जा खड़ा होने में कोई हिचक नहीं हुई, वहीं से उसने पति को भी पुकारा।


यशोधर बाबू को केक काटना बचकानी बात मालूम हुई। बेटी उन्हें लगभग खींचकर ले गयी। यशोधर बाबू ने कहा, "समहाउ आई डोँट लाइक ऑल दिस ।" लेकिन एनीवे उन्होंने केक काट ही दिया। गिरीश ने उसकी यह अनमनी किन्तु सन्तुष्ट छवि कैमरे में कैद कर ली। अब पति-पत्नी से कहा गया कि वे केक से मुँह मीठा करें एक-दूसरे का। पत्नी ने खा लिया मगर यशोधर बाबू ने इन्कार कर दिया। उनका कहना था कि मैं केक खाता नहीं। इसमें अण्डा पड़ा होता है। उन्हें याद दिलाया गया कि अभी कुछ वर्षों पहले तक आप मांसाहारी थे एक टुकड़ा केक खा लेने में क्या हो जाएगा? लेकिन वह नहीं माने। तब उनसे अनुरोध किया गया कि लड्डु ही खा लें। भूषण के एक मित्र ने लड्डु उठा कर उनके मुँह में ठूँसने का यत्न किया। लेकिन यशोधर बाबू इसके लिए भी राजी नहीं हुए। उनका कहना था कि मैंने अब तक संध्या नहीं की है। इस पर भूषण ने झुँझलाकर कहा, "तो बब्बा पहले जाकर संध्या कीजिए आप की वजह से हम लोग कब तक रुके रहेंगे।"
"नहीं , नहीं , आप सब खाइए," यशोधर बाबू ने बच्चों के दोस्तों से कहा, "प्लीज़ गो अहेड । नो फारमैल्टी।"


यशोधर बाबू ने आज पूजा में कुछ ज्यादा ही देर लगायी। इतनी देर कि ज्यादातर मेहमान उठ कर चले गए।

उनकी पत्नी, उनके बच्चे, बारी-बारी से आकर झाँकते रहे और कहते रहे-जल्दी कीजिए मेहमान लोग जा रहे हैं।


शाम की पन्द्रह मिनट की पूजा को लगभग पच्चीस मिनट तक खींच लेने के बाद भी जब बैठक से मेहमानों की आवाजे आती सुनाई दीं तब यशोधर बाबू पद्मसन साधकर ध्यान लगाने बैठ गये। वह चाहते थे कि उन्हें प्रकाश का एक नीला बिन्दु दिखाई दे मगर उन्हें किशनदा दिखाई दे रहे थे।


यशोधर बाबू किशनदा से पूछ रहे थे कि 'जो हुआ होगा' से आप कैसे मर गये? किशनदा कह रहे थे कि भाऊ सभी जन इसी 'जो हुआ होगा' से मरते हैं। गृहस्थ हों, ब्रह्मचारी हों, अमीर हों, ग़रीब हों मरते 'जो हुआ होगा' से ही हैं। हाँ-हाँ, शुरू में और आखिर में, सब अकेले ही होते हैं, अपना कोई नहीं ठहरा दुनिया में, बस एक अपना नियम अपना हुआ।


यशोधर बाबू पाज़ामा-कुर्ता पर ऊनी ड्रेसिंग गाउन पहने, सिर पर गोल विलायती टोपी, पाँवों में देशी खड़ाऊँ और हाथ में डण्डा धारण किये इस किशनदा से अकेलेपन के विषय में बहस करनी चाही, उनका विरोध करने के लिए नहीं बल्कि बात कुछ और अच्छी तरह समझने के लिए।


हर रविवार किशनदा शाम को ठीक चार बजे यशोधर बाबू के घर आया करते थे। उनके लिए गरमागरम चाय बनवायी जाती थी। उनका कहना था कि जिसे फूँक मारकर न पीना पड़े वह चाय कैसी। चाय सुड़कते हुए किशनदा प्रवचन करते थे और यशोधर बाबू बीच-बीच में शंकाएँ उठाते थे।


यशोधर बाबू को लगता है कि किशनदा आज भी मेरा मार्ग दर्शन कर सकेंगे और बता सकेंगे कि मेरे बीवी बच्चे जो कुछ भी कर रहे हैं उसके विषय में मेरा रवैया क्या होना चाहिए?

लेकिन किशन दा तो वही अकेलेपन का खटराग अलापने पर आमादा से मालूम होते हैं।

कैसी बीवी , कहाँ के बच्चे , यह सब माया ठहरी और यह जो भूषण तेरा आज इतना उछल रहा है वह भी किसी दिन इतना ही अकेला और असहाय अनुभव करेगा,जितना कि आज तू कर रहा है।


यशोधर बाबू बात आगे बढ़ाते लेकिन उनकी घर वाली उन्हें झिड़कते हुए आ पहुँची कि क्या आज पूजा में ही बैठे रहोगे । यशोधर बाबू आसन से उठे और उन्होंने दबे स्वर में पूछा-"मेहमान गये?" पत्नी ने बताया ,कुछ गये, कुछ हैं। उन्होंने जानना चाहा कि कौन-कौन हैं? आश्वस्त होने पर कि सभी रिश्तेदार ही हैं वह उसी लाल गमछे में बैठक में चले गये जिसे पहन कर वह संध्या करने बैठे थे। यह गमछा पहनने की आदत भी उन्हें किशनदा से विरासत में मिली है और उनके बच्चे इसके सख्त ख़िलाफ़ हैं।


"एवरीबडी गॉन, पार्टी ओवर?" यशोधर बाबू ने मुस्कराकर अपनी बेटी से पूछा, "अब गोया गमछा पहने रहा जा सकता है?"


उनकी बेटी झल्लायी ,"लोग चले गये इसका मतलब यह थोड़ी है कि आप गमछा पहन कर बैठक में आ जाएँ। बब्बा ,यू आर द लिमिट।"


"बेटी, हमें जिसमें सज आयेगी वहीं करेंगे ना, यशोधर बाबू ने कहा, तुम्हारी तरह जीन पहन कर हमें तो सज आती- नहीं।"


यशोधर बाबू की दृष्टि मेज़ पर रखे कुछ पैकेटों पर पड़ी। बोले, "ये कौन भूले जा रहा है?"

भूषण बोला, "आपके लिए प्रेजेँट हैं, खोलिए ना।"

"अह , इस उम्र में क्या हो रहा प्रेजेँट-वरजैंट! तुम खोलो , तुम्हीं इस्तेमाल करो।" यशोधर बाबू शर्मीली हँसी हँसे।
भूषण ने सब से बड़ा पैकेट उठा कर और उसे खोलते हुए बोला, "इसे तो ले लीजिए। यह मैं आपके लिए लाया हूँ। ऊनी ड्रेसिंग गाउन है। आप सवेरे जब दूध लेने जाते हैं बब्बा , फटा पुलोवर पहन के चले जाते हैं जो बहुत ही बुरा लगता है। आप इसे पहन के जाया कीजिए।"
बेटी पिता का पाजामा-कुर्ता उठा लायी कि इसे पहन कर गाउन पहनें। थोड़ा-सा ना-नुच करने के बाद यशोधर जी ने इस आग्रह की रक्षा की। गाउन का सैश कसते हुए उन्होंने कहा, "अच्छा तो यह ठहरा ड्रेसिंग गाउन।"
उन्होंने कहा और उनकी आँखों की कोर में ज़रा-सी नमी चमक गयी।
यह कहना मुश्किल है कि इस घड़ी उन्हें यह बात चुभ गई कि उनका जो बेटा यह कह रहा है कि आप सवेरे यह ड्रेसिंग गाउन पहन कर दूध लाने जाया करें, वह यह नहीं कर रहा है कि दूध मैं ला दिया करूँगा या कि इस गाउन को पहन कर उनके अंगों में वह किशनदा उतर आया है जिसकी मौत 'जो हुआ होगा' से हुई।

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