बुधवार, 13 दिसंबर 2017

Earn paytm cash 100 to 300 rupees daily new launched app December ,2017

Earn paytm cash 100 to 300 rupees daily new launched app December ,2017



Golmaal Again 2017 Hindi 720p DVDRip hd movie

Golmaal Again 2017 Hindi 720p DVDRip hd  movie

Genre: Action, Comedy, Fantasy 
Size: 700mb
 
Language: Hindi  AAC 5.1ch
QUALITY : 720p DVDRip x264
Director: Rohit Shetty 
Stars: Ajay Devgn, Arshad Warsi, Tusshar Kapoor
Story…. The fourth installment of the Golmaal franchise.

WATCH ONLINE

Single Download Links

प्रेमचन्द का जीवन परिचय


जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर समही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम....


जीवन परिस्थितियाँ

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने.......



शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, "उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।......." उसके साथ - साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है "पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।" हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।


शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
साहित्यिक रुचि



गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो - तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद "तिलस्मे - होशरुबा" पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी - बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ - साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा "हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् - पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास
कह गए हैं, "तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।" कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं "कि जाड़े के दिनों में चालीस - चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।"

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
ईश्वर के प्रति आस्थ

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे - धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो - जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था - "जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।
प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४-०५ में "हम खुर्मा व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निर्जिंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

"सेवा सदन", "मिल मजदूर" तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए "महाजनी सभ्यता" नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यू
सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने "प्रगतिशील लेखक संघ" की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया।

मनोहर श्याम जोशी

मनोहर श्याम जोशी


जन्म सन् 1935 , कुमाऊँ में। हिंदी के प्रसिद्ध पत्रकार और टेलीविज़न धारावाहिक लेखक । लखनऊ विश्वविद्यालय से विज्ञान स्नातक 
दिनमान पत्रिका मेँ सहायक संपादक और साप्ताहिक हिंदुस्तान में संपादक के रूप में कार्य । सन् 1984 में भारतीय दूरदर्शन के प्रथम धारावाहिक हम लोग के लिए कथा-पटकथा लेखन शुरू करने के बाद से मृत्युपर्यंत स्वतंत्र लेखन । प्रमुख रचनाएँ : कुरू कुरू स्वाहा , कसप, हरिया हरक्यूलीज़ की हैरानी, हमजाद, क्याप (कहानी संग्रह) ; एक दुर्लभ व्यक्तित्व, कैसे किस्सागो , मंदिर
घाट की पौड़ियाँ , ट-टा प्रोफ़ेसर षष्ठी वल्लभ पंत, नेताजी कहिन, इस देश का यारोँ क्या कहना 
( व्यंग्य-संग्रह) ; बातों-बातों में, इक्कीसवीँ सदी ( साक्षात्कार-लेख-संम्रह) ; लखनऊ मेरा
लखनऊ, पश्चिमी जर्मनी पर एक उड़ती नज़र 
(संस्मरण-संग्रह) ; हम लोग, बुनियाद, मुंगेरी लाल के हसीन सपने (टेलीविज़न धारावाहिक) । क्याप के लिए 2005 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित । निधन सन् 2006 , दिल्ली मेँ ।

आनंद यादव

आनंद यादव
जन्म: 1935 , कागल, कोल्हापुर (महाराष्ट्र) मेँ। पूरा नाम आनंद रतन यादव । पाठकोँ के बीच आनंद यादव के नाम से परिचित । मराठी एवं संस्कृत साहित्य मेँ स्नातकोत्तर डॉ. आनंद यादव बहुत समय तक पुणे विश्वविद्यालय मेँ मराठी विभाग मेँ कार्यरत रहे। अब तक लगभग पच्चीस पुस्तकेँ प्रकाशिता उपन्यास के अतिरिक्त कविता-संग्रह
समालोचनात्मक निबंध आदि पुस्तकें भी प्रकाशित । 
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित नटरंग हिंदी-पाठकों के बीच भी चर्चित । यहाँ प्रस्तुत अंश जूझ उपन्यास से लिया गया है जो सन् 1990 मेँ साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित है। 

ओम थानवी

ओम थानवी


जन्म सन् 1957 मेँ। शिक्षा-दीक्षा बीकानेर मेँ। राजस्थान विश्वविद्यालय से व्यावसायिक प्रशासन मेँ एम.कॉम । एडीटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया के
महासचिव । 1980 रने 1989 तक नौ वर्ष 'राजस्थान पत्रिका' मेँ रहे। 'इतवारी पत्रिका' के संपादन ने साप्ताहिक को विशेष प्रतिष्ठा दिलाई। सजग और बौद्धिक समाज मेँ इतवारी पत्रिका ने अपने दौर मेँ विशिष्ट स्थान बनाया। अपने सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों के लिए जाने जाते हैं। अभिनेता
और निर्देशक के रूप मेँ स्वयं रंगमंच पर सक्रिय रहे हैं। साहित्य, कला, सिनेमा,
वास्तुकला, पुरातत्त्व और पर्यावरण मेँ गहन दिलचस्पी रखते हैं। अस्सी के दशक मेँ सेंटर फ़ॉर साइंस एनवायरमेंट (सीएसई) की फ़ेलोशिप पर राजस्थान के पारंपरिक जल-स्रोतों पर
खोजबीन कर विस्तार से लिखा। पत्रकारिता के लिए अन्य पुरस्कारों के साथ गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार प्रदत्त । 1999 से संपादक के नाते दैनिक जनसत्ता दिल्ली और कलकत्ता के के संस्करणोँ का दायित्व सँभाला । पिछले 17 वर्षोँ से इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक 'जनसत्ता' मेँ संपादक के रूप मेँ कार्यरत ।

ऐन फ्रैँक

ऐन फ्रैँक


ऐन फ्रैंक का जन्म 12 जून, 1929 को जर्मनी के फ्रैंकफर्ट शहर में और मृत्यु नाजियों के यातनागृह में 1945 के फरवरी या मार्च महीने में । ऐन फ्रैंक की डायरी दुनिया की सबसे ज्यादा पढ़ी गई किताबों में से एक है। मूलत: डच भाषा में 1947 में प्रकाशित यह कृति अंग्रेजी में
दी डायरी ऑफ़ द यंग गर्ल
शीर्षक से 1952 में प्रकाशित हुई। तब से इसके संपादित, असंपादित, आलोचनात्मक, विस्तृत-अनेक तरह के संस्करण आ चुके है, इस
पर फ़िल्म, नाटक, धारावाहिक इत्यादि का निर्माण हो चुका है और यह डायरी किसी-न-किसी वजह से लगातार चर्चा में रही है।


History of Taj mahal

The Taj Mahal (/ˌtɑːdʒ məˈhɑːl, ˌtɑːʒ-/;[3] meaning "Crown of the Palace"[4]) is an ivory-white marble mausoleum on the south ban...